रविवार, 18 दिसंबर 2016
कविता - मेघदूत के प्रति - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,
प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला
किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
इस अधूरी कविता को पूरी सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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