शुक्रवार, 18 जनवरी 2008
विदा लेती हरियाली
डा. महेश परिमल
लहर-लहर लहराता सावन, रिमझिम फुहारों से रिझाता सावन, बच्चों की अठखेलियों में भीग जाता सावन, गोरी की पलकों में दो घड़ी ठहर कर ओठों में बसता अल्हड़ सावन, पपीहे की पीऊ-पीऊ से पिया को पुकारता सावन, माँ-बाबा की बूढ़ी ऑंखों में तैरता सावन, भाई की सूनी कलाई पर बहना का प्यार बांधता रेशमी सावन, भाभी की चूड़ियों और ननद की हँसी में खनखनाता सावन, यानि की ंजिंदगी के सभी रिश्तों के बंधन में बँधता सावन, कहाँ चला गया इतने रूपों में ढला ये भीगा-भीगा सावन?
सावन ने दस्तक दी थी हमारे द्वार पर और हम दौड़ पड़े थे, उसके स्वागत में. पहले सावन में माटी की गंध ने नाक को छुआ था, वह तो अभी तक साँसों में समाई है. वही सावन अब जाने की तैयारी में है. जाते-जाते भी इस बार सावन ने ही नहीं, बल्कि भादो ने भी खूब भिगोया. इस बार बारिश ने पूरी धरती पर हरियाली बिछा दी है. अब यह चला जाएगा, न जाने कहाँ, पर हमें इतना तो कहता ही जा रहा है कि क्या हम इस हरीतिमा को सहेजकर रख पाएँगे? आज हम कहीं से भी गुंजरें, तो हमें इसका अहसास ही नहीं होगा कि जो पेड़ अब तक तन कर खड़े थे, वे अब और झुकने लगे हैं. शायद हम इसे प्रकृति का चमत्कार मान लें. लेकिन सच तो यह है कि मिट्टी का कटाव लगातार बढ़ने के कारण पेड़ों की जड़ें अपनी पकड़ ढीली कर रही हैं, फलस्वरूप पेड़ झुकने लगे हैं. झुककर पेड़ हमें शायद यही कह रहे हैं कि हे मानव अब तो चेत जाओ. पर हमें इसकी कहाँ चिंता है. हमें तो रोज ही फालतू खर्च करने के लिए पानी मिल रहा है, वही काफी है. जहाँ हमने अपना बसेरा तैयार किया है, वहाँ तो खूब हरियाली है. बिल्डर को दो लाख रुपए अतिरिक्त इसीलिए तो दिए हैं. ताकि हरियाली बनी रहे. हमें तो कोई चिंता नहीं, जिन्हें चिंता करनी है वे करें.
केवल शहरों में ही नहीं, बल्कि गाँवों में भी लगातार आरा मशीनें चल रहीं हैं, क्या इससे ही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि पेड़ कितनी तेंजी से कट रहे हैं. सरकारी ऑंकड़े कितना भी मुलम्मा चढ़ा लें, पर सच यही है कि आज पेड़ लगातार कट रहे हैं और हरियाली हमसे दूर होते जा रही है. हम इसे रोक तो नहीं सकते, पर अपने ऑंगन में एक पौधा लगाकर इसके कदमों को धीमा अवश्य कर सकते हैं. बारिश ने हमें कितना भिगोया, पर क्या हम उस पानी को सहेजकर रख पाए? न जाने कितना पानी व्यर्थ ही चला गया. इतना पानी तो अब तक अपनी ऑंखों से भी नहीं गुजरा होगा. सभी जानते हैं कि जब धरती बरसती है, तब बादल बरसते हैं. धरती का बरसना याने संचित पानी जितने अधिक वाष्पीकृत होंगे, उतना ही बादल अपने ऑंचल में उस पानी को सहेजेंगे. पर हमने धरती को इसका मौका ही नहीं दिया. क्योंकि पानी संचित होता हेै पेड़ों से और पेड़ों के मामले में हम लगातार शून्य होते जा रहे हैं.
आज हरियाली हमसे दूर नहीं हो रही है, बल्कि हमारी ंजिदगी हमसे दूर हो रही है. अब तो पेड़ों की पूजा होती थी, यह कहना मुहावरा हो सकता है. आज की पीढ़ी तो यह मानेगी ही नहीं. क्योंकि उसने तो पेड़ों को बेदर्दी से कटते ही देखा है. पेड़ के ऑंसू भी नहीं देखे होंगे आज की पीढ़ी ने. क्योंकि पेड़ तब रोते हैं, जब उनका कोई साथी उनसे अलग हो जाता है. अब साथी तो क्या पूरी जमात ही उनसे अलग हो रही है. इसके पीछे यही मानव की अदम्य लालसा है, जो पेड़ों को काट रही है. एक पेड़ पर हजारों का जीवन होता है, लेकिन वहाँ केवल कुछ लोग ही बसते हैं, लेकिन लाखों का जीवन बरबाद हो जाता है. रही बात पेड़ों की छाँव की. तो पेड़ अब इस काबिल ही नहीं रहे कि अपनी ठंडी छाँव दे पाए. जब छाँव देने वाले माता-पिता ही वृध्दाश्रमों की शरण में जा रहे हों, तब तो समझ लो, सब कुछ ही सिमट गया, उन झुर्रियों में. हाशियों पर जाती झुर्रियों की तरह यदि पेड़ भी हाशिए पर चले जाए, तो हरियाली केवल श?दकोश की शोभा बनकर रह जाएगी. तब कहाँ रह जाएगी हरी-हरी वसुंधरा और कचनार के पेड? तब होगा दूर-दूर तक फैला रेतीला मैदान. सूरज की तीखी गरमी के साथ झुलसता इंसान और झुलसती संवेदनाएँ. एक-एक बूंद पानी को तरसते प्राणी. ऐसे में हमें अभी ही समझना होगा कि पेड़ हैं, तो पानी है. पेड़ नहीं तो कुछ भी नहीं.
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा. मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरे का पानी ही उतर गया है. कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते. हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते. अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा. पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है. संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं. हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता. हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है. पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं.
डा. महेश परिमल
लेबल:
ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
हम सब में अभी भी हरियाली देखने की चाहत है, तभी सब के आँगन में एक पौधा या वृक्ष दिख जाता है,इसी का विस्तार यदि घर के बाहर हो जाए तो कितना अच्छा हो.आपक लेख अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंसटीक एवं सुंदर वर्णन। गांभीर्य।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...हरियाली से बात पानी तक पहुँची... दोनो का गहरा नाता है. उस नाते को तोड़ने के लिए हम जिम्मेदार :( .
जवाब देंहटाएं