गुरुवार, 31 जनवरी 2008
खामोश मुहिम चलानी होगी शोर के खिलाफ
डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही शहर से बहुत दूर एक गाँव में जाने का अवसर मिला. खेतों, पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ के बीच गुजरते हुए बहुत अच्छा लगा. स्वच्छ पानी के तालाब में नहाना, ऐसा लगा मानो बरसों की शहरी थकान उतर गई हो. भोजन भी अपेक्षाकृत अधिक लिया. नींद तो इतनी गहरी आई कि पूछो ही मत, पर एक बात विशेश रूप से देखने में आई कि खेतों पर काम करते हुए दो कोनों पर खड़े मजदूरों में आपस में वार्तालाप हो जाता था और उन दोनों के बीच खड़े होकर मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ता था. मैंने देखा कि वे मजदूर परस्पर बातचीत कर हँस भी लेते थे. उनकी बोली से अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद भी आखिर मुझे उनकी बातचीत समझ में क्यों नहीं आती थी?
आज जब मैं इस पर गंभीरता से विचार कर रहा हूँ तो पाता हंँ कि मेरे कानों को तो शहरी ध्वनि प्रदूषण का रोग लग गया है. शहरों में कल-कारखानों, वाहनों, मंदिरों, पटाखों, बैंडबाजों का शोर इतना व्यापक है कि सामान्य ध्वनि तो सुनाई ही नहीं देती. उन मजदूरों के कानों में ध्वनि संवेदना अधिक सक्रिय है, क्योंकि वहां शोर नहीं है. आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के आंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
उत्सवों में अधिक से अधिक शोर करना फैशन हो गया है. रोज सुबह मंदिरों में आरती के लिऐ लाउडस्पीकर का सहारा लिया जाता है. आरती के वक्त मंदिरों में कभी जाकर देखें तो पता चलेगा कि मात्र चार लोग ही विभिन्न वाद्ययंत्रों के माध्यम से लाउडस्पीकर का सहारा लेकर अधिक से अधिक शोर करते हैं. इस दौरान वे यह बिल्कुल भूल जाते हैं कि जो आरती मन को शांति पहुँचाती है, वही लाउडस्पीकर से निकलकर किस तरह से दूसरों को अशांत कर रही है. बहुत सुरीली लगती है न लता मंगेशकर की आवांज, कभी उनके किसी गीत को साउंड सिस्टम में पूरी तीव्रता के साथ सुनो तब समझ में आ जाएगा कि अधिक तेज आवांज किस तरह से सुरीले स्वर को कर्कश बना देती है?
आज पर्यावरण पर तो बहुत ध्यान दिया जा रहा है, जल और वायु के प्रदूषण पर सारा विश्व चिंतित है, पर ध्वनि प्रदूषण की ओर कोई इशारा भी नहीं करता. इसके लिये हमें ही प्रयास करना होगा. शुरूआत हम खुद से करें तो बेहतर होगा. तेज स्वर में न बोलें. अपने रेडियो, टेप, टी.वी. की आवांज धीमी रखें. उत्सवों में तेज स्वर से दूर रहें. अपने उत्सव में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग ही न करें. अपनी गाड़ियों में कर्कश ध्वनि वाले हार्न न लगाएँ, लोगों को ध्वनि प्रदूषण के खतरों एवं दुष्प्रभावों से अवगत कराएँं. अपनी तरफ से हम इतना ही करें तभी हमें शांति मिल सकती है. हमारे आसपास कितना शोर है यह जानने के लिए एक मिनट तक दोनों कानों में अपनी ऊँगलियाँ डाल लें, देखो कितनी शांति मिलती है? बाहरी शोर पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं, पर कुछ प्रयास तो हमारी ओर से हो ही सकते हैं. नहीं तो इन शोर प्रेमियों को कौन बताए कि आपका बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो उसके पीछे यह शोर तो नहीं? बच्चे के जन्म की खुशियाँ लाउडस्पीकर के माध्यम से बाँटने वाले कभी खुद ही अपने ही बच्चे की आवांज सुनने से तरस जाएँगे, क्योंकि यह शोर आपको बहरा बना देगा.
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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