शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016
ललित निबंध - पीले पत्ते - गौतम सचदेव
प्रस्तुत है गोतम सचदेव के ललित निबंध पीले पत्ते का कुछ अंश... इसे पूरा जानने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए...
पीले पत्ते बडे़ अभागे हैं। बेचारों को जिस समय अपने जनक की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, उस समय वह इनका परित्याग कर देता है। यूं तो वृक्ष को बड़ा परोपकारी माना जाता है, जो अपनी छाया, लकड़ी, फल, और पत्ते सब कुछ दूसरों के हित में देने को सर्वदा उद्यत रहता है, लेकिन अपने ही आत्मज पत्तों के सन्दर्भ में उसे स्वार्थी भी कहा जा सकता है, क्योंकि पहले तो वह इनके माध्यम से पूरा वर्ष सूर्य की ऊर्जा सोखता है और इनके द्वारा ही अपनी गंदगी से मुक्ति पाता है, लेकिन ज्यों ही उसका काम निकल जाता है, वह निर्मोही बनकर इनसे नाता तोड़ लेता है। पीले पत्ते बेबस हैं। न तो वे पेड़ द्वारा त्यागे जाने को रोक सकते हैं और न ही उठकर टहनियों पर लग सकते हैं। उधर पेड़ ऐसा कठकलेजी है कि उन्हें फिर कभी तन से जुड़ने नहीं देता। कबीर ने उनकी पीड़ा को अनुभव करते हुए लिखा था-
पात झरंता यूं कहे सुन तरूवर बनराय।
अबके बिछुरे नाहिं मिलें दूर परेंगे जाय।।
पीले पत्ते हिन्दी की उन पुस्तकों से भी गये गुजरे हैं, जिनको अगर कोई पढ़ता नहीं, तो कम-से-कम उनके पन्ने चाट बेचने वालों और पुड़ियां बांधने वालों के काम तो आते हैं। ये बचारे अनाथों की तरह दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं, क्योंकि लाखों साल गुजर जाने के बाद भी मनुष्य को इनका कोई उपयोग नहीं सूझा है। कुछ गरीबों को छोड़ दें, जिनके लिए ये जलावन का काम करते हैं, बाकी तो इन्हें भस्म करके भी कोसते हैं, क्योंकि उन्हें इनका धुआं अच्छा नहीं लगता। यही नहीं, उन्हें तो इन बेचारों का अपने जनक के चरणों में बैठकर खोई हुई जवानी पर आंसू बहाना भी अखरता है। वे इन्हें घूरे पर फिंकवा देते हैं। कोई उनसे पूछे अगर आपको पत्तों के धुएं से इतनी ही नफरत है, तो आप धूम्रपान क्यों करते हैं? तम्बाकू के पत्तों का विषैला धुआं तो साधारण पत्तों के धुएं से भी अधिक हानिकारक होता है।
अगर हरे पत्तों से पेड़ हरे-भरे और सुन्दर लगते हैं, तो पीले पत्तों से भी तो लगते हैं। हां, उस सुन्दरता की प्रशंसा करने के लिए दृष्टि और दृष्टिकोण जरूर बदलने पड़ते हैं, लेकिन अपनी हिन्दी के दो-चार कवियों और ब्रिटेन जैसे देशों के कुछ गिने-चुने प्रकृति प्रेमियों को छोड़ दें, जो इनमें सौन्दर्य देखते हैं, शेष तो इनकी ओर झांकना तक बेकार समझते हैं। और वही क्यों, चित्रकार भी पीले पत्तों को कम ही चित्रोपम मानते और चित्रित करते हैं। अगर मनुष्य थोड़ी-सी संवेदनशीलता से भी काम ले, तो देखकर चकित रह जायेगा कि झड़ने से पहले ये पत्ते पेड़ों को कैसा सुनहरा और अरूणिम रंग प्रदान करते हैं और प्रकृति का सौन्दर्य कैसा जाज्वल्यमान हो जाता है। ऐसे लगता है मानो वनदेवी जरदोजी की चादर ओढ़े अपने प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा कर रही हैं। दरअसल, मानव जवानी, सुन्दरता और समृद्धि का उपासक है, बुढ़ापे, कुरूपता और निर्धनता का नहीं और पीले पत्ते ठहरे इनके मूर्तिमान उदाहरण। यदि वे किसी कोने में छुप-छुपाकर रो लेते, तो भी चल जाता, लेकिन वे तो मानव के सजे-संवरे और कटे-छंटे बगीचों की ऐसी की तैसी करने लगते हैं। इस लिए मानव उन्हें झाडू मार-मार कर निकलवाता है।
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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