डॉ. महेश परिमल
कौवे वे भी काले, हमें क्या किसी को भी फूटी ऑंख नहीं सुहाते. क्योंकि हम अब भी उसे अपशकुन के रूप में स्वीकारते हैं. वह पर्यावरण का सच्चा साथी भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना के बाहर है. पर अब वही काला कौवा हमसे लगातार दूर होता जा रहा है, और यह मंजर हम सभी अपनी ऑंखों से देख रहे हैं. पहले उसे किसी सूचना का संवाहक माना जाता था, याने वह एक कासिद बनकर हमारे बीच रहता था, पर अब वह कासिद नहीं, बल्कि हमारे आसपास नष्ट होते पर्यावरण के रक्षक के रूप में मौजूद है. हमारी ऑंखें भले ही उसे इस रूप में न स्वीकार करती हों, पर यह सच है कि पर्यावरण का यह सच्चा प्रहरी अब हमारी ऑंखों से दूर होता जा रहा है. अब उसकी भूमिका कासिद की नहीं रही. जमाना बहुत तेजी से भाग रहा है, इंटरनेट के इस युग में भला पारंपरिक रूप से सूचना देने के इस वाहक का क्या काम? पर कभी आपने इस काले और काने कौवे को अपने मित्र के रूप में देखने की छोटी-सी कोशिश भी की? निश्चित ही नहीं की होगी, पर जब श्राध्द पक्ष में घर में माँ कहेगी, छत पर जाओ, इस खीर-पूड़ी को अपने पुरखों को दे आओ. तब लगेगा कि सचमुच ये काला कौवा तो हमारे पुरखों के रूप में हमारी मुंडेर पर रोज ही बैठता है, और हम हैं कि इसे भगााने में कोई संकोच नहीं करते. यही होता है, पीढ़ियों का अंतर. आज की पीढ़ी को यह भले ही नागवार गुजरे, पर यह सच है कि यह पीढ़ी भी एक न एक दिन काले और काने कौवे की कर्कश आवाज में पुरखों की पीड़ा को समझेगी.
काले कौवे को भारतीय समाज में कभी-भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. उसे सदैव अपशकुन से जोड़ा गया. पर जैसे घूरे के दिन भी फिरते हैं, वेसे ही वर्ष में मात्र 15 दिनों के लिए कौवे के दिन फिर जाते हैं. उन दिनों हर कोई लालायित रहता है, उसे अपने सामर्थ्यनुसार भोग लगाने के लिए. इन दिनों उसे खूब ढृँढ़ा जाता है. छत पर खड़े होकर हम अपने पुरखों को याद करते हुए उसे उन्हीं की आवाज में पुकारते हैं. वह आता है, फिर चला जाता है. हमारे हाथ पर खीर-पूड़ी की थाली वैसी ही रह जाती है. ऑंखें भर आती हैं, हम सोचते हैं, क्यों नाराज हैं, हमसे हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माँ-पिताजी? क्यों नही आ रहे हैं हमारे पास....
तब हम समझ लेते हैं उनकी नारांजगी का कारण. खीर-पूड़ी की थाली हमें याद दिला देती है, उन सूखी रोटियों की, जो हम अक्सर ही उनकी थाली में देखते थे. उनके भोजन में कभी खीर-पूड़ी रखी गई हो, हमें याद नहीं आता. जब तक उनके स्नेह और ममत्व की छाँव हमारे साथ थी, उनके पोपले मुँह से हमारे लिए आशीर्वाद ही निकलता. वे हमें टोकते, हम बुरा मान जाते, फिर तो उनके मनाने के ढंग भी बड़े प्यारे होते. हम मान भी जाते. उनकी गोद में घंटों खेलते, कभी-कभी परेशान भी करते, तो वे हमें डाँटते भी. कभी चपत भी लगाते. हम उनके बारे में न जाने क्या-क्या सोच लेते.
आज वही सोच हमारी ऑंखें गीली कर रही हैं. सहसा हाथ गाल पर चला जाता है, उन्होंने हमें यहीं मारा था ना, पर उसके बाद तो वह ंगलती हमने नहीं दोहराई. इसीलिए आज ये ऑंसू हमारे साथ हैं. अब तो वह सब-कुछ याद आ रहा है, उन्हें कैसी-कैसी झिड़कियाँ मिलती थी. मकान अपने नाम करने के लिए उनकी खूब खातिरदारी भी की गई थी. वे तो इस खातिरदारी से इतने गद्गद् हो गए थे कि भूल ही गए उन सभी कष्ट भरे दिनों को. ंजरा भी देर नहीं की उन्होंने रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर करने में. कुछ दिन तक सब ठीक रहा. बाद में उनके झिड़कियों वाले दिन लौट आए. हमने महसूस किया, उनकी गृहस्थी ही अलग बसा दी गई. घर का एक कोना उनके लिए सुरक्षित हो गया. न किसी से बातचीत, न ही किसी से प्यार-मोहब्बतब्बत. अपने ही घर में बेगाने हो गए थे वे.
कैसे पीड़ादायी क्षण थे उनके. थकी साँसें, जर्जर शरीर, दुर्गंधयुक्त कपड़े-बिस्तर, खून से सना कंफ, बलगम या फिर थूक. ऐसे भी जी लेते हैं लोग. वे जीते रहे, अंतिम साँसों तक. मुझे याद है, उन्होंने एक बार मुझे अपने पास बुलाया था, प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए कहा था- बेटा, मुझे भूख लगी है, माँ से कहकर एक रोटी ला दे. मैं दौड़ा था, एक रोटी लाने. उस समय मैं दौड़ में पिछड़ गया. मुझे देर हो गई, कुछ क्षण पहले ही माँ ने बासी रोटियाँ कुत्ते को डाली थी. खून के ऑंसू कैसे पीते हैं लोग, इसे उस समय नहीं,पर आज महसूस कर रहा हूँ.
आज वे नहीं हैं, विडम्बना देखो, जो एक सूखी बासी रोटी देने में सक्षम नहीं हो पाया था, उसे ही कहा गया है कि दादा को खीर-पूड़ी दे दो. वे कौवे के रूप में हमारी मुँडेर पर आएँगे. मरने के बाद उन्हें खीर-पूड़ी का भोग! किस समाज में जी रहे हैं हम? चलती साँसों का अपमान और थकी थमी साँसों का सम्मान. अगर यही समय का सच है, तो एक और सच यह भी स्वीकारने के लिए तैयार हो जाएँ हम सब, वह यह कि अब हमारी मुँडेर पर कभी नहीं बैठ पाएंगे कागा, न ही किसी के आने की सूचना दे पाएँगे. फिर क्या करेंगे हम?
पॉलीथीन, खेतों में कीटनाशक, प्रदूषित पर्यावरण, प्रदूषण, घटते वन-बढ़ते कांक्रीट के जंगल. ये सब मिलकर कागा को शहर से दूर भगा रहे हैं. इन्हें ही हम सब वर्ष के 350 दिन याद नहीं करते, मात्र 15 दिनों तक इन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर याद रखते हैं. इन्हें भगाने के सारे उपक्रम हमारे द्वारा ही सम्पन्न होते हैं. पर्यावरण सुधार की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया हमने. केवल एक पखवाड़े तक इन्हें खीर-पूड़ी से नवाजने में संकोच नहीं करते. ऐसे में हमसे क्यों न रूठें कागा......
इन कागाओं को हम केवल उन्हीं के उसी रूप में न देखें. अपनी संस्कृति में झाँककर इन्हें केवल 15 दिन नहीं, बल्कि वर्ष भर स्मरण करें. यदि हम उनमें अपने पुरखों को देखना चाहते हैं, तो हमें उनका भी ध्यान रखना होगा. यह जान लें कि कागा में पूर्वज हैं, तो कागा नहीं, हमारे पूर्वज ही हमसे रूठने लगे हैं. यह पूर्वजों का पराक्रम ही था कि उन्होंने हमे वनों से आच्छादित संसार दिया. उन्हीं के वैभव ने हमें जीना सिखाया. आज हम भावी पीढ़ी को क्या देकर जा रहे हैं, कांक्रीट के ज्रंगल, प्रदूषित पर्यावरण, उजाड़ मैदान, प्रदूषित वायु और जल? इसके अलावा इंसानियत को खत्म करने का इरादा रखने वाले हैवानों को?
अब भी वक्त है. हम नहीं चेते, तो प्रकृति ही हमसे रूठ जाएगी. वह खूब जानती है,अपना संतुलन कैसे रखा जाता है. फिर इसके प्रकोप से हमें कोई नहीं बचा सकता. प्राकृतिक विपदाओं का सिलसिला चलता रहेगा. पूर्वजों ने अच्छे कार्य किए, तो कौवे भी अपना कर्त्तव्य समझकर पर्यावरण की रक्षा करते रहे. पूर्वज गए, कौवे हमसे दूर हुए और हम इन दोनों से दूर हो गए. अभी भी थोड़ा सा समय है हमारे पास. बुंजुर्ग नाम की जो दौलत हमारे पास है, उसे हम न खोएँ. उनसे सलाह लें, उनका मार्गदर्शन लें, उन्हें आगे बढ़ने का मौका दें. फिर देखो, कागा ही नहीं, पंछियों का कलरव हमारे ऑंगन होगा, हम चहकेेंगे, सब चहकेंगे. मुँडेर पर बैठकर कागा कहेगा- काँव-काँव....
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 26 सितंबर 2007
कागा के बहाने बुजुर्गों की बात....
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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भाई परिमल जी
जवाब देंहटाएंएक कौवे के बहाने बहुत कुछ कह दिया आपने. मन भीग आया. वैसे हमारे समाज में कौवा कर्कशता और भद्देपन का प्रतीक जरूर रहा है. अपनी चर्चित चालाकियों के कारण उसे धूर्तता का प्रतीक भी मना जता रहा है. लेकिन हमारे भोजपुरिया समाज में उसे अशुभ कभी नहीं मना गया. बल्कि हमारे यहाँ उसे शुभ माना जाता रहा है. उसकी वजह शायद उसका पर्यावरण मित्र होने का पहलू ही रहा है.