मंगलवार, 29 जनवरी 2008
सम्मान देकर सम्मानित होती संस्थाएँ
डॉ. महेश परिमल
आजकल रोज ही कुछ ऐसी संस्थाएँ पनप रहीं हैं, जिनका कोई नामलेवा नहीं होता. लेकिन वे कुछ ऊँची हस्तियों को कई तरह के पुरस्कार देकर उन्हें सम्मानित करने की घोषणा करती हैं. इससे होता यह है कि वे संस्थाएँ लोगों का केंद्र बिंदु बन जाती हैं. उसके बाद भले ही उन संस्थाओं का और कोई कार्यक्रम हो या नहीं, पर वे अपना पंजीयन करवाकर कई सुविधाओं का लाभ उठाने लगती हैं.
हाल ही इस तरह के कई समाचार पढ़ने को मिले, जिसमें कई नई संस्थाओं ने उन लोगों को पुरस्कार देने की घोषणा की है, जो या तो विवादास्पद हैं या फिर निश्चित रूप से उन्होंने किसी क्षेत्र में नाम कमाया है. ये संस्थाएँ इसी अवसर की ताक में होती हैं, जैसे ही कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष में विशेष रूप से ऊँचे स्थान पर पहुँचता है, वैसे ही कतिपय संस्थाएँ उन्हें सम्मानित कर अपनी संस्था को लोगों के सामने लाती हैं. देखा जाए तो हस्तियों को पुरस्कार देकर ये संस्थाएं स्वयं ही पुरस्कृत होती हैं. एक बार इस संस्था के बैनर पर कोई सम्मान समारोह हो गया, तो समझो उसके पौ-बारह. हाल ही में जिन संस्थाओं के नाम सामने आए हैं, उन्हें लोगों ने पहली बार जाना है.
मायानगरी मुम्बई मे तो आजकल यह एक फैशन ही हो गया है. मात्र कुछ लाख रुपए लेकर ऊँची फिल्मी हस्तियाँ किसी पान ठेले या फिर किसी रेस्तरां का उद्धाटन कर देती हैं. फिर उसके मालिक के साथ तस्वीरें खिंचवाती हैं, पार्टी होती है और उसके बाद न तो फिल्मी हस्ती उस पान ठेले वाले या फिर रेस्तरां के मालिक को पहचानती है और न ही इन लोगों को उनकी आवश्यकता ही पड़ती है. उनका काम तो उन तस्वीरों से ही निकल जाता है, जो समारोह के दौरान खिंची जाती है. इन तस्वीरों के माध्यम से उन्हें काफी लोकप्रियता मिल जाती है. अधिक हुआ तो फिल्मी हस्ती द्वारा समारोह में कहे गए कुछ वचनों को ही ये लोग रिकॉर्ड कर लेते हैं, बस काम हो गया. इन हस्तियों द्वारा मात्र कुछ लाख रुपयों के लिए इस तरह के काम किए जाते हैं, इसके पीछे सस्ती लोकप्रियता पाने की चाहत भी होती है.
हमारे देश में सम्मान के भूखे ऐसे बहुत से लोग हैं, जो सम्मान पाने के लिए अपनी तरफ से धन खर्च करने में संकोच नहीं करते. कला और साहित्य के क्षेत्र में यह परंपरा शुरू हो गई है. किसी कहानी या काव्य संग्रह के विमोचन के बाद वे स्वयं ही उसकी समीक्षा लेकर अखबारों के दफ्तरों में जाते हैं, संपादक से अनुनय करते हैं, किसी तरह समीक्षा प्रकाशित हो जाए, तो उसकी कटिंग को माध्यम बनाकर कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए दे देते हैं. यही नहीं उसके बाद तो कई संस्थाओं द्वारा उस पर चर्चा करवाते हैं. इस तरह से अपने आप को एक प्रतिष्ठित कवि या लेखक बताने की पूरी जुगत करते हैं. इससे समाज में जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह अलग. इससे उनका समाज उन्हें सम्मानित करता है, इस तरह से समाज में भी वे एक ऊँचा कद प्राप्त कर लेते हैं.
सम्मान की यह भूख किस तरह से एक परंपरा को ही समाप्त कर रही है, इसकी तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है. देखा जाए तो जिस व्यक्ति का सम्मान होता है या फिर नागरिक अभिनंदन होता है, उस समारोह में विशिष्ट अतिथि के सामने उनका नाम पुकारा जाता है, सम्मान प्राप्त करने वाला मंच पर जाता है और शाल, श्रीफल और कुछ राशि प्राप्त कर अपने को धन्य समझता है. देखा जाए तो यह सार्वजनिक रूप से अपमानित होने का एक समारोह होता है. सम्मान यदि स्वयं ही किसी व्यक्ति के पास उसकी प्रतिभा के कारण उनके पास आया है, तो फिर सम्मानित होने के लिए उसे मंच पर जाने की क्या आवश्यकता है? विशिष्ट अतिथि को स्वयं ही शाल, श्री फल लेकर सम्मान प्राप्त करने वाले व्यक्ति के पास आना चाहिए. यह होता है उचित सम्मान. आजकल तो इस तरह के जो समारोह होते हैं, उसमें अपमान ही अधिक होता है. सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि समारोह के विशेष अतिथि को किसी के नाम ही पता नहीं रहता. वे तो केवल आयोजकों को ही पहचानते हैं. उन्हें न तो व्यक्ति की प्रतिभा से कोई मतलब होता है और न ही समाज में उनके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों की कोई जानकारी होती है. इस तरह के समारोहों में आकर वे भी स्वयं को स्थापित करते हैं, ताकि जब कभी उनका सम्मान हो, तब यही आयोजक किसी बड़ी हस्ती को बुलाकर इनका परिचय करवाएँ. इस तरह से सरकारी या व्यक्तिगत सुविधा प्राप्त करने की एक परंपरा ही चल पड़ती है.
सम्मान करना या सम्मान करवाना, ये सब सुविधाएँ प्राप्त करने के साधन हैं, जिसके आधार पर वे एक ऐसीे सीढ़ी तैयार करते हैं, जिससे होकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सकती है. इसके लिए लोग मीडिया का खूब इस्तेमाल करते हैं. यदि कोई व्यक्ति अधिक से अधिक मीडिया के लोगों को जानता है, तो उसे लोग अपना काम निकलवाने के लिए अपने पास बुलाते हैं. उसकी आवभगत करते हैं, फिर धीरे से अपना काम बता देते हैं.
नारी उत्थान के नाम पर हर शहर में एक-दो संस्थाएँ तो मिलेंगी ही, पर कभी शहर में किसी नारी पर अत्याचार हो, तो इन संस्थाओं को खोजने निकल जाएँ या फिर उस पीड़ित नारी के लिए कुछ आर्थिक मदद इकट्ठी करनी हो, तो इन संस्थाओं का एक भी प्रतिनिधि शहर में ही नहीं मिलेगा. हाँ किसी सरकारी समारोह में इन संस्थाओं के सभी लोगों की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती है. ही तो वह अवसर होता है, जब वे सभी अपने आपको स्थापित करते हैं. चेहरे पर कई चेहरे लगाने वाले लोग हर गली-मोहल्ले में मिल जाएँगे. बरसाती घास की तरह ऊगने वाली इन संस्थाओं की सालाना बैठक भी होती है, पर केवल कागजों में. संस्था के सभी सदस्य बमुश्किल ही मिल पाते हैं. आखिर क्यों ऊग आती हैं इस प्रकार की संस्थाएँ? इस पर किसी ने विचार किया?
वास्तव में ये संस्थाएँ इंसान की मंजबूरी का एक रूप है. एक अकेले व्यक्ति की आवाज दबकर रह जाती है. संगठित आवाज का असर कुछ और ही होता है. इसलिए लोग इस तरह से एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं. बुलंद आवाज से सभी खौफ खाते हैं. बस यही से शुरू हो जाता है स्वार्थी लोगों का काम. कई संस्थाएँ आज भी हैं, जो केवल वयोवृध्द साहित्यकारों को ही सम्मानित करती हैं. याने इस संस्था का सम्मान प्र्राप्त करने के लिए उम्र कम से कम 60 साल होना आवश्यक है. ऐसी संस्थाओं से समाज को क्या लाभ? यदि इन संस्थाओं के क्रियाकलापों पर एक नजर डाली जाए, तो अधिकांश फर्जी साबित होगी. यदि इस दिशा में सरकार स्वयं ही एक कानून बनाकर इन पर अंकुश रखे, तो नागरिकों को रोज-रोज पनपने वाली संस्थाओं से छुटकारा मिल सकता है.
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपने इतना सही लेख लिखा है की आपको सम्मानित करने का मन कर रहा है. :)
जवाब देंहटाएंसंस्था पहले तो भटकती है राह से,
फिर गिरती है सबकी निगाह से.
जय हो.
सही कहा.........
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है भाई । पर आपके कह देने मात्र से यह सब साबित भी नही होता । क्योंकि आपने सभी संस्था कों तो देखी नही है । न ही आपका अनुभव है इतना ।
जवाब देंहटाएंमैंने यह भी देखा है कि कुछ लोग कुछ विधाओं के साथ भी यह छेड़छाड़ कर रहे हैं । जैसे ललित निबंध । अब क्या बताऊँ एक भी ललित निबंध पढ़े समझे बिना वे स्वयं को ललित निबंध का पुरोधा समझ बैठे हैं । जैसे विद्यानिवास या हजारी प्रसाद के बाद वे ही हैं । कहीं आप भी यही तो नहीं कर रहे हैं । पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।
आपको किसी ने पुरस्कार देने से मना तो नही कर दिया ।
कुछ लोग जब स्वयं को पुरस्कृत नही देख पाते तो आपके जैसी टिप्पणी करके अपनी भड़ास निकालते हैं ।
आप किधर हैं इसका क्या सबूत है हमारे पास । वैसे हम यह जानना भी नहीं चाहते कि आप क्या लिख पढ़ रहे हैं । सच तो है कि आज विचार सिरिफ औरों को परोसने के लिए रह गया है । भले ही आपके-हमारे जैसे उस पर अमल करें या नही करें.....
आप समझ गये होंगे ना, कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ...
राम प्रताप यादव, उरई जालौन, उत्तरप्रदेश