हमारी वनश्री
वनश्री का आशय होता है वनलक्ष्मी यानी वन संपदा। किसी भी देश के वन हों, सभी वन संपदा से परिपूर्ण होते हैं। ऐसा कोई वन होता ही नहीं, जहाँ वन संपदा न हो। वन का दूसरा आशय हरियाली भी है। भला किसे अच्छी नहीं लगती, हरी-हरी वसुंधरा, यहाँ से वहाँ तक हरितिमा की फैली हुई चादर, आँखों को राहत देने वाले लुभावने दृश्य। जब भी हम प्रकृति के संग होते हैं, एक अजीब सी राहत महसूस करते हैं। हमें ऐसा लगता है, जैसे हम प्रकृति की गोद में हैं। जहाँ वह हमें माँ की तरह दुलार कर रही है। प्रकृति की इस रंगत को वनों से सहारा दिया है। जहाँ वन होंगे, वहाँ भूमि का कटाव नहीं होगा। वहाँ सघन पेड़ होंगे। यही सघन पेड़ बादलों को लुभाते हैं और बारिश के लिए लालायित करते हैं। इसलिए यह पर्यावरण बचाना है, तो वनों को संरक्षित रखना होगा। वन सुरक्षित रहेंगे, तभी हमारी वन संपदाएँ भी सुरक्षित रहेंगी। वन संपदाओं पर ही मानव स्वास्थ्य निर्भर है।वनों से हमें शुद्ध वायु ही नहीं, बल्कि कई जड़ी-बूटियाँ भी प्राप्त होती हैं। पूरा आयुर्वेद वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों पर आश्रित है। हमारे देश के वनों में वन संपदा के रूप में प्रचूर मात्रा में जड़ी-बूटियाँ हैं। इसी से हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती है।् हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वनों में वायु होती है, यही वायु हमारी आयु में वृद्धि करती है। आज लोगों को स्वच्छ वायु ही नही मिल रही है, ऐसे में वन हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो जाते हैं। वन संपदा का संरक्षण एक समस्या है, क्योंकि लगातार घटते वन क्षेत्रों के कारण वन संपदा का भी दोहन हो रहा है। वनों को लेकर हमारी आवश्यकताएँ बढ़ रहीं हैं, इसलिए वन संपदा की रक्षा के लिए अधिक से अधिक पौधरोपण करना आज की महती आवश्यकता है। वन रहेंगे, तभी मानव जीवन संभव है। बिना वनों के मानव जीवन की कल्पना करना बेमानी है। दोनों ही परस्पर निर्भर हैं। वनों को लेकर अब हमारी चिंता बढ़ी है। सरकार ने भी इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। वन नीति के सख्ती से अमल में लाए जाने के कारण बन संपदा के दोहन पर रोक लगी है। यही नहीं औषधीय पौधों के संरक्षण और नए पौधे उगाने की दिशा में भी सार्थक प्रयास हो रहे हैं।
दुनिया भर में जंगलों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने वाली नई तकनीक से पता चलता है कि भविष्य में वनों की हालत को लेकर जो चिंता जताई गई है, स्थिति उतनी भी ख़राब नज़र नहीं आती है। शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने कहा है कि उन्होंने जंगलों की पहचान के बारे में जो अध्ययन किया है उससे पता चलता है कि दुनिया भर में वनों की कमी वाली स्थिति से बेहतरी की तरफ अब कोई पड़ाव नजर आने वाला है। इस अध्ययन में दुनिया भर में लकड़ियों के भंडार और वन संपदा का अनुमान लगाने की कोशिश की गई है यानी अध्ययन में सिफऱ् उस इलाक़ों का अध्ययन भर ही नहीं किया गया जो पेड़ों से ढँके हुए हैं। इस अध्ययन के परिणाम अमरीकी पत्रिका प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकैडेमी ऑफ़ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।
वनों को लेकर हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। वन से हम जब भी कुद लें, तो उसे कुछ देने के बारे में भी सोचें। निश्चित रूप से वन को हम जो कुछ भी देंगे, वह दोगना होकर हमें मिलेगा। तपती गर्मी में किसी घने पेड़ की छाया मानव को जो राहत देती है, वह किसी संपदा से कम नहीं होती। वनों के आसपास निवास करने वाले आदिवासी वनों पर ही आश्रित होते हैं। कई मामलों में ये वन की रक्षा भी करते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान होता है। अपना घरेलू इलाज वे वनों से प्राप्त औषधियों से ही कर लेते है।
अंत में यही कि जिस तरह से हम लक्ष्मी को लुभाने का यथासंभव प्रयास करते हैं। ठीक उसी तरह हमें हमारी वनश्री को भी बचाए रखने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। वनों को नष्ट करने की हर कोशिश को नाकाम करें। तभी बच पाएगी हमारी वनश्री।
पानी को पानीदार रखें
देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी। मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति पानी बांटने वाली पनिहारिन नहीं है। तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचR पढ़ते हैं। अरब सागर से कैसे भाप बनती है, कितनी बड़ी मात्रा में वह ‘नौतपा’ के दिनों में कैसे आती है, कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम से, पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती हैं, हमारा साधारण किसान भी जानता है। ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था में प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती। फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है। अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति पर, नदियों पर थोप देते हैं। जल संकट प्राय: गर्मियों में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है। ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचोड़ते मिल जाएंगे। इस बीच कुछ हज़ार करोड़ रुपए खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं। वाटरशेड डेवलपमेंट अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सूखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है। इसमें 100 पैसा डालेंगे तो 100 पैसा निकाल सकेंगे। लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवल निकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सज़ा देगी। आज यह सज़ा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा में मिलने लगी है। पानी अभी भी हमारे लिए राशन जितना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है, लेकिन जब यही पानी पेट्रोल से भी महँगा मिलेगा, तब शायद हमें समझ में आएगा कि सचमुच यह पानी को हमारे चेहरे का पानी उतारने वाला सिद्ध हुआ। हमारे देखते-देखते ही पानी निजी हाथों में पहुँचने लगा। पानी का निजीकरण पहले यह बात हम सपने में भी नहीं सोच पाते थे, लेकिन आज जब सड़कों के किनारे पानी की खाली बोतलें, पॉलीथीन आदि देखते हैं, तब समझ में आता है कि यह पानी तो सचमुच कितना महँगा हो रहा है।
यह सच है कि पानी का उत्पादन कतई संभव नहीं है। कोई भी उत्पादन कार्य बिना पानी के संभव नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की आवश्यकता बनी रहती है। पानी को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्षा जल को रोकना। इसे रोकने के लिए पेड़ों का होना अतिआवश्यक है। जब पेड़ ही नहीं होंगे, तब पानी जमीन पर ठहर ही नहीं पाएगा। अधिक से अधिक पेड़ों का होना यानी पानी को रोककर रखना है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों ने जो विरासत के रूप में हमें नदी, नाले, तालाब और कुएँ दिए हैं, उन्हीं का रखरखाब यदि थोड़ी समझदारी के साथ हो, तो कोई कारण नहीं है कि पानी न ठहर पाए।
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा। मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।
वृक्ष बोलते हैं
सर जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्ष में भी जान होती है, वे भी सुख-दु:ख और संवेदनाओं को समझते हैं। यह भी तय हो गया कि वृक्ष इंसानों की भाषा समझते हैं। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो गया है कि मानव यदि रोज अपने बगीचे के पेड़-पौधों में पानी डालते हुए उनसे अच्छी-अच्छी, प्यारी-प्यारी बातें करे, तो वे उसकी बात मानते हैं। बस यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि वृक्ष बोलते हैं। यह सिद्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि खामोशी की कोई आवाज नहीं होती। वृक्ष जो कुछ भी सोचते हैं, उसे हम तक पहुँचाने की पूरी कोशिश भी करते हैं। हम ही हैं, जो वृक्ष की भाषा नहीं समझ पाते। यहाँ आकर मानव पंगु बन जाता है कि जब वृक्ष हमारी भाष समझते हैं, तो मानव उनकी भाषा क्यों नहीं समझ पाता?कभी किसी एकांत में या फिर जंगल में जाकर सुनो, एकांत का संगीत, इसी संगीत में कहीं आवाज आएगी कि कोई कुछ बोल रहा है। आवाज की गहराई पर जाकर पता चलेगा कि अरे! ये तो वृक्ष की आवाज है। कुछ समय तक लगातार इस तरह का प्रयोग जारी रहा, तब आप वृक्ष की आवाज पहचानने लग जाएँगे। तब आपको पता चलेगा कि वृक्ष आजकल दु:खी हैं। कई बार हमने पेड़ से लगातार पानी रिसते देखा होगा। लोग कहते हैं कि पेड़ रो रहा है। इसके वैज्ञानिक कारण जो भी हो, पर जब हम यह जानते हैं कि पेड़ों में जान होती है, तो फिर उनकी सारी प्रक्रियाएँ भी मानव की तरह होंगी। इसलिए जब पेड़ बोलते हैं, तब हमें उनसे बातें करनी चाहिए। आज यदि हम उनकी भाषा समझने लग जाएँ, तो उनकी पीड़ाओं को शब्द दे पाएँगे।
पेड़ उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं, जो प्रकृति प्रेमी होते हैं। क्योंकि यही तो हैं, जिनसे पेड़ बचे हुए हैं। पौधरोपण एक यज्ञ है, पेड़ों की संख्या बढ़ाने का। जो इस यज्ञ को करता है, वही वास्तव में पेड़ों का सच्च साथी है। अपने साथियों की लगातार कम होती संख्या से आजकल वृक्ष द़:खी हैं। देखते ही देखते उनके सामने से सागौन, बबूल, शीशम, देवदार, चीड़, आम आदि के पेड़ गायब हो गए। कुछ तो रातों-रात कट गए, कुछ बेमौते मारे गए। इनके दु:ख का कारण यही है। आलीशान घरों, हवेलियों में बनने वाले फर्नीचर के रूप में ये पेड़ ही हैं, जो हमारे सामने विभिन्न आकार में होते हैं। कभी कुर्सी, कभी डायनिंग टेबल, कभी पलंग, कभी दीवान आदि रूप होते हैं, इन्हीं पेड़ों के। कभी हवाओं के साथ मस्ती से झूमने वाले आज यही पेड़ बंद कमरों में खामोश जिंदगी बिता रहे हैं।
यह मानव की भूख ही है, जो पेड़ों को इस तरह से बरबादी के कगार पर खड़े कर रही है। वृक्ष आज हमसे यही कह रहे हैं कि हमें मत काटो। हम आपको प्राणवायु देते हैं। यह प्राणवायु मानव कभी बना नहीं सकता। हम पर ही निर्भर है आपका जीवन। हम नहीं रहेंगे, तो खतरे में पड़ जाएगा मानव जीवन। हम जब मानव से कुछ नहीं लेते, तब फिर मानव हमारा नाश क्यों करना चाहता है? थोड़ी-सी सुख-शांति के लिए मानव हमारा ही नाश कर रहा है। हमारा उद्देश्य ही है मानव जीवन के लिए काम आना। पर आज मानव तेजी से हमारा ही नाश कर रहा है। इसे मानव ही रोक पाएगा। यदि उसमें वसुधवकुटुम्बकम् की भावना है, तो उसे हमारा संरक्षण करना ही होगा। इस तरह से वह हमारा नहीं अपना ही संरक्षण करेगा। हम मानव जाति के दुश्मन नहीं है, हमारी रक्षा से मानव की रक्षा है।
डॉ. महेश परिमल
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