सोमवार, 19 दिसंबर 2016

कहानी - प्रायश्चित्त - देवी नागरानी

कहानी का अंश... वह अनपढ़ थी. पढ़ाई क्या होती है, इसका बीज शायद बचपन में उसके कोमल ज़हन में बोया ही नहीं गया, या परिस्थितियों ने इजाज़त ही न दी. छोटे से गांव की गूंगी गाय-सी यह अल्हड अनाड़ी-सी लड़की खेती-बाड़ी में काम करते हुए बड़ी हुई. रईसी क्या होती है, ऐशो-आराम क्या होता है उसे पता ही नहीं था. परिश्रम करना, पानी भरना, ढोरों को चारा डालना और दूध दही बाजार में जाकर बेच आना, यही काम उसके बस का था. जिसके लिए वह काम करती थी, वह उसका कौन लगता था इसका भी उसे पता न था. गांव की जवान युवतियों के मुंह से सुना था कि जब वह चार साल की थी तो उसके माता-पिता गांव में आई बाढ़ में डूब गए और वह खुद इस बंदे के पल्ले पड़ गई. वह था तो पिता की उम का, पर मटमैली नज़रों का धनी था. जैसे ही वह कुछ समझदार हुई तो उसे लगा कि उसकी छेदती निगाहें उसके जवान बदन को चीरकर आरपार आती जाती रही. वह जब 16 वर्ष की हुई तो उसे गाँव के मंदिर में ले जाकर पंडित को साक्षी बनाकर उसे अपनी पत्नी बनाकर घर ले आया. गाँव के लोगों से ‘गृहलक्ष्मी’ कह कर परिचय करवा दिया, परिचय क्या उसके पत्नी होने का ऐलान था. वह कुछ भी न थी, पर अब गृहलक्ष्मी से लक्ष्मी बन गई. संसार की रचना का आदि मूल सूत्र शायद इसी एक रिश्ते की बुनियाद पर खड़ा है. इंसान और पशु में एक ही फर्क रहा है. यह सुविधा अनुसार मर्यादा का पालन करता है और उसे धर्म का नाम दे देता है, बाकी कोई भी लक्ष्मण रेखा पार करने में वह किसी जानवर से कतई कम नहीं. ऐसे विचार लक्ष्मी के मन में अक्सर पैदा होते ‘वह’ उसके साथ हैवानों जैसा बर्ताव करता, उसके शरीर को मांस के लोथड़े की तरह रौंदता. यह भावना तब ज़ोर पकड़ने लगी जब वह माँ बनी. जब ‘मोना’ पैदा हुई तो वह और व्यस्त रहने लगी. तीन सालों के बाद मोहन पैदा हुआ. अब लक्ष्मी कुछ कुछ मान -अपमान की परिभाषा समझने लगी. मोना के सामने अपने पति के मुंह से तिरस्कृत शब्द सुनती तो अपमान की आग में झुलसने लगती. वह अपनी बेइज्ज़ती इतनी बार करा चुकी थी कि इज्ज़त क्या होती है यह अहसास भी उसके शब्दकोष से स्थगित हो चूका था. बस बयाँ होती थी स्थिति, जब वह ‘आदमी’ शराब पीकर, मदहोशी में झूमते हुए घर आता. और काली रात के ढल जाने पर दिन की रोशनी में सिर्फ़ लक्ष्मी के शरीर के नीले निशान ही सच को जाहिर करते. इसी तरह कुछ साल बीते और देखते देखते मोना दस साल की हो गई. चाहे वह बाप से डरती थी, पर माँ के लिए उसके मन में अभी भी एक सॉफ्ट कॉर्नर रही. गांव के स्कूल में पढ़ती थी कभी जो पढ़कर आती उसे माँ के सामने दोहराते हुए कहती- “माँ मास्टर ने बताया कि ज़ुल्म करनेवाला गुनहगार है, पर जुल्म को सहने वाला भी उससे बड़ा गुनहगार है, क्या यह सच है, या केवल किताबों में दर्ज है?” मोना मां से यह सवाल बार-बार पूछती-“माँ तुम क्यों कुछ नहीं कहती, क्यों चुपचाप सह लेती हो? “...........................” ‘माँ कुछ तो कहो.’ .....बस सवाल खुद को दोहराते ही रह जाते. लक्ष्मी जवाब दे तो क्या? वह रोकर सहे, या चिलाकर सहे, या ख़ामोश रहे या खुद को बांटे क्या फर्क पड़ता? ज़ुल्म तो ज़ुल्म है, एक करता जाए, दूसरा सहता जाए, शायद इस घर का यही नियम है. उसके पास और कोई विकल्प ही न रहा. अब तो वह दो बढ़ते बच्चों की माँ भी थी. चुप्पी में अपने ग़नीमत समझ कर चुप्पी साध लेती. 0 मोना और मोहन दोनों ने माँ की कोख से जन्म तो लिया पर कभी पालने में झूल न पाए थे. उन्होंने कभी मां की प्यार भरी लोरी नहीं सुनी. बस सुनी तो सिर्फ पिता की कड़कती हुई आवाज़ या उसके लोहे जैसे हाथों से माँ के नाजुक बदन पर कड़कती बिजलियों जैसी मार की आवाज़. वे छोटे थे, पर इतने भी छोटे नहीं कि वे यह भी न समझ पाए कि उनकी माँ पर जुल्म हो रहा है, वह बेबस और मजबूर है. वे जानते थे, हर रोज़ रात को जब उनके पिता घर में घुसते, तो किस तरह मां सहमी-सहमी सी अपना चेहरा सूत की चुनरी से ढांप कर खाट के कोने पर एक पोटली की तरह बैठ हुई होती, और उनके आते ही उठ खड़ी होती. 3 ‘अब इस तरह क्या खड़ी हो? जाओ पापड़ पानी ले आओ…’ और वे कपड़े बदलकर फ़क़त एक बनियान में और एक पुरानी सालों से इस्तेमाल की हुई लूंगी पहनकर उसी खाट पर लेट जाते. कभी तो घर में घुसते ही गालियों की बौछार शुरू कर देते-‘ न जाने कैसे मैं फंस गया हूँ इस जंजाल में?’ फ़कत मैं एक ही कमाने वाला, और तुम तीनों बैठ कर खाने वाले. तुम क्यों नहीं कुछ हाथ पैर चलाती हो? घर बैठे चार पैसे कमाओगी तो पता पड़ जाएगा कि काम करना क्या होता है? परिश्रम का पसीना बहाना क्या होता है? निकम्मों की तरह रोटी पका कर, रोटी खाकर, बिल्कुल बेसूद सी हो गई हो.’ लक्ष्मी ऐसे जहरीले शब्द सुनाने व् झेलने की आदी हो गई थी, आज नहीं, पिछले 10 सालों से. एक कहावत है ‘नई दुल्हन नौ दिन, ज्यादा से ज्यादा दस दिन!’ पर लक्ष्मी को तो दस दिन भी नयी नवेली होने का सुख नसीब न हुआ था, सुहागन के सारे अरमान धरे के धरे रह गए. मिला तो फ़क़त यह चूल्हा-चौका, यही झाडू-पोता उसे विरासत में मिला. कभी कभी मोना और मोहन आपस में आंखों की अनुच्चारित भाषा में बतियाते. एक दिन लक्ष्मी पर इतनी मार पड़ी कि उसे तेज़ बुखार चढ गया. उसके शक्तिहीन बदन से जैसे किसी ने प्राण खींच लिए. खटिया पर बिना हिले डुले कराहती पड़ी रही. मोना अब छोटी न रही, बारह साल की हो गई थी. वह क्षुब्ध नज़रों में माँ की ओर देखते हुए कहने लगी-’ भगवान करे ऐसा बाप न हो तो ही अच्छा है.’ इस बात को एक हफ्ता गुजर गया. हालत ने न सुधरने की ठान ली. घाव भरने का नाम ही न लेते. हक़ीम से दवा लाकर पिता ने मोना को देते हुए कहा ‘यह माँ के घाव पर लगा दो, घाव जल्दी ठीक हो जाएंगे, और दावा दूध के साथ पिला देना.’ मोना का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. जुल्म सहने की भी हद होती है. पहली बार पिता के सामने ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज उठाते हुए कहा-’ ठीक हो 4 जाएगी, फिर क्या? फिर मार खाएगी, फिर गिरेगी, पड़ेगी, कराहती रहेगी और फिर मरहम लगाने पर उठ खड़ी होगी, फिर से मार खाने के लिए! इससे बेहतर यह है कि आप उसे एक ही बार इतना मारें कि वह मर जाये, और इस पीड़ा को मुक्ति पा ले. मुझे तो याद नहीं आता है कि मैंने कभी माँ मुस्कुराते हुए देखा है, या कभी इस घर में मान-सम्मान पाते हुए देखा है. इसके साथ तो हमेशा बदी का व्यवहार होता आया है, और करने वाल कोई और नहीं, आप ही हैं. जोरावर के आगे कमज़ोर का क्या बस चलेगा? उसे पड़ी रहने दो उसे पड़े पड़े मर जाने दो,..’ ऐसा कहकर वह रोने लग गई. मोहन छोटा था, पर था तो उसका भाई. अपनी दोनों बाहें बहन के गले में डाल कर उसे चुप कराने लगा. आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels