मंगलवार, 1 जून 2010
अपनों से ही परायापन क्यों?
मनोज कुमार
किसी भी व्यवसाय का नेचर होता है कि वह अपने प्रतिद्वंदी कंपनी को बाजार में पिट दे। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बाजार में खुद को खड़ा रखने के लिये दू को पीटना जरूरी है। यह स्पर्धा मीडिया में भी चल रही है। अखबारों की प्रसार संख्या और टेलीविजन की टीआरपी को लेकर हो रही इस स्पर्धा को सही कहा जा सकता है किन्तु किसी पत्रकार अथवा मीडिया कर्मी के
सुख-दुख में भी इस तरह स्पर्धा को मैं कतई उचित नहीं मानता। मेरा मानना यह है कि मेरे साथी भी मेरी बातों से सहमत होंगे। भोपाल में यह स्पर्धा काफी वक्त से चल रही है। एक अखबार दूसरे अखबार से और एक चैनल दूसरे चैनल से आगे कल जाने के लिये बेताब है। आंकड़ों का खेल जारी है और इसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन जो इन दिनों क्या बल्कि एक मुद्दत से हो रहा है वह निहायत गलत है। बीती रात एक अखबार में काम करने वाले साथी को किसी अज्ञात लोगों ने लूट लिया। इस लूट की खबर सारे अखबारों में है। लूट का शिकार हुए साथी का नाम भी दिया गया है किन्तु अखबार का नाम प्रकाशन से सभी अखबारों ने परहेज किया है। यह पहली घटना नहीं है। एक पखवाड़े के भीतर यह चौथी-पांचवीं घटना है। यह सुखद है कि खबरों के प्रकाशन में कोई परहेज नहीं किया जा रहा है किन्तु सवाल यह है कि अखबार का नाम प्रकाशित करने से
क्या भला हो रहा है। अखबार में काम करने वाला साथी है और उस अखबार का नाम प्रकाशित किया जा रहा है तो ऐसा नहीं है कि इस खबर से अखबार की प्रसार संख्या में कोई वृद्वि या कमी हो रही है या अनावश्यक पब्लिसिटी हो रही है और साथी किसी टेलीविजन चेनल का है तो भी इसी तरह का कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हमें सिखाया जाता था कि अपनी लाईन बड़ी करने के लिये किसी की लाईन को मिटाने की जरूरत नहीं है बल्कि स्वयं अपनी लाईन बड़ी करें। मीडिया की तीन बुनियादी बातें हैं जिनमें एक समाज को शिक्षित करना भी है। जब स्वयं मीडिया अपनों के साथ ऐसा बर्ताव करेगा तो वह समाज को कैसे और किस प्रकार की शिक्षा देगा, यह आत्ममंथन का विषय है।
मैं समझता हूं कि यह मुद्दा व्यक्ति विशेष, संस्था विशेष का न होकर समूचे मीडिया जगत का है और इस पर पहल करना जरूरी है। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह की खबरों पर मैनेजमेंट का बहुत गंभीर हस्तक्षेप नहीं होता है। मैनेजमेंअ उन खबरों पर जरूर एक्शन लेता है जो उनके व्यवसायिक हितों को चोट पहुंचाती है। जो लोग मेरा ब्लॉग पढ़ रहे हैं, मेरा उनसे अनुरोध है कि इस दिशा में वे अपनी राय दें, हस्तक्षेप करें और हम सब एक हैं कि आवाज बुलंद करें।
मनोज कुमार
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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