बुधवार, 30 जून 2010
एक तो महँगाई, उस पर भटका मानसून!
डॉ. महेश परिमल
एक बार फिर मानसून भटक गया। समय से निकला था, कई राज्यों पर दस्तक दी, अपनी आमद बताई। कई लोगों को भिगोया, अखबारों में तस्वीर छपवाई, आकाश की ओर तकते किसानों के चेहरे पर राहत दिखाई देने वाली तस्वीरों का भी खूब आनंद लिया। सभी ने उसके स्वागत की तैयारी कर ली। पर न जाने वह कहाँ भटक गया। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। मानसून हर साल भटकता है। मौसम विभाग उसकी खोज तो करता है, पर उसकी भविष्यवाणियों पर बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं। महँगाई की मार से पिस रही जनता को मानसून ही राहत दे सकता था, पर वह भी दगाबाज हो गया। अब किससे अपनी पीड़ा बताएँ, सामने चुनाव नहीं हैं। नेता भी अपना वेतन बढ़ाने के लिए कमर कसे हुए हैं। उन्हें भी फुरसत नहीं है। उन्हें अपना मुद्दा ही महत्वपूर्ण लग रहा है।
मौसम विभाग ने पहले से मानसून के समय से पूर्व आने की घोषणा की थी। यह भी कहा था कि इस बार मानसून खूब बरसेगा। लोगों ने बाढ़ से बचने के संसाधन इकट्ठे कर लिए। किसान भी बीज लेकर खेतों को तैयार करने लगा। साहूकार भी खुश था कि इस बार कई लोग अपना कर्ज वापस कर देंगे, व्यापारी को आशा थी कि इस बार झमाझम मानसून उन्हंे लाभ देगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मानसून भटक गया, इसके साथ ही उन गरीबों के मुँह से निवाला ही छिन गया। क्या हो गया मानसून को, कहाँ चला गया। हर बार तो वह रुठ ही जाता है, बड़ी मुश्किल से मनाया जाता है। फिर भी बारिश की बूंदों से सरोबार करना नहीं भूलता।
मानसून ने अपने आने का अहसास तो खूब कराया। पर बदरा न बरसे, तो फिर किस काम के? उन्हें तो बरसना ही चाहिए। न बरसें, उनकी मर्जी! वह तो बीच में ‘लैला’ का आगमन हो गया था, इसलिए हमारा मानसून भी उसी में खो गया। अब भला कहाँ ढूँढें उसे, कहाँ मिलेगा कहा नहीं जा सकता। आखिर उसकी भी तो उम्र है भटकने की। हम ही हैं, जो उसे मनाने की कोशिश भी नहीं करते।
मानसून को खूब आता है भटकना। हर कोई उसे कोस रहा है, आखिर वह क्यों भटका? कभी उसका दर्द समझने की किसी ने थोड़ी सी भी कोशिश नहीं की। हम उसे गर्मी से निजात दिलाने वाला देवता मानते हैं। वह गर्मी भगाता है, यह सच है, पर गर्मी उसे भी पसंद नहीं है। यह किसी ने समझा। हमारा शरीर जब गर्म होने लगता है, तब हम समझ जाते हैं कि हमें बुखार है। इसकी दवा लेनी चाहिए और कुछ परहेज करना चाहिए। हर बार धरती गर्म होती है, उसे भी बुखार आता है, हम उसका बुखार दूर करने की कोई कोशिश नहीं करते। अब उसका बुखार तप रहा है। पूरा शरीर ही धधक रहा है, हम उसे ठंडा नहीं कर पा रहे हैं। धधकती धरती से दूर भाग रहा है मानसून। वह कैसे रह पाएगा हमारे बीच। हम ही तो रोज धरती का नुकसान करने बैठे हैं। रोज ही कोई न कोई हरकत हमारी ऐसी होती ही है, जिससे धरती को नुकसान पहुँचता है। यह तो हमारी माँ है, भला माँ से कोई ऐसा र्दुव्यवहार करता है? लेकिन हम कपूत बनकर रोज ही उस पर अत्याचार कर रहे हैं। उसकी छाती पर आज असंख्य छेद हमने ही कर रखे हैं। उसके भीतर का पूरा पानी ही सोख लिया है हमने। हमारे चेहरे का पानी नहीं उतरा। हमें जरा भी शर्म नहीं आई। खींचते रहे.. खींचते रहे उसके शरीर का पानी। इतना पानी लेने के बाद भी हम पानी-पानी नहीं हुए।
धरती माँ को पेड़ों-पौधों से प्यार है। हमने उसे काटकर वहाँ कांक्रीट का जंगल बसा लिया। उसे हरियाली पसंद है, हमने हरियाली ही नष्ट कर दी। उसे भोले-भाले बच्चे पसंद हैं, हमने उन बच्चों की मासूमियत छिन ली। उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। धरती माँ को बड़े-बुजुर्ग पसंद हैं, ताकि उनके अनुभवों का लाभ लेकर आज की पीढ़ी कुछ सीख सके। हमने उन बुजुर्गो को वृद्धाश्रमों की राह दिखा दी। नहीं पसंद है हमें उनकी कच-कच। हम तो हमारे बच्चों के साथ ही भले। इस समय वे यह भूल जाते हैं कि कल यदि उनके बच्चे भी उनसे यही कहने लगे कि नहीं चाहिए, हमें आपकी कच-कच। आप जाइए वृद्धाश्रम, जहाँ दादाजी को भेजा था। तब क्या हालत होगी उनकी, किसी ने सोचा है भला!
आज हमारा कोई काम ऐसा नहीं है, जिससे धरती का तापमान कम हो सके। कोई सूरत बचा कर नहीं रखी है हमने। तब भला मानसून कैसे भटक नहीं सकता? आखिर उसे भी तो धरती से प्यार है। जो धरती से प्यार करते हैं, वे वही काम करते हैं, जो उसे पसंद है। हमने एक पौधा तक नहीं रोपा और आशा करते हैं ठंडी छाँव की। हमने किसी पौधे को संरक्षण नहीं दिया और आशा करते हैं कि हमें कोई संरक्षण देगा। इस पर भी धरती हमें श्राप नहीं दे रही है, वह हमें बार-बार सावधान कर रही है कि सँभलने का समय तो निकल गया है, अब कुछ तो बचा लो। नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा। सब खत्म हो जाएगा। रोने के लिए हमारे पास आँसू तक नहीं होंगे। आँसू के लिए संवेदना का होना आवश्यक है, हम तो संवेदनाशून्य हैं।
मानसून नहीं, बल्कि आज मानव ही भटक गया है। मानसून फिर देर से ही सही आएगा ही, धरती को सराबोर कर देगा। पर यह जो मानव है, वह कभी भी अपने सही रास्ते पर अब नहीं आ सकता। इतना पापी हो गया है कि धरती भी उसे स्वीकार नहीं कर पा रही है। हमारे पूर्वजों का जो पराक्रम रहा, उसके बल पर हमने जीना सीखा, हमिने हरे-भरे पेड़ पाए, झरने, नदियाँ, झील आदि प्रकृति के रूप में प्राप्त किया।आज हम भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, कांक्रीट के जंगल, हरियाली से बहुत दूर उजाड़ स्थान। देखा जाए, तो मानसून ही महँगाई का बड़ा स्वरूप है। ये भटककर महँगाई को और अधिक बढ़ाएगा। इसलिए हमें और भी अधिक महँगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इसलिए मानसून को मनाओ, महँगाई दूर भगाओ। मानसून तभी मानेगा, जब धरती का तापमान कम होगा। धरती का तापमान कम होगा, पेड़ो से पौधों से, हरियाली से और अच्छे इंसानों से। यदि आज धरती से ये सब देने का वादा करते हो, तो तैयार हो जाओ, एक खिलखिलाते मानसून का, हरियाली की चादर ओढ़े धरती का, साथ ही अच्छे इंसानों का स्वागत करने के लिए।
डॉ. महेश परिमल
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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