शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017
कविता - नदी पर 6 कविताएँ - डॉ. भावना
कविता का अंश...
१.
नदी जब उतरी थी,
कल-कल करती पहाड़ों से,
सुना था उसने,
कहीं है समंदर,
जहाँ पहुँचना/उससे मिलना,
उसमें समा जाना सार्थकता है उसकी,
नदी दिन-रात सपना देखा करती,
सपने में समंदर देखती,
जो अपनी विशाल भुजाएँ फैलाये,
आतुर है उसे समा लेने को।
नदी मन ही मन मुसकरा देती,
और उसकी शोखी,
क्ल-कल छल-छल ध्वनि में,
हो उठती थी परिवर्तित।
२
नदी अब खो गयी प्यार में,
उसे अपनी सुध-बुध न रही,
वह दौड़ती भागती ,
रास्ते की बाधाओं से बेखबर,
पहुँची समंदर के पास।
समंदर गौरवान्वित हुआ खुद पर,
उसने फिर फाँस लिया एक और नदी को,
अपने प्रेमपाश में।
उसने बढ़ा दी अपनी भुजाएँ,
और समा लिया उसे अपने भीतर।
नदी उसके भीतर समाहित,
हजारों नदियों सी एक नदी बन गयी,
उसका अस्तित्व समाप्त हो गया।
३
एक दिन नदी ने समंदर से पूछा,
प्रिये मैंने तुम्हारे लिए घर-बार छोड़ा,
सगे संबंधियों को छोड़े,
अपनी पहचान भी खो दी,
फिर भी तुम्हारी नजर में,
मेरी कोई अहमियत नहीं,
समंदर मुसकराया और धीरे से कहा,
प्रिये अहमियत तो दूसरों की होती है,
तुम तो हमारे भीतर हो,
हममें समाहित,
तो फिर अहमियत कैसी,
नदी खुद पर हँस पड़ी।
४
नदी समा गयी समंदर में,
खो दिया है अपना कुल/गोत्र/पहचान
भूल गयी है अपनी चाल,
क्ल-कल छल-छल की ध्वनि,
अपनी हँसी अपना एकांत,
नदी जो अब विलीन है समंदर में,
समंदर में दहाड़ती है हमेशा,
पर उसके अंदर का आक्रोश दब सा जाता है,
समंदर के शोर में।
वह भागना चाहती है अपने अस्तित्व की तलाश में,
लेकिन पत्थरों से टकरा कर लौट आती है,
फिर फिर वहीं,
नदी अब तड़पती है,
अपनी पहचान की खातिर,
उसके अनवरत आँसुओं ने,
कर दिया है पूरे समंदर को नमकीन
यह समंदर और कुछ नहीं,
नदी के आँसू हैं
और उसकी लहरें,
नदी के हृदय का शोर।
नदी जिसकी नियति तड़प है।
५
नदी जो तड़प रही है,
अपनी पहचान की खातिर।
तब सूरज नहीं देख पाया है,
उसकी तड़प उसकी बेचैनी।
उसने भर दी है अपने किरणों में,
थोड़ी और गरमी,
कर दिया है वाष्पीकृत उसके जल को,
वह जल संधनित हो,
मँडरा रहा बादल बन अंबर में।
फिर बूँदों की शक्ल में आ गया है धरती पर,
नदी खुश है अपने पुनर्जन्म से।
अभिभूत है सूरज के उपकार से।
जिसने उसे लौटा दिया है,
उसका वजूद, उसकी पहचान
नदी समंदर की विशालता को ठुकरा,
अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है।
६
नदी को अब भी याद आती है समंदर की,
नदी अब भी तड़पती है समंदर के लिए,
लेकिन नदी अब समझदार हो गयी है,
वह नहीं मिटाना चाहती अपना वजूद,
वह जीना चाहती है,
अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ।
इन कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
संपर्क - bhavna.201120@gmail.com
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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