बुधवार, 16 जनवरी 2008
अतृप्त कल्पनाएँ ही दु:ख का कारण
डॉ. महेश परिमल
प्रसिध्द छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने कहा है कि किसी वस्तु की कल्पना में जो सुख है, वह उस वस्तु की प्राप्ति में नहीं। यही बात दु:ख के संबंध में भी लागू होती है। आज मानव सुख की कल्पना तो कर ही नहीं पाता, हाँ दु:ख की कल्पना कर अपने वर्तमान को दु:खी अवश्य करता है। वह या तो अतीत में जीता है, या भविष्य में। वर्तमान में जीना वह भूलता जा रहा है। यही कारण है कि वह दु:ख आने से पहले ही दु:ख का अनुभव करने लगता है।
दु:ख की खोज में यदि आप निकलेंगे तो आपको तीन प्रकार के दु:ख मिलेंगे- स्वजनित दु:ख, परजनित दु:ख और कर्मजनित दु:ख। व्यक्ति दु:ख का अनुभव करता है, किंतु उसके निवारण का उपाय कदाचित ही कर पाता है, क्योंकि दु:ख उसके ऊपर इतना अधिक हावी हो जाता है कि वह उससे बचाव का उपाय ही नहीं सोच पाता है। हमारे कितने ही दु:ख भयजनित होते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि हकीकत में उसके सामने वह दु:ख नहीं होता, किंतु उस दु:ख से जुड़ी भविष्य की कल्पना ही उसे अधिक दु:खी कर देती है।
ऊँचे पद पर आसीन व्यक्ति को कोई चुनौती नहीं होती, किंतु उसके बाद भी पद छीन जाने का विचार ही उसे दिन-रात बेचैन किए रहता है। वह इस काल्पनिक दु:ख में ही दु:खी रहता है कि यदि उससे यह सम्मानजनक पद छीन लिया गया, तो क्या होगा? विचारों की यह तरंगे ही उसे दु:ख के सागर में डूबो देती है। वृध्द व्यक्ति को हमेशा अपनी मृत्यु का भय सताता है। कब, किस समय, किन परिस्थितियों में और कैसे मृत्यु उसे अपने पाशमें लेगी यही भय उसे दिन-रात लगा रहता है। अपनी असली मृत्यु आने के पूर्व वह कई बार मौत को पा लेता है। शरीर मृत्यु से कोसों दूर रहता है, किंतु मन उसे मृत्यु के नजदीक ले जाता है। केवल कोरी कल्पनाओं के द्वारा ही वह सांध्यबेला में कई-कई बार मृत्यु के मुख में जाता है। उसमें भी अपने किसी प्रिय की मृत्यु का समाचार या नजरों के सामने उसकी मौत उसे अपनी मौत के करीब ले जाती है।
देखा जाए तो मौत एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई समझकर भी समझना नहीं चाहता। जो पैदा होगा, वह मौत को प्राप्त होगा, यह एक शाश्वत सत्य है, लेकिन इंसान अपनी मौत को पीछे धकेलने के लिए क्या-क्या करता नहीं दिखता। यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ आदि सब मौत को झुठलाने के उपाय ही हैं। जिन्हें मौत का भय नहीं, वे तो कई मुसीबतों का सामना ऐसे ही कर लेते हैं। जिन्हें अपने साहसिक कार्यों से सफलता मिली है, उन सभी ने कहीं न कहीं मौत को अपने करीब पाया है और वे उससे नहीं डरे, इसलिए सफलता उन्हें प्राप्त हो गई। जिनके भीतर मौत का भय होता है, वे कोई भी काम साहस के साथ नहीं कर पाते। हमारे बीच ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना जीवन तो जिया ही नहीं, वे लगातार मौत के साये में रहकर जीवन को दु:खमय बनाते रहे हैं।
व्यक्ति के दु:ख का कारण सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति है। इस समय इंसान एक शुतुरमुर्ग की तरह होता है, जिसकी प्रवृत्ति होती है कि मुसीबत के समय वह अपना सर रेत में छिपा लेता है, इसके पीछे यही सोच होती है कि कोई उसे नहीं देख रहा है। वास्तविकता इसके विपरीत होती है। यही है सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति। इस प्रवृत्ति के इंसान अपने आसपास एक वायवीय संसार का सृजन कर लेते हैं। सब कुछ उनकी कल्पना में ही होता रहता है। इसे सही साबित करने के लिए उसके पास इसी तरह की कपोल-कल्पित मान्यताएँ भी होती हैं, वह उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। उसका एक अपना रचना संसार होता है, जिसमें वह जीना चाहता है। पर यह स्थिति उसे सच से इतना दूर ले जाती है कि सच उसे एक मजाक लगता है, वह उसका सामना ही नहीं कर पाता।
एक और दु:ख का कारण है, अतीत का बोझ अपने पर लादे रहना। हमारे समाज में कई ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपने अतीत में ही जीते हैं। वे वर्तमान की बातों को भी अपने अतीत से तौलते नजर आते हैं। उन्हें अपना अतीत इतना प्यारा लगता है कि वे उससे अलग होना ही नहीं चाहते। वर्तमान की उपेक्षा ही उनके दु:ख का कारण होती है, क्योंकि अतीत में वे अकेले ही जीते हैं। वर्तमान में रहने वाले लोग उनके अतीत के सहभागी नहीं होते, इसलिए वे वर्तमान की उपेक्षा करने लगते हैं। अतीत को अपने सर पर लादे हुए लोग कभी भी सुखी नहीं हो सकते। इसके लिए उन्हें अतीत के भूत को अपने सर से उतारना होगा, तभी स्थिति सँभल सकती है।
आज का इंसान इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से पूरम्पूर है। जीवन एक ऐसा अस्पताल बन गया है, जहाँ मरीज को हमेशा दूसरे का बिस्तर ही अच्छा लगता है। वह यही देखता है कि सामने वाले के पास क्या-क्या है और उसके पास क्या-क्या नहीं है। उसके पास क्या नहीं है, यह चिंता उसे हमेशा सताती रहती है। जो उसके पास है, उसका उसे सुख नहीं है, बल्कि जो उसके पास नहीं है, उसका ही उसे सबसे अधिक दु:ख है। आज यही दु:ख का मूल कारण्ा है। इसके अलावा एक बात और है, वह यह कि आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग? लोगों को आज अपने आप पर इतना भी विश्वास नहीं रहा कि वे अपनी बात को दृढ़ता से रख सकें, उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि उनकी इस हरकत से लोग क्या कहेंगे। कई बार अमीर बेटा अपने गरीब बाप को सबके सामने केवल इसीलिए गले नहीं लगा सकता, क्योंकि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। इस चक्कर में वह अपने पिता का सच्चा प्यार भी नहीं पा सकता और न ही सुपुत्र होने का सुबूत ही दे सकता है।
इंसान केवल इतना जान ले कि हमारी अतृप्त कल्पनाएँ ही दु:ख का कारण है। दु:ख कहीं बाहर से नहीं आता, वह हमारी कल्पना से ही उपजता है। दु:ख को यदि किसी से डर लगता है, तो वह है हँसी। जहाँ हँसी का साम्राज्य है, वहाँ दु:ख फटक भी नहीं पाता। हँसी के सामने दु:ख कभी टिक नहीं पाया। जो दु:ख में भी हँस लेता है, वह सीधे ईश्वर से जुड़ जाता है, ईश्वर भी उनकी इस महानता के सामने नत हो जाते हैं। जो है, उसी में संतुष्ट हो जाएँ, यही वह मूल मंत्र है, जिसके आगे बड़ी से बड़ी शक्तियाँ पराजित हो जाती हैं। जो अपने पास है, उसकी खुशियाँ मनाएँ, यही एक सत्य है, जिसे हमें समझना है। बस.....
? डॉ. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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