सोमवार, 28 जून 2010

संसद में एक तैयारी गुपचुप!

डॉ. महेश परिमल
शीर्षक आपको निश्चित रूप से चौंका सकता है। भला ऐसी कौन-सी तैयारी है, जो गुपचुप चल रही है। संसद की कार्रवाई का सीधा प्रसारण भी होता है। इसमें गुपचुप तो कुछ भी नहीं हो सकता। बिलकुल सही सोच रहे हैं, आप सब। जिस संसद का नजारा हमें शर्मसार कर देता हो। उसी संसद में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जब सब एक हो जाते हैं। सभी का सुर एक हो जाता है। कोई किसी का विरोध नहीं करता। संसद की गरिमा को तार-तार करने वाले हमारे सारे प्रतिनिधि भले ही आपस में जूतम-पैजार के लिए तत्पर हों, पर एक मुद्दा ऐसा भी होता है, जिसका आज तक किसी सांसद ने विरोध नहीं किया। भले ही वह किसी भी दल का हो। ये वही संसद है, जहाँ का नजारा देखकर हमें कभी-कभी कोफ्त होती है। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। आखिर हमीं ने तो उन्हें भेजा है, अपना प्रतिनिधि बनाकर। हमारे ये प्रतिनिधि संसद में कितना भी लड़ लें, पर एक क्षण ऐसा भी आता है, जब विरोध की कोई गुंजाइश नहीं होती। उग्र तेवर भी यहाँ किसी काम का नहीं।
हमारे देश में केवल किसको यह अधिकार है कि वह अपना वेतन बढ़वा सके। कोई चाहकर भी अपना वेतन नहीं बढ़ा सकता, क्योंकि वह उसके हाथ में नहीं है। पर हमारे देश के सांसदों को ही यह अधिकार है कि वे अपना वेतन बढ़ा सकते हैं। संसद में इन दिनों उसी की तैयारी चल रही है। जी हाँ हमारे प्रतिनिधि बिना आरोप-प्रत्यारोप के अपना वेतन बढ़ाने जा रहे हैं। संसद में यह काम बहुत ही गुपचुच तरीके से हो भी जाएगा। हमें पता ही नहीं चलेगा। एक बार हम सब फिर छले जाएँगे। सारे भेदभाव भूलकर हमारे सांसद अपना वेतन बढ़वा लेंगे। हमारे संविधान में यह व्यवस्था नहीं है कि इनसे पूछा जाए कि आखिर किस अधिकार के तहत इन्होंने अपना वेतन बढ़वा लिया? अभी हालत यह है कि एक सांसद हर वर्ष 32 लाख रुपए प्राप्त करता है। यदि उन्हें दिए जाने वाले धन की गिनती की जाए, तो एक सांसद पाँच वर्ष में साढ़े आठ सौ करोड़ रुपए प्राप्त करता है। सांसदों की माँग है कि उन्हें सरकार के सचिव से एक रुपए अधिक वेतन मिले।
अभी सांसदों का वेतन 12 हजार रुपए प्रतिमाह है। बाकी सारी राशि उन्हें भत्ते के रूप में प्राप्त होती है। सांसद चाहते हैं कि 80 हजार रुपए कर दिया जाए। अभी जो उन्हें एक हजार रुपए दैनिक भत्ता मिल रहा है, उसे बढ़ाकर दो हजार रुपए कर दिया जाए। जिस देश में एक आम आदमी की न्यूनतम आय 2800 रुपए प्रतिमाह है, गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले करीब 77 प्रतिशत लोगों की आय 600 रुपए से भी कम है। ऐसे गरीब देश के ये सेवाभावी सांसद लाखों रुपए वेतन और भत्ते के रूप में प्राप्त कर रहे हैं। इन्हें गरीबी कभी आड़े नहीं आती। कुछ दिनों पहले ही इग्लैंड की महारानी ने अपने वेतन और भत्ते में बढ़ोत्तरी की माँग की थी। इसका विरोध भी होने लगा है। वहाँ के लोगों का मानना है कि महारानी की परवरिश सफेद हाथी को पालने जैसी है। संभव है वहाँ एक प्रस्ताव के माध्यम से महारानी को किसी प्रकार की अतिरिक्त सहायता देने पर रोक लग जाए। पर हमारे देश में ऐसा कभी संभव नहीं है। मुँह से केवल एक ही वाक्य निकलता है मेरा भारत महान्!
एक रुपए में दो कप चाय या कॉफी, मसाला दोसा दो रुपए में, एक रुपए में मिल्क शेक, शाकाहारी भोजन मात्र 11 रुपए में और शाही मांसाहारी भोजन मात्र 36 रुपए में। आप सोच रहे होंगे, ये किस जमाने की बात हो रही है। पर सच मानो यह आज की बात है, हमारे सांसदों को यह सुविधा हमारी सरकार दे रही है। संसद में उनके लिए इतना सस्ता भोजन भी उन्हें वहाँ जाने के लिए विवश नहीं करता। एक गरीब देश के सांसद होने के क्या-क्या सुख हैं, ये शायद आम आदमी नहीं जानता। लेकिन यह सच है कि जनता के इस प्रतिनिधि को वे सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं, जिसके लिए एक आम आदमी जीवन भर संघर्ष करता रहता है, लेकिन उस स्तर तक नहीं पहुँच पाता। हमारे सांसद इसे आसानी से सेवा भाव के नाम पर प्राप्त कर लेते हैं।
आज से चालीस साल पहले तक सांसद होना यानी सेवा भाव का दूसरा नाम था। पर आज ये एक फायदे का सौदा हो गया है। एक सांसद अपने जीवन में ही इतना कमा लेता है कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य को काम की आवश्यकता नहीं पड़ती। सेवा के नाम पर होने वाले इस धंधे ने भारतीय अर्थव्यवस्था की चूलें हिलाकर रख दी हैं, पर हमारे सांसद दिनों-दिन करोड़पति होते जा रहे हैं और आम आदमी को रोटी जुटाने के लाले पड़ रहे हैं.
वत्र्तमान में सांसद होना एक बहुत बड़ा फायदे का सौदा है, इसका भविष्य काफी उज्जवल है। भारतीय सांसदों पर श्रेष्ठ काम करने का दबाव नहीं होता, उनके काम का वार्षिक मूल्यांकन भी नहीं होता। केवल चुनाव के समय ही उनकी जवाबदारी बढ़ जाती है, उनका एक ही उद्देश्य होता है कि किसी तरह संसद तक पहुँच जाएँ, फिर तो उनके पौ-बारह हो जाते हैं। उनकी तमाम सुविधाओं पर किसी तरह का अंकुश नहीं है। उन्हें दी जाने वाली सुविधाएँ सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही हैं। टैक्स के नाम पर उनसे केवल मासिक वेतन पर ही कुछ कटौती होती है, शेष अन्य सुविधाओं और भत्तों को जोड़ा ही नहीं जा रहा है। इसके बाद भी इस गरीब देश के करोड़पति सांसदों को इतने से ही संतोष नहीं हुआ है, उनके वेतन एवं अन्य भत्तों पर लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है।
हमारे देश की 36 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। ये नागरिक अपने और देश के उद्धार के लिए जिन सांसदों को चुन कर संसद में भेजते हैं, वे वहाँ जनता की भलाई के नाम पर लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौच आदि करते हुए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, कई सांसदों को तो रिश्वत लेते हुए भी देश के लाखों नागरिकों ने भी देखा है। इतना सब कुछ होते हुए भी इस बार फिर उनके वेतन और भत्तों में वृद्धि करने वाला विधेयक चुपचाप पारित हो जाएगा। इसका जरा-सा भी विरोध नहीं होगा। अभी तक हमारे ये जनप्रतिनिधि 40 हजार रुपए वेतन एवं अन्य भत्ते प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन अब उनका वेतन बढ़कर 65 हजार के आसपास पहुँच जाएगा। इससे हमारे देश की जनता पर 62 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ जाएगा।
अब समय आ गया है कि सरकार से यह पूछा जाए कि आखिर सांसदों को किसलिए इतनी सुविधाएँ मिलती हैं? आखिर ये काम क्या करते हैं? अगर इनसे यह कहा जाए कि इन्हें वेतन और सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तो भी वे सांसद बने रहना पसंद करेंगे। वजह साफ है, आज सांसद होना सेवा भाव न होकर एक पेशा हो गया है। जिसमें जावक कुछ भी नहीं केवल आवक ही आवक है। ये जनता के प्रतिनिधि चुनाव के पहले तक ही होते हैं, चुनाव जीतने के बाद ये केवल पार्टी और कुछ रसूखदारों के नुमाइंदे बनकर रह जाते हैं। आखिर हमारे पास वह ताकत कब आएगी, जिसके बल पर हमने उन्हें सांसद भेजा है, उसी बल पर हम उन्हें वापस बुला भी सकें? क्या राम मनोहर लोहिया का यह सपना कभी पूरा होगा?
डॉ. महेश परिमल

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