डॉ. महेश परिमल
विदेशों में जमा कालेधन पर सरकार की नीयत साफ नहीं लगती। कालेधन पर सरकार ने ऐसा हौवा खड़ा किया है, मानो जिसका खाता विदेश के किसी बैंक में हो, वह अपराधी है। बात ऐसी बिलकुल भी नहीं है। विदेशी बैंकों में खाता होना अपराध नहीं है, बल्कि बिना टैक्स के विदेशी बैंकों में धन जमा कराया है, तो यह अपराध है। पहले सरकार ने कहा था कि वह स्विस बैंकों में धन जमा कराने वाले 31 नामों को उजागर करेगी, बाद में उसने केवल 8 नाम ही जाहिर किए। इससे उसकी नीयत का ही पता चलता है। अब वह कह रही है कि वह धीरे-धीरे नामों को जाहिर करेगी। इससे साफ है कि वह नहीं चाहती कि उनके किसी समर्थक का नाम जाहिर हो। इस पर कांग्रेस ने दृढ़ता से कहा है कि सरकार को नाम जाहिर करना हो, तो दावे के साथ करे। नाम जाहिर करने के नाम पर भयादोहन न करे। इसके पहले भी लोकसभा चुनाव के दौरान के दौरान नरेंद्र मोदी गरज रहे थे कि वे 100 दिन के अंदर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत ले आएंगे। बाद में सरकार ने यू टर्न लेते हुए यह कहा कि कितने ही देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते के अनुसार नामों को जाहिर नहीं किया जा सकता। तब प्रजा में काफी ऊहापोह मच गई। इससे सरकार नाम जाहिर करने के लिए आगे आई। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि जिन्हें काला धन प्राप्त करना आता है, वे उसे खपाना भी जानते हैं। ऐसे लोगों के पास चार्टर्ड एकाउंटेंट की पूरी फौज होती है, जो लोग काले धन को ठिकाने लगाने के गुर जानते हैं। प्रजा तो यही चाहती है कि किसी भी तरह से देश का लूटा हुआ माल देश में आ जाए।
स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक के एक भूतपूर्व कर्मचारी ने 2006 में बैंक के डाटा की चोरी कर फ्रेंच सरकार को बेच दिया था। इस डाटा में स्विस बैंक के 628 भारतीय खाताधारकों के नाम भी थे। सन् 2011 में फ्रांस की सरकार ने भारत सरकार को यह सूची सौंपी थी। उसमें कई कांग्रेसी एवं यूपीए के नेताओं के नाम होने के कारण सूची को जाहिर नहीं किया गया। तब यूपीए सरकार ने यह बहाना बनाया था कि सन् 1994 में भारत ने स्विस सरकार से यह समझौता किया था कि उनकी बैंकों के भारतीय खाताधारकों के नाम जाहिर नहीं किए जाएंगे। स्विस बैंक की तरह यूरोप में भी लिफ्टेनस्टीन की एलजीटी बैंक के 26 भारतीय खाताधारकों के नाम भी जर्मन सरकार द्वारा भारत को सौंपे गए थे। इन 26 में से 18 खाताधारकों के खिलाफ भारतीय कानून के तहत कार्यवाही की गई थी। इन नामों को सुप्रीमकोर्ट को भी दिया गया था। तब भी यह प्रश्न उठा था कि सरकार बाकी नामों को क्यों जाहिर नहीं कर रही है। आखिर उन्हें किस आधार पर संरक्षण दिया जा रहा है। केंद्र में एनडीए सरकार सत्ता पर काबिज हुई, तो उसके हाथ में विदेशी बैंकों के 628 में से 26 भारतीय खाताधारकों के नाम और उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त हो गई थी। पर सरकार ने उन नामों की घोषणा करने में टालमटोल की। इसका कारण था कि भाजपा के साथ संबंध रखने वाले कितने ही उद्योगपतियों के नाम उसमें शामिल थे। आखिर सुप्रीमकोर्ट ने जुलाई 2011 में एक आदेश में केंद्र सरकार से कहा था कि वे सारे नाम जाहिर करे। पर यूपीए सरकार एक के बाद एक नए बहाने बताकर नामों को जाहिर करने से बचती रही। अब एनडीए सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से यह विनती की है कि वह 2011 के आदेश में थोड़ा बदलाव करे, ताकि नामों को जाहिर करने में उसे परेशानी न हो। करचोरों को सजा से बचाने में यूपीए और एनडीए सरकार एक जैसी साबित हुई है।
इधर यह कहा जा रहा है कि विकीलिक्स ने धमाका करते हुए कितने ही भारतीयों के नाम जाहिर किए हैं, जिनके खाते विदेशी बैंकों में हैं। ये सभी स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक में खातेदार हैं। नामों करे गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि इसके पर्याप्त सुबूत नहीं थे। फ्रांस की सरकार के पास से केंद्र सरकार को जो 628 नाम मिले थे, उसकी जांच करते समय यह खयाल आया कि 628 में से केवल 418 के ना के आगे सरनेम मिल रहे हैं। इन्हें नोटिस भेजा जाता, इसके पहले इनमें से 136 ने यह स्वीकार कर लिया कि हमारे खाते उक्त बंक में हैं। केंद्र सरकार 136 में से 50 की जानकारी स्विस बैंक के अधिकारियों को जांच के लिए भेजी है। यूपीए की तरह एनडीए की विलंब नीति से यह शंका उत्पन्न होती है कि कहीं सरकार कर चोरों को संरक्षण तो नहीं दे रही है। यह बाबा रामदेव की बात मानें, तो उनके अनुसार भारत का 60 लाख करोड़ रुपया काला धन है। अभी जो एचएसबीसी बैंक के 628 खाताधारकों की बात चल रही है, उसमें स्विस अधिकारियों के मुताबिक करीब 14 हजार करोड़ रुपए का कालाधन है। सवाल यह उठता है कि बाकी का काला धन कहां है? उसे भारत वापस लाने के लिए क्या नरेंद्र मोदी सरकार किस तरह के कड़े कदम उठा रही हैं? यह जानने का अधिकार प्रजा को है। यदि खाताधारकों में नेताओं के नाम हैं, तो उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने से सरकार की विश्वसनीयता बढ़ेगी। प्रजा को सरकार के तर्क और सुप्रीमकोर्ट की लताड़ से कोई मतलब नहीं है, वह तो यही चाहती है कि देश का काला धन देश में वापस आ जाए, बस।
स्विस बैंकों में देश का काला धन रखने वाले लोगों की सूची बाहर करने की बात पर सरकार अब फंस गई है। पहले उसने 13 नाम जाहिर करने की बात की थी, पर बाद में केवल 3 नाम ही जाहिर किए थे। इससे सरकार की फजीहत हुई। उसके पास कोर्ट ने भी सरकार से यही कहा कि वह खाताधारकों की सूची अदालत को सौंपे। वास्तव में सरकार पसोपेश में है। विदेशी बैंकों में केवल नेताओं के ही खाते नहीं हैं, बल्कि कई कापरेरेट कंपनियों के नाम भी हैं। डाबर कंपनी के प्रदीप बर्मन का नाम जाहिर होते ही डाबर के शेयरों की कीमत 9 प्रतिशत घट गई। सरकार को इस तरह की दिक्कतों के लिए भी तैयार रहना होगा। जैसे-जैसे नाम जाहिर होते जाएंगे, वैसे-वैसे देश की राजनीति करवट लेने लगेगी। देश में आजकल गलत लोगों का साथ देने के लिए कई लोग तैयार है। आसाराम जेल में हैं, पर उनके समर्थकों का विश्वास अभी भी कायम है। इसी तरह यदि लालू यादव का नाम आ जाए, तो उनके समर्थक इसकी आक्रामक प्रतिक्रिया देंगे, यह भी तय है। इसलिए सरकार को यह कदम सोच-समझकर उठाना होगा। अब सरकार को भी यह समझ में आ गया है कि चुनाव में जो वादे किए जाएं, उसे पूरा करने में कितनी दिक्कत होती है। 100 दिन में कालाधन लाने का दावा करने वाली सरकार अब अपने ही जाल में उलझ गई है।
सरकार ने कोर्ट को तीन सीलबंद लिफाफे सौंपे हैं। इनमें से पहले लिफाफे में दूसरे देशों के साथ हुई संधि के कागजात हैं। दूसरे लिफाफे में विदेशी खाताधारकों के नाम हैं, जबकि तीसरे लिफाफे में जांच की स्टेटस रिपोर्ट है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इसमें साल 2006 तक की एंट्री है। इसकी वजह यह है कि स्विस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि ये इनपुट्स चोरी की जानकारी के आधार पर हासिल किए गए हैं। खाताधारकों की लिस्ट में सबसे ज्यादा रकम वाला अकाउंट 1.8 करोड़ डॉलर वाला है, जो देश के दो नामी उद्योगपतियों के नाम से है। इस लिस्ट में सबसे ज्यादा नाम मेहता और पटेल सरनेम के साथ हैं।
डॉ. महेश परिमल
विदेशों में जमा कालेधन पर सरकार की नीयत साफ नहीं लगती। कालेधन पर सरकार ने ऐसा हौवा खड़ा किया है, मानो जिसका खाता विदेश के किसी बैंक में हो, वह अपराधी है। बात ऐसी बिलकुल भी नहीं है। विदेशी बैंकों में खाता होना अपराध नहीं है, बल्कि बिना टैक्स के विदेशी बैंकों में धन जमा कराया है, तो यह अपराध है। पहले सरकार ने कहा था कि वह स्विस बैंकों में धन जमा कराने वाले 31 नामों को उजागर करेगी, बाद में उसने केवल 8 नाम ही जाहिर किए। इससे उसकी नीयत का ही पता चलता है। अब वह कह रही है कि वह धीरे-धीरे नामों को जाहिर करेगी। इससे साफ है कि वह नहीं चाहती कि उनके किसी समर्थक का नाम जाहिर हो। इस पर कांग्रेस ने दृढ़ता से कहा है कि सरकार को नाम जाहिर करना हो, तो दावे के साथ करे। नाम जाहिर करने के नाम पर भयादोहन न करे। इसके पहले भी लोकसभा चुनाव के दौरान के दौरान नरेंद्र मोदी गरज रहे थे कि वे 100 दिन के अंदर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत ले आएंगे। बाद में सरकार ने यू टर्न लेते हुए यह कहा कि कितने ही देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते के अनुसार नामों को जाहिर नहीं किया जा सकता। तब प्रजा में काफी ऊहापोह मच गई। इससे सरकार नाम जाहिर करने के लिए आगे आई। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि जिन्हें काला धन प्राप्त करना आता है, वे उसे खपाना भी जानते हैं। ऐसे लोगों के पास चार्टर्ड एकाउंटेंट की पूरी फौज होती है, जो लोग काले धन को ठिकाने लगाने के गुर जानते हैं। प्रजा तो यही चाहती है कि किसी भी तरह से देश का लूटा हुआ माल देश में आ जाए।
स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक के एक भूतपूर्व कर्मचारी ने 2006 में बैंक के डाटा की चोरी कर फ्रेंच सरकार को बेच दिया था। इस डाटा में स्विस बैंक के 628 भारतीय खाताधारकों के नाम भी थे। सन् 2011 में फ्रांस की सरकार ने भारत सरकार को यह सूची सौंपी थी। उसमें कई कांग्रेसी एवं यूपीए के नेताओं के नाम होने के कारण सूची को जाहिर नहीं किया गया। तब यूपीए सरकार ने यह बहाना बनाया था कि सन् 1994 में भारत ने स्विस सरकार से यह समझौता किया था कि उनकी बैंकों के भारतीय खाताधारकों के नाम जाहिर नहीं किए जाएंगे। स्विस बैंक की तरह यूरोप में भी लिफ्टेनस्टीन की एलजीटी बैंक के 26 भारतीय खाताधारकों के नाम भी जर्मन सरकार द्वारा भारत को सौंपे गए थे। इन 26 में से 18 खाताधारकों के खिलाफ भारतीय कानून के तहत कार्यवाही की गई थी। इन नामों को सुप्रीमकोर्ट को भी दिया गया था। तब भी यह प्रश्न उठा था कि सरकार बाकी नामों को क्यों जाहिर नहीं कर रही है। आखिर उन्हें किस आधार पर संरक्षण दिया जा रहा है। केंद्र में एनडीए सरकार सत्ता पर काबिज हुई, तो उसके हाथ में विदेशी बैंकों के 628 में से 26 भारतीय खाताधारकों के नाम और उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त हो गई थी। पर सरकार ने उन नामों की घोषणा करने में टालमटोल की। इसका कारण था कि भाजपा के साथ संबंध रखने वाले कितने ही उद्योगपतियों के नाम उसमें शामिल थे। आखिर सुप्रीमकोर्ट ने जुलाई 2011 में एक आदेश में केंद्र सरकार से कहा था कि वे सारे नाम जाहिर करे। पर यूपीए सरकार एक के बाद एक नए बहाने बताकर नामों को जाहिर करने से बचती रही। अब एनडीए सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से यह विनती की है कि वह 2011 के आदेश में थोड़ा बदलाव करे, ताकि नामों को जाहिर करने में उसे परेशानी न हो। करचोरों को सजा से बचाने में यूपीए और एनडीए सरकार एक जैसी साबित हुई है।
इधर यह कहा जा रहा है कि विकीलिक्स ने धमाका करते हुए कितने ही भारतीयों के नाम जाहिर किए हैं, जिनके खाते विदेशी बैंकों में हैं। ये सभी स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक में खातेदार हैं। नामों करे गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि इसके पर्याप्त सुबूत नहीं थे। फ्रांस की सरकार के पास से केंद्र सरकार को जो 628 नाम मिले थे, उसकी जांच करते समय यह खयाल आया कि 628 में से केवल 418 के ना के आगे सरनेम मिल रहे हैं। इन्हें नोटिस भेजा जाता, इसके पहले इनमें से 136 ने यह स्वीकार कर लिया कि हमारे खाते उक्त बंक में हैं। केंद्र सरकार 136 में से 50 की जानकारी स्विस बैंक के अधिकारियों को जांच के लिए भेजी है। यूपीए की तरह एनडीए की विलंब नीति से यह शंका उत्पन्न होती है कि कहीं सरकार कर चोरों को संरक्षण तो नहीं दे रही है। यह बाबा रामदेव की बात मानें, तो उनके अनुसार भारत का 60 लाख करोड़ रुपया काला धन है। अभी जो एचएसबीसी बैंक के 628 खाताधारकों की बात चल रही है, उसमें स्विस अधिकारियों के मुताबिक करीब 14 हजार करोड़ रुपए का कालाधन है। सवाल यह उठता है कि बाकी का काला धन कहां है? उसे भारत वापस लाने के लिए क्या नरेंद्र मोदी सरकार किस तरह के कड़े कदम उठा रही हैं? यह जानने का अधिकार प्रजा को है। यदि खाताधारकों में नेताओं के नाम हैं, तो उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने से सरकार की विश्वसनीयता बढ़ेगी। प्रजा को सरकार के तर्क और सुप्रीमकोर्ट की लताड़ से कोई मतलब नहीं है, वह तो यही चाहती है कि देश का काला धन देश में वापस आ जाए, बस।
स्विस बैंकों में देश का काला धन रखने वाले लोगों की सूची बाहर करने की बात पर सरकार अब फंस गई है। पहले उसने 13 नाम जाहिर करने की बात की थी, पर बाद में केवल 3 नाम ही जाहिर किए थे। इससे सरकार की फजीहत हुई। उसके पास कोर्ट ने भी सरकार से यही कहा कि वह खाताधारकों की सूची अदालत को सौंपे। वास्तव में सरकार पसोपेश में है। विदेशी बैंकों में केवल नेताओं के ही खाते नहीं हैं, बल्कि कई कापरेरेट कंपनियों के नाम भी हैं। डाबर कंपनी के प्रदीप बर्मन का नाम जाहिर होते ही डाबर के शेयरों की कीमत 9 प्रतिशत घट गई। सरकार को इस तरह की दिक्कतों के लिए भी तैयार रहना होगा। जैसे-जैसे नाम जाहिर होते जाएंगे, वैसे-वैसे देश की राजनीति करवट लेने लगेगी। देश में आजकल गलत लोगों का साथ देने के लिए कई लोग तैयार है। आसाराम जेल में हैं, पर उनके समर्थकों का विश्वास अभी भी कायम है। इसी तरह यदि लालू यादव का नाम आ जाए, तो उनके समर्थक इसकी आक्रामक प्रतिक्रिया देंगे, यह भी तय है। इसलिए सरकार को यह कदम सोच-समझकर उठाना होगा। अब सरकार को भी यह समझ में आ गया है कि चुनाव में जो वादे किए जाएं, उसे पूरा करने में कितनी दिक्कत होती है। 100 दिन में कालाधन लाने का दावा करने वाली सरकार अब अपने ही जाल में उलझ गई है।
सरकार ने कोर्ट को तीन सीलबंद लिफाफे सौंपे हैं। इनमें से पहले लिफाफे में दूसरे देशों के साथ हुई संधि के कागजात हैं। दूसरे लिफाफे में विदेशी खाताधारकों के नाम हैं, जबकि तीसरे लिफाफे में जांच की स्टेटस रिपोर्ट है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इसमें साल 2006 तक की एंट्री है। इसकी वजह यह है कि स्विस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि ये इनपुट्स चोरी की जानकारी के आधार पर हासिल किए गए हैं। खाताधारकों की लिस्ट में सबसे ज्यादा रकम वाला अकाउंट 1.8 करोड़ डॉलर वाला है, जो देश के दो नामी उद्योगपतियों के नाम से है। इस लिस्ट में सबसे ज्यादा नाम मेहता और पटेल सरनेम के साथ हैं।
डॉ. महेश परिमल
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