डा. महेश परिमल
परिवर्र्तन समय की माँग है, इसके साथ ही बदल रहे हैं, संबोधन! देखते-ही-देखते बहन की रक्षा का संकल्प लेने वाला शब्द भाई आज सभ्य समाज से दूर होकर अपना अलग ही अर्थ देने लगा है. दूसरी ओर अंखबारों में कुछ दिनों पहले पढ़ा था कि 'कॉलगर्ल' रैकेट में पकड़ी गई सरगना को सब 'बहन' के नाम से संबोधित करते थे. इस तरह से बहन और भाई दोनों ही सभ्य समाज से दूर हो गए. 'भाई' अब रक्षाबंधन पर बहन की रक्षा का संकल्प नहीं लेता, बल्कि उसे धन देने वालों के विरोधियों का सफाया करता है. 'बहन' भी रेशमी कलम से भाग्य लिखने वालों की 'क्षुधापूर्ति' में लाचार, बेबस और भाग्यहीन युवतियों को सामने लाने में सहायक सिध्द होने लगी हैं.
अब तो कामातुर पिता और लालची माँ के वीभत्स रूप भी सामने आने लगे हैं. बेटी को गर्भ में ही मार देने वाली कई 'वीरांगनाएँ' और कथित माँएँ आज सभ्य समाज में शान से जी रहीं हैं. जरा उस मासूम की अनसुनी चीखों को तो सुनो, जिसने अभी ऑंखें भी नहीं खोली हैं. वह आना चाहता है, हमारी इस दुनिया में. पर उसे मार दिया गया. कोई बता सकता है, उसका गुनाह क्या था? वह स्वयं तो इस संसार में नहीं आया. फिर उसने कोख से 'डस्टबीन' का रास्ता किस यंत्रणापूर्ण स्थिति में किया, यह किसी ने जानने की कोशिश की. उस कथित माँ ने भी यह नहीं सोचा कि ऐसा ही यदि उसकी माँ ने उसके जन्म के पहले सोचा होता, तो क्या होता? ंजरा उस मासूम को होने वाली पीड़ा को महसूस तो करो. हमें तो एक सूई चुभती है, हम आह कर उठते हैं. वह मासूम तो नश्तर, कैंची, चाकू का वार झेलता है, अपने रुई जैसे कोमल और नाजुक शरीर पर. उसके पास बचाव का कोई साधन नहीं है. वह तो सबसे सुरक्षित अपनी माँ की कोख को ही समझता है. उसके साथ वहीं अत्याचार होता है. वह मासूम सब-कुछ सह लेता है चुपचाप. उस मासूम की जिजीविषा तो देखो... 'डस्टबीन' में भी उसके अंग छटपटाते रहते हैं. मानवता यहाँ बार-बार मरती है. ऐसे में कोई मासूम उस कथित माँ को कैसे कहे - माँ....!
कामातुर पिता से गर्भवती होतीेबेटी समाज के सामने इस नए रिश्ते को परिभाषित करने का सवाल दागती है. समाज खामोश है. यह जानते हुए भी कि बेटी घर में भी सुरक्षित नहीं है. समाज की यह खामोशी पिता याने सृजनकार को कटघरे में खड़ा करती है. क्या ऐसे व्यक्ति को गर्व से हम संबोधन दे सकते हैं. कह सकते हैं उसे पिता, पापा, बाबा, बाबूजी या अब्बू? इस तरह से पिता भी चले गए सभ्य समाज से दूर..... कथित भाई, बहन और माँ के पास.
सवाल यह उठता है कि अब शेष कौन बचा? किस समाज में जी रहे हैं हम? यह विकृति आई कहाँ से? पहले तो ऐसा नहीं था. समाज हम पर और हम समाज पर गर्व करते थे. सिक्के का दूसरा साफ पहलू यह है कि सभी सामाजिक प्राणी ऐसे नहीं होते. कुछ लोगों के कारण पूरे समाज को दोषी नहीं कहा जा सकता. पर यह बुराई आज पूरे समाज पर हावी होती जा रही है, तब भी क्या हम यह मानकर चलें कि हम बिलकुल भी दोषी नहीं है? खैर हम दोषी नहीं, पर क्या हमने यह कभी सोचा कि हमारे नौनिहालों को हम कौन-से औैर कैसे संस्कार दे रहे है? कुछ संस्कार, कुछ शिक्षा, कुछ वातावरण और हमारे थोपे और ओढ़े हुए विचार आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. कोई भी माता-पिता नहीं चाहते कि उनके लाडले को गलत संस्कार मिले, पर वह यह भी नहीं देखना चाहते कि आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा में हमारा लाडला कितना भींग चुका है? बच्चा उसे 'पैराटीचर' कहता है, पर यह पैराटीचर उसे क्या पढ़ा रहा है, यह जानने की फुरसत उनके माता-पिता को नहीं. यहीं से बदलती है संबोधन की राह.
समाज में सैकड़ों शब्द प्रतिदिन प्रवेश करते हैं. कुछ प्रचलित होते हैं, कुछ भुला दिए जाते हैं. कुछ शब्दों का ऐसा अर्थ विस्तार होता है कि वे रिश्तों की दुनिया में छा जाते हैं. अगरेंजी का शब्द 'अंकल-आंटी' आज हमारे भारतीय समाज के रिश्तों के शब्द चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, फूफा-फूफी आदि पर छा गया है. आज की पीढ़ी ने सारे रिश्तों को इन दो शब्दों में समेट दिया है. जहाँ खून के रिश्तों से जुड़े शब्द अपना अर्थ खोकर अर्थ संकोच के दायरे में कैद हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर माता-पिता की ओर से बनने वाले रिश्ते सिमटकर अर्थ संकोच का कारण बन रहे हैं.
रिश्तों को नकारना आज एक फैशन बन गया है. टूटते-बिगड़ते रिश्ते भी अब सुख देने लगे हैं. 'भाभी' जैसे ममत्वमयी संबोधन भी अब जब उलाहने और कर्कश आवाज के साथ सुनाई देते हैं, तो भाभी शब्द से ज्यादा उस 'भाभी' का करुण चेहरा अनायास ही सामने आ जाता है. इसी तरह 'बहू, माँजी' जैसे शब्द कई बार हमें स्वप्न में डराते हैं. रिश्तों के संबोधनों का हमला अब हमारे अपने रचना संसार में होने लगा है. आकाशीय मार्ग से प्राप्त होने वाला मनोरंजन रिश्तों की जिस तरह से बखिया उघाड़ रहा है, उससे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारण ही नष्ट होने लगी है. बाज आए, ऐसे संयुक्त परिवारों से. इससे तो 'हम दो हमारे दो' ही भले. पर संयुक्त परिवारों का यह बिखराव दिन में एक बार न देख लें, तो मन नहीं मानता.
इन सबसे हटकर बहुत से ऐसे रिश्ते हैं, जिन्हें संबोधन की भी दरकार नहीं है. हमारे आसपास ऐसे कई रिश्ते मिल जाएँगे, जो केवल अपना काम ही करते रहते हैं. उनका काम करते रहना, हमारी प्रगति में सहायक है. दूधवाला, कामवाली बाई, धोबी, दर्जी, नाई, मोची, मेकेनिक, जमादार आदि ऐसे लोग हैं, जिन्हें हम सम्मानजनक संबोधन देने में मुकर जाते हैं. पर उनके बिना हमारे कई काम थम जाते हैं. अपनी दाढ़ी बनाकर हम नाई तो बन सकते हैं, पर बाल तो नहीं काट सकते. वाशिंग मशीन में कपड़े तो धो लिए, पर उसे प्रेस करने की जहमत कौन उठाए? टूटी चप्पल की मरम्मत या जूते की पॉलिस एक बार-दो बार तो कर सकते हैं, पर रोंज-रोंज नहीं. कपड़े तो दर्जी ही सिलेगा ना. इनको कभी रिश्तों का संबोधन दिया किसी ने?
रिश्ते ही रिश्ते, अनाम रिश्ते, गुनाहगारों के बेगुनाही के रिश्ते, अपनों के रिश्ते, बेगानों के रिश्ते, इन्हें आज तक कोई संबोधन क्यों नहीं मिला? कैसे सामाजिक हैं हम? कैसी है हमारी सामाजिकता! मम, पॉप,चाचू, जीजू, जेठू जैसे संबोधनों के बीच रिश्ते नहीं, बल्कि हमारे संबोधन ही अर्थ खोने लगे हैं. ये अर्थ खोते शब्द छोटे परदे पर सिमटे परिवारों के टूटने-बिखरने की कहानी कहते हुए हमें ही भरमा रहे हैं, इसके पहले कि ये हम पर हावी हों, इनको हमें ही एक नई परिभाषा देनी होगी. संबोधनों के बीच बसे भावनात्मक अर्थों को सार्थक बनाना होगा.
डा. महेश परिमल
परिवर्र्तन समय की माँग है, इसके साथ ही बदल रहे हैं, संबोधन! देखते-ही-देखते बहन की रक्षा का संकल्प लेने वाला शब्द भाई आज सभ्य समाज से दूर होकर अपना अलग ही अर्थ देने लगा है. दूसरी ओर अंखबारों में कुछ दिनों पहले पढ़ा था कि 'कॉलगर्ल' रैकेट में पकड़ी गई सरगना को सब 'बहन' के नाम से संबोधित करते थे. इस तरह से बहन और भाई दोनों ही सभ्य समाज से दूर हो गए. 'भाई' अब रक्षाबंधन पर बहन की रक्षा का संकल्प नहीं लेता, बल्कि उसे धन देने वालों के विरोधियों का सफाया करता है. 'बहन' भी रेशमी कलम से भाग्य लिखने वालों की 'क्षुधापूर्ति' में लाचार, बेबस और भाग्यहीन युवतियों को सामने लाने में सहायक सिध्द होने लगी हैं.
अब तो कामातुर पिता और लालची माँ के वीभत्स रूप भी सामने आने लगे हैं. बेटी को गर्भ में ही मार देने वाली कई 'वीरांगनाएँ' और कथित माँएँ आज सभ्य समाज में शान से जी रहीं हैं. जरा उस मासूम की अनसुनी चीखों को तो सुनो, जिसने अभी ऑंखें भी नहीं खोली हैं. वह आना चाहता है, हमारी इस दुनिया में. पर उसे मार दिया गया. कोई बता सकता है, उसका गुनाह क्या था? वह स्वयं तो इस संसार में नहीं आया. फिर उसने कोख से 'डस्टबीन' का रास्ता किस यंत्रणापूर्ण स्थिति में किया, यह किसी ने जानने की कोशिश की. उस कथित माँ ने भी यह नहीं सोचा कि ऐसा ही यदि उसकी माँ ने उसके जन्म के पहले सोचा होता, तो क्या होता? ंजरा उस मासूम को होने वाली पीड़ा को महसूस तो करो. हमें तो एक सूई चुभती है, हम आह कर उठते हैं. वह मासूम तो नश्तर, कैंची, चाकू का वार झेलता है, अपने रुई जैसे कोमल और नाजुक शरीर पर. उसके पास बचाव का कोई साधन नहीं है. वह तो सबसे सुरक्षित अपनी माँ की कोख को ही समझता है. उसके साथ वहीं अत्याचार होता है. वह मासूम सब-कुछ सह लेता है चुपचाप. उस मासूम की जिजीविषा तो देखो... 'डस्टबीन' में भी उसके अंग छटपटाते रहते हैं. मानवता यहाँ बार-बार मरती है. ऐसे में कोई मासूम उस कथित माँ को कैसे कहे - माँ....!
कामातुर पिता से गर्भवती होतीेबेटी समाज के सामने इस नए रिश्ते को परिभाषित करने का सवाल दागती है. समाज खामोश है. यह जानते हुए भी कि बेटी घर में भी सुरक्षित नहीं है. समाज की यह खामोशी पिता याने सृजनकार को कटघरे में खड़ा करती है. क्या ऐसे व्यक्ति को गर्व से हम संबोधन दे सकते हैं. कह सकते हैं उसे पिता, पापा, बाबा, बाबूजी या अब्बू? इस तरह से पिता भी चले गए सभ्य समाज से दूर..... कथित भाई, बहन और माँ के पास.
सवाल यह उठता है कि अब शेष कौन बचा? किस समाज में जी रहे हैं हम? यह विकृति आई कहाँ से? पहले तो ऐसा नहीं था. समाज हम पर और हम समाज पर गर्व करते थे. सिक्के का दूसरा साफ पहलू यह है कि सभी सामाजिक प्राणी ऐसे नहीं होते. कुछ लोगों के कारण पूरे समाज को दोषी नहीं कहा जा सकता. पर यह बुराई आज पूरे समाज पर हावी होती जा रही है, तब भी क्या हम यह मानकर चलें कि हम बिलकुल भी दोषी नहीं है? खैर हम दोषी नहीं, पर क्या हमने यह कभी सोचा कि हमारे नौनिहालों को हम कौन-से औैर कैसे संस्कार दे रहे है? कुछ संस्कार, कुछ शिक्षा, कुछ वातावरण और हमारे थोपे और ओढ़े हुए विचार आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. कोई भी माता-पिता नहीं चाहते कि उनके लाडले को गलत संस्कार मिले, पर वह यह भी नहीं देखना चाहते कि आकाशीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्षा में हमारा लाडला कितना भींग चुका है? बच्चा उसे 'पैराटीचर' कहता है, पर यह पैराटीचर उसे क्या पढ़ा रहा है, यह जानने की फुरसत उनके माता-पिता को नहीं. यहीं से बदलती है संबोधन की राह.
समाज में सैकड़ों शब्द प्रतिदिन प्रवेश करते हैं. कुछ प्रचलित होते हैं, कुछ भुला दिए जाते हैं. कुछ शब्दों का ऐसा अर्थ विस्तार होता है कि वे रिश्तों की दुनिया में छा जाते हैं. अगरेंजी का शब्द 'अंकल-आंटी' आज हमारे भारतीय समाज के रिश्तों के शब्द चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी, फूफा-फूफी आदि पर छा गया है. आज की पीढ़ी ने सारे रिश्तों को इन दो शब्दों में समेट दिया है. जहाँ खून के रिश्तों से जुड़े शब्द अपना अर्थ खोकर अर्थ संकोच के दायरे में कैद हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर माता-पिता की ओर से बनने वाले रिश्ते सिमटकर अर्थ संकोच का कारण बन रहे हैं.
रिश्तों को नकारना आज एक फैशन बन गया है. टूटते-बिगड़ते रिश्ते भी अब सुख देने लगे हैं. 'भाभी' जैसे ममत्वमयी संबोधन भी अब जब उलाहने और कर्कश आवाज के साथ सुनाई देते हैं, तो भाभी शब्द से ज्यादा उस 'भाभी' का करुण चेहरा अनायास ही सामने आ जाता है. इसी तरह 'बहू, माँजी' जैसे शब्द कई बार हमें स्वप्न में डराते हैं. रिश्तों के संबोधनों का हमला अब हमारे अपने रचना संसार में होने लगा है. आकाशीय मार्ग से प्राप्त होने वाला मनोरंजन रिश्तों की जिस तरह से बखिया उघाड़ रहा है, उससे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारण ही नष्ट होने लगी है. बाज आए, ऐसे संयुक्त परिवारों से. इससे तो 'हम दो हमारे दो' ही भले. पर संयुक्त परिवारों का यह बिखराव दिन में एक बार न देख लें, तो मन नहीं मानता.
इन सबसे हटकर बहुत से ऐसे रिश्ते हैं, जिन्हें संबोधन की भी दरकार नहीं है. हमारे आसपास ऐसे कई रिश्ते मिल जाएँगे, जो केवल अपना काम ही करते रहते हैं. उनका काम करते रहना, हमारी प्रगति में सहायक है. दूधवाला, कामवाली बाई, धोबी, दर्जी, नाई, मोची, मेकेनिक, जमादार आदि ऐसे लोग हैं, जिन्हें हम सम्मानजनक संबोधन देने में मुकर जाते हैं. पर उनके बिना हमारे कई काम थम जाते हैं. अपनी दाढ़ी बनाकर हम नाई तो बन सकते हैं, पर बाल तो नहीं काट सकते. वाशिंग मशीन में कपड़े तो धो लिए, पर उसे प्रेस करने की जहमत कौन उठाए? टूटी चप्पल की मरम्मत या जूते की पॉलिस एक बार-दो बार तो कर सकते हैं, पर रोंज-रोंज नहीं. कपड़े तो दर्जी ही सिलेगा ना. इनको कभी रिश्तों का संबोधन दिया किसी ने?
रिश्ते ही रिश्ते, अनाम रिश्ते, गुनाहगारों के बेगुनाही के रिश्ते, अपनों के रिश्ते, बेगानों के रिश्ते, इन्हें आज तक कोई संबोधन क्यों नहीं मिला? कैसे सामाजिक हैं हम? कैसी है हमारी सामाजिकता! मम, पॉप,चाचू, जीजू, जेठू जैसे संबोधनों के बीच रिश्ते नहीं, बल्कि हमारे संबोधन ही अर्थ खोने लगे हैं. ये अर्थ खोते शब्द छोटे परदे पर सिमटे परिवारों के टूटने-बिखरने की कहानी कहते हुए हमें ही भरमा रहे हैं, इसके पहले कि ये हम पर हावी हों, इनको हमें ही एक नई परिभाषा देनी होगी. संबोधनों के बीच बसे भावनात्मक अर्थों को सार्थक बनाना होगा.
डा. महेश परिमल