डा. महेश परिमल
गणेश चतुर्थी, जगह-जगह संकट निवारक देवता गणेश जी की मूर्ति की स्थापना, चंदा, गली-गली के बच्चों-बड़ों में उत्साह. देर रात तक झाँकियों का प्रदर्शन, तेज ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग, फूहड़ गाने, छेड़छाड़, अपराध और भी न जाने क्या-क्या? कुल मिलाकर यही लगता है कि ये कहाँ आ गए हम, शोर की दुनिया में. जहाँ कोई किसी का नहीं, सब शोर के गुलाम हैं. हम सभी के कानों में शोर इतना रच-बस चुका है कि बिजली गुल हो जाने पर सभी ओर छाई शांति हमें खलने लगती है. वह शांति हमें बर्दाश्त नहीं हो पाती. ये क्या हो गया है हमें कि हम अपने भीतर की आवांज सुन नहीं पा रहे हैं. खुशी में शोर, ंगम में शोर, याने शांति हमें चाहिए ही नहीं. सचमुच हम सब शोर के ंगुलाम हो गए हैं.
उस दिन सड़क पर एक साधारण-सी घटना घटी. एक युवक मोटरसाइकिल पर चला जा रहा था. उसके पीछे एक ट्रक जा रहा था. अचानक ट्रक का हार्न इतनी तेजी से चीखा कि युवक कुछ विचलित हो गया. उसके बाद ट्रक का हार्न कुछ अधिक देर तक चीखता रहा. अब बारी उस युवक की थी. उसने तेजी से आगे बढ़कर अपनी बाइक सड़क के बीचो-बीच आड़ी खड़ी कर दी, ट्रक रुक गया. युवक ड्राइवर के पास पहुँचा और लगातार उसे मारने लगा. लोग यह देखकर हैरान थे कि आखिर हो क्या रहा है. ड्राइवर मार खा रहा था और पूछ रहा था कि आखिर उससे गलती क्या हुई है. कुछ देर बाद युवक का गुस्सा शांत हुआ. लोगों ने उससे पूछा कि आखिर बात क्या है. तब उस युवक ने बताया कि ड्राइवर लगातार 'प्रेशर हार्न' बजा रहा था, हार्न का यह शोर मुझसे सहन नहीं होता. यह मेरी कमजोरी है कि इस हार्न के बजने से मैं अपना आपा खो बैठता हूँ. इस दौरान मुझसे खून भी हो सकता है. अब ड्राइवर को समझ में आया कि उससे क्या गलती हुई है.
वह युवक तो पुलिस के हत्थे चढ़ गया, पर हम सभी के सामने एक ंजिंदा सवाल छोड़ गया. उसने क्या ंगलत किया. यह सच है कि किसी को भी सड़क पर इस तरह से अचानक मारना नहीं चाहिए. पर वह युवक क्या करे, वह तो अपने-आपे में नहीं था. वह तो शोर से नफरत करता था और वही शोर उसके कानों पर बार-बार पड़ रहा था. यह शोर बड़ा भयानक रोग की तरह हमारे भीतर पाँव पसार रहा है. इसकी तकलीफ को हम अभी नहीं समझ रहे हैं, पर निकट भविष्य में यह हमारे सर चढ़कर बोलेगा, इसमें कोई शक नहीं.
कुछ दिनों पहले ही शहर से बहुत दूर एक गाँव में जाने का अवसर मिला. खेतों, पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ के बीच गुजरते हुए बहुत अच्छा लगा. स्वच्छ पानी के तालाब में नहाना, ऐसा लगा मानो बरसों की शहरी थकान उतर गई हो. भोजन भी अपेक्षाकृत अधिक लिया. नींद तो इतनी गहरी आई कि पूछो ही मत, पर एक बात विशेष रूप से देखने में आई कि खेतों पर काम करते हुए दो कोनों पर खड़े मजदूरों में आपस में वार्तालाप हो जाता था और उन दोनों के बीच खड़े होकर मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था. मैंने देखा कि वे मजदूर परस्पर बातचीत कर हँस भी लेते थे. उनकी बोली से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद भी आखिर मुझे उनकी बातचीत समझ में क्यों नहीं आती थी?
आज जब मैं इस पर गंभीरता से विचार कर रहा हूँ तो पाता हंँ कि मेरे कानों को तो शहरी ध्वनि प्रदूषण का रोग लग गया है. शहरों में कल-कारखानों, वाहनों, मंदिरों, पटाखों, बैंडबाजों का शोर इतना व्यापक है कि सामान्य ध्वनि तो सुनाई ही नहीं देती. उन मजदूरों के कानों में ध्वनि संवेदना अधिक सक्रिय है, क्योंकि वहां शोर नहीं है. आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के ऑंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
उत्सवों में अधिक से अधिक शोर करना फैशन हो गया है. रोज सुबह मंदिरों में आरती के लिए लाउडस्पीकर का सहारा लिया जाता है. आरती के वक्त मंदिरों में कभी जाकर देखें तो पता चलेगा कि मात्र चार लोग ही विभिन्न वाद्ययंत्रों के माध्यम से लाउडस्पीकर का सहारा लेकर अधिक से अधिक शोर करते हैं. इस दौरान वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि जो आरती मन को शांति पहुँचाती है, वही लाउडस्पीकर से निकलकर किस तरह से दूसरों को अशांत कर रही है. बहुत सुरीली लगती है न लता मंगेशकर की आवांज, कभी उनके किसी गीत को साउंड सिस्टम में पूरी तीव्रता के साथ सुनो तब समझ में आ जाएगा कि अधिक तेज आवांज किस तरह से सुरीले स्वर को कर्कश बना देती है?
आज पर्यावरण पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जल और वायु के प्रदूषण पर सारा विश्व चिंतित है, पर ध्वनि प्रदूषण की ओर कोई इशारा भी नहीं करता. इसके लिये हमें ही प्रयास करना होगा. शुरुआत हम खुद से करें तो बेहतर होगा. तेज स्वर में न बोलें. अपने रेडियो, टेप, टी.वी. की आवांज धीमी रखें. उत्सवों में तेज स्वर से दूर रहें. अपने उत्सव में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग ही न करें. अपनी गाड़ियों में कर्कश ध्वनि वाले हार्न न लगाएँ, लोगों को ध्वनि प्रदूषण के खतरों एवं दुष्प्रभावों से अवगत कराएँं. अपनी तरफ से हम इतना ही करें तभी हमें शांति मिल सकती है. हमारे आसपास कितना शोर है यह जानने के लिए एक मिनट तक दोनों कानों में अपनी ऊँगलियाँ डाल लें, देखो कितनी शांति मिलती है? बाहरी शोर पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं, पर कुछ प्रयास तो हमारी ओर से हो ही सकते हैं. नहीं तो इन शोर प्रेमियों को कौन बताए कि आपका बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो उसके पीछे यह शोर तो नहीं? बच्चे के जन्म की खुशियाँ लाउडस्पीकर के माध्यम से बाँटने वाले कभी खुद ही अपने ही बच्चे की आवांज सुनने से तरस जाएँगे, क्योंकि यह शोर आपको बहरा बना देगा.
बच्चों को कमजोर बना सकता है्र यह शोर
शोर आपके बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर भी बना सकता है. सावधान हो जाएँ, यदि आप किसी हवाई अड्डे के नजदीक रहते हैं. जर्मन विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक शोध में ये चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं. शोर्धकत्ताओं का कहना है कि शोर भरे माहौल की घुटन से बच्चों के मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने लगता है. ऐसे बच्चे जो किसी व्यस्त हवाई अड्डे के आसपास रहते हैं, उन्हें किसी पाठ को याद रखने में सामान्य बच्चों से अधिक कठिनाइयाँ होती है. इसी तरह कंठस्थ करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसी स्थिति लंबे समय तक भी बनी रह सकती है.
डॉ. महेश परिमल
गणेश चतुर्थी, जगह-जगह संकट निवारक देवता गणेश जी की मूर्ति की स्थापना, चंदा, गली-गली के बच्चों-बड़ों में उत्साह. देर रात तक झाँकियों का प्रदर्शन, तेज ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग, फूहड़ गाने, छेड़छाड़, अपराध और भी न जाने क्या-क्या? कुल मिलाकर यही लगता है कि ये कहाँ आ गए हम, शोर की दुनिया में. जहाँ कोई किसी का नहीं, सब शोर के गुलाम हैं. हम सभी के कानों में शोर इतना रच-बस चुका है कि बिजली गुल हो जाने पर सभी ओर छाई शांति हमें खलने लगती है. वह शांति हमें बर्दाश्त नहीं हो पाती. ये क्या हो गया है हमें कि हम अपने भीतर की आवांज सुन नहीं पा रहे हैं. खुशी में शोर, ंगम में शोर, याने शांति हमें चाहिए ही नहीं. सचमुच हम सब शोर के ंगुलाम हो गए हैं.
उस दिन सड़क पर एक साधारण-सी घटना घटी. एक युवक मोटरसाइकिल पर चला जा रहा था. उसके पीछे एक ट्रक जा रहा था. अचानक ट्रक का हार्न इतनी तेजी से चीखा कि युवक कुछ विचलित हो गया. उसके बाद ट्रक का हार्न कुछ अधिक देर तक चीखता रहा. अब बारी उस युवक की थी. उसने तेजी से आगे बढ़कर अपनी बाइक सड़क के बीचो-बीच आड़ी खड़ी कर दी, ट्रक रुक गया. युवक ड्राइवर के पास पहुँचा और लगातार उसे मारने लगा. लोग यह देखकर हैरान थे कि आखिर हो क्या रहा है. ड्राइवर मार खा रहा था और पूछ रहा था कि आखिर उससे गलती क्या हुई है. कुछ देर बाद युवक का गुस्सा शांत हुआ. लोगों ने उससे पूछा कि आखिर बात क्या है. तब उस युवक ने बताया कि ड्राइवर लगातार 'प्रेशर हार्न' बजा रहा था, हार्न का यह शोर मुझसे सहन नहीं होता. यह मेरी कमजोरी है कि इस हार्न के बजने से मैं अपना आपा खो बैठता हूँ. इस दौरान मुझसे खून भी हो सकता है. अब ड्राइवर को समझ में आया कि उससे क्या गलती हुई है.
वह युवक तो पुलिस के हत्थे चढ़ गया, पर हम सभी के सामने एक ंजिंदा सवाल छोड़ गया. उसने क्या ंगलत किया. यह सच है कि किसी को भी सड़क पर इस तरह से अचानक मारना नहीं चाहिए. पर वह युवक क्या करे, वह तो अपने-आपे में नहीं था. वह तो शोर से नफरत करता था और वही शोर उसके कानों पर बार-बार पड़ रहा था. यह शोर बड़ा भयानक रोग की तरह हमारे भीतर पाँव पसार रहा है. इसकी तकलीफ को हम अभी नहीं समझ रहे हैं, पर निकट भविष्य में यह हमारे सर चढ़कर बोलेगा, इसमें कोई शक नहीं.
कुछ दिनों पहले ही शहर से बहुत दूर एक गाँव में जाने का अवसर मिला. खेतों, पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ के बीच गुजरते हुए बहुत अच्छा लगा. स्वच्छ पानी के तालाब में नहाना, ऐसा लगा मानो बरसों की शहरी थकान उतर गई हो. भोजन भी अपेक्षाकृत अधिक लिया. नींद तो इतनी गहरी आई कि पूछो ही मत, पर एक बात विशेष रूप से देखने में आई कि खेतों पर काम करते हुए दो कोनों पर खड़े मजदूरों में आपस में वार्तालाप हो जाता था और उन दोनों के बीच खड़े होकर मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था. मैंने देखा कि वे मजदूर परस्पर बातचीत कर हँस भी लेते थे. उनकी बोली से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद भी आखिर मुझे उनकी बातचीत समझ में क्यों नहीं आती थी?
आज जब मैं इस पर गंभीरता से विचार कर रहा हूँ तो पाता हंँ कि मेरे कानों को तो शहरी ध्वनि प्रदूषण का रोग लग गया है. शहरों में कल-कारखानों, वाहनों, मंदिरों, पटाखों, बैंडबाजों का शोर इतना व्यापक है कि सामान्य ध्वनि तो सुनाई ही नहीं देती. उन मजदूरों के कानों में ध्वनि संवेदना अधिक सक्रिय है, क्योंकि वहां शोर नहीं है. आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के ऑंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
उत्सवों में अधिक से अधिक शोर करना फैशन हो गया है. रोज सुबह मंदिरों में आरती के लिए लाउडस्पीकर का सहारा लिया जाता है. आरती के वक्त मंदिरों में कभी जाकर देखें तो पता चलेगा कि मात्र चार लोग ही विभिन्न वाद्ययंत्रों के माध्यम से लाउडस्पीकर का सहारा लेकर अधिक से अधिक शोर करते हैं. इस दौरान वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि जो आरती मन को शांति पहुँचाती है, वही लाउडस्पीकर से निकलकर किस तरह से दूसरों को अशांत कर रही है. बहुत सुरीली लगती है न लता मंगेशकर की आवांज, कभी उनके किसी गीत को साउंड सिस्टम में पूरी तीव्रता के साथ सुनो तब समझ में आ जाएगा कि अधिक तेज आवांज किस तरह से सुरीले स्वर को कर्कश बना देती है?
आज पर्यावरण पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जल और वायु के प्रदूषण पर सारा विश्व चिंतित है, पर ध्वनि प्रदूषण की ओर कोई इशारा भी नहीं करता. इसके लिये हमें ही प्रयास करना होगा. शुरुआत हम खुद से करें तो बेहतर होगा. तेज स्वर में न बोलें. अपने रेडियो, टेप, टी.वी. की आवांज धीमी रखें. उत्सवों में तेज स्वर से दूर रहें. अपने उत्सव में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग ही न करें. अपनी गाड़ियों में कर्कश ध्वनि वाले हार्न न लगाएँ, लोगों को ध्वनि प्रदूषण के खतरों एवं दुष्प्रभावों से अवगत कराएँं. अपनी तरफ से हम इतना ही करें तभी हमें शांति मिल सकती है. हमारे आसपास कितना शोर है यह जानने के लिए एक मिनट तक दोनों कानों में अपनी ऊँगलियाँ डाल लें, देखो कितनी शांति मिलती है? बाहरी शोर पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं, पर कुछ प्रयास तो हमारी ओर से हो ही सकते हैं. नहीं तो इन शोर प्रेमियों को कौन बताए कि आपका बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो उसके पीछे यह शोर तो नहीं? बच्चे के जन्म की खुशियाँ लाउडस्पीकर के माध्यम से बाँटने वाले कभी खुद ही अपने ही बच्चे की आवांज सुनने से तरस जाएँगे, क्योंकि यह शोर आपको बहरा बना देगा.
बच्चों को कमजोर बना सकता है्र यह शोर
शोर आपके बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर भी बना सकता है. सावधान हो जाएँ, यदि आप किसी हवाई अड्डे के नजदीक रहते हैं. जर्मन विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक शोध में ये चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं. शोर्धकत्ताओं का कहना है कि शोर भरे माहौल की घुटन से बच्चों के मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने लगता है. ऐसे बच्चे जो किसी व्यस्त हवाई अड्डे के आसपास रहते हैं, उन्हें किसी पाठ को याद रखने में सामान्य बच्चों से अधिक कठिनाइयाँ होती है. इसी तरह कंठस्थ करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसी स्थिति लंबे समय तक भी बनी रह सकती है.
डॉ. महेश परिमल