गुरुवार, 14 अप्रैल 2016
बाल कविता - बगीचा - आनंद विश्वास
मेरे घर में बना बगीचा,
हरी घास ज्यों बिछा गलीचा।
गेंदा, चम्पा और चमेली,
लगे मालती कितनी प्यारी।
मनीप्लान्ट आसोपालव से,
सुन्दर लगती मेरी क्यारी।
छुई-मुई की अदा अलग है,
छूते ही नखरे दिखलाती।
रजनीगंधा की बेल निराली,
जहाँ जगह मिलती चढ़ जाती।
तुलसी का गमला है न्यारा,
सब रोगों को दूर भगाता।
मम्मी हर दिन अर्ध्य चढ़ाती,
दो पत्ते तो मैं भी खाता।
दिन में सूरज, रात को चन्दा,
हर रोज़ मेरी बगिया आते।
सूरज से ऊर्जा मिलती है,
शीतलता मामा दे जाते।
रोज़ सबेरे हरी घास पर,
मैं नंगे पाँव टहलता हूँ।
योगा प्राणायाम और फिर,
हल्की जोगिंग करता हूँ।
दादा जी आसन सिखलाते,
और ध्यान भी करवाते हैं।
प्राणायाम, योग वो करते,
और मुझे भी बतलाते हैं।
और शाम को चिड़िया-बल्ला,
कभी-कभी तो कैरम होती।
लूडो, सांप-सीढ़ी भी होती,
या दादा जी से गप-सप होती।
फूल कभी मैं नहीं तोड़ता,
देख-भाल मैं खुद ही करता।
मेरा बगीचा मुझको भाता,
इसको साफ सदा मैं रखता।
जग भी तो है एक बगीचा,
हरा-भरा इसको करना है।
पर्यावरण सन्तुलित कर,
धरती को हमें बचाना है।
इसी कविता का आनंद ऑडियो के माध्यम से लीजिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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