मंगलवार, 5 अप्रैल 2016
मेरी यादों में अमरूद का पेड़
अक्सर याद आता है वो अमरूद का पेड़, जो मेरी बचपन की शरारतों का मूक साक्षी रहा है। अपने बचपन का काफी लम्बा समय मैंने इसकी शाखाओं पर बैठकर गुजारा है। नहीं मालूम कि ऐसा क्या था उस पेड़ पर, जो मैं हमेशा उस पर बैठना पसंद करती थी। एक सुकून मिलता था, मुझे उसकी शाख पर बैठकर। जब भी किसी बात पर माँ डाँटती थी, पिताजी ऊँची आवाज में पुकारते थे या फिर बड़े भाई-बहन किसी काम को लेकर रोक-टोक करते थे या काम बताते थे, तो इन सभी से छुटकारा पाने के लिए घर से बाहर निकल आती थी और पहुँच जाती थी, पड़ोस में। वहीं तो था, मेरा वो प्यारा दोस्त अमरूद का पेड़। पड़ोस के घर में पिछले आँगन में अमरूद के दो पेड़ थे। अमरूद के अलावा और भी पेड़ थे, लेकिन मुझे किसी और पेड़ से कोई मतलब नहीं था। मुझे तो बस वही प्यारा था, जो धीरे-धीरे घना होता जा रहा था। मेरी तरह बड़ा होता जा रहा था। वो पेड़ घर के उस हिस्से पर लगा था, जहाँ घर के सदस्य बहुत कम आना-जाना करते थे। उस हिस्से की ऊपरी मंजिल तो इतनी उजाड़ थी कि दिन में भी वहाँ जाते हुए डर लगता था। कोई उस जगह पर जाना पसंद ही नहीं करता था। हमेशा बड़ा-सा ताला और मकड़ी के जालों का साम्राज्य रहता था। जब कोई उन जालों को हटाते हुए ताला खोलता था, तो यह जानने की उत्सुकता जरूर होती थी कि वहाँ ऐसा क्या है, जो ताले में बंद है? वैसे कुछ भी नहीं था, वहाँ एक टूटी चारपाई के अलावा। खैर… मुझे न तो उस चारपाई से मतलब था, न उस ताले से और न ही उन मकड़ी के जालों से। मुझे तो मतलब था सिर्फ अपने दोस्त अमरूद के पेड़ से। कोई लाख डराए पर मैं बिना डरे उस पेड़ पर जाकर बैठ जाया करती थी। अमरूद का दूसरा पेड़ बीच आँगन में था। बहुत घना भी था और मीठे फलों से लदा भी रहता था। उसके आसपास दूसरे पेड़-पौधों भी थे। मगर मुझे उनसे कोई लेना-देना नहीं था। अमरूद न भी मिले,कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ, अमरूद का पेड़ मिलना चाहिए। बस, इसीलिए मैं उस उजाड़ स्थान पर लगे अमरूद के पेड़ पर जाकर बैठ जाती थी।
उसकी शाखाएँ मेरा इंतजार करती मालूम होती थीं। उस पर बैठते ही पत्तों की सरसराहट मानों धीरे से कानों में आकर मौसम का हाल सुनाती थी। झूमती शाखों के साथ झूमने का मन करता था। फुनगी पर बैठी चिडिया के साथ झूलने का मन करता था। अपने स्कूल के कितने ही होमवर्क उसकी शाखा पर बैठकर पूरे किए हैं। कई पाठ याद किए हैं। कुछ सोचते हुए, गुनगुनाते हुए कितना कुछ बचकाना-सा लिखा भी है। वो लिखा हुआ अब भी सहेजकर रखा है। कभी एकांत के क्षणों में जब उन पन्नों को पलटती हूँ, उस लिखावट पर उँगलियाँ फेरती हूँ, तो पत्तों की सरसराहट, अमरूद की महक, हवाओं के साथ गुनगुनाती चिडिया की चहक सब कुछ याद आ जाता है। वो पेड़ सिर्फ मेरा था, उसकी हर डाल, हर पत्ती सिर्फ मेरी थी। मैंने ही उदारता अपनाते हुए उसके फल पर सिर्फ अपना अधिकार नहीं जमाया था। इसलिए उसके फल सिर्फ मेरे नहीं थे। पर मुझे ये बिलकुल गँवारा नहीं था कि उस पर मेरे सिवा कोई और बैठे। उस पर बैठने का हक सिर्फ और सिर्फ मेरा ही था। सभी इस बात को जानते थे। इसलिए जब मैं कहीं नहीं मिलती थी, तो सभी मुझे उस पेड़ पर तो खोज ही लेते थे।
पड़ोस की वो बूढ़ी दादी जो मुझे अकसर घरवालों के कोप से बचाने का प्रयास करती थीं, मैँ उन्हें माँ कहती थी। मैं ही क्या घर के सभी सदस्य उन्हें ‘बाजूवाली माँ’ कहकर ही पुकारते थे। जबकि अपनी माँ को तो हम ‘बा’ ही कहते थे। बा और माँ दोनों का अर्थ एक ही होता है, यह बात तो बड़े होने के बाद ही पता चली। उस समय तो यही लगता था कि जो लोग काफी बूढ़े हो जाते हैं, जिनके बाल पक कर सफेद हो जाते हैं, वे ही बा आगे चलकर माँ में बदल जाती हैं। बचपन में मैं अकसर सोचा करती थी कि मैं अपनी बा को माँ कब कहूँगी?उनके बाल सफेद होने पर तो मुझे उन्हें माँ कहना ही होगा। कब होंगे उनके बाल सफेद और कब कहूँगी मैं उन्हें माँ? क्योंकि मुझे बा केबजाय माँ कहना ज्यादा अच्छा लगता था। उस समय मेंहँदी लगाने का फैशन या रिवाज नहीं था, तो एक न एक दिन तो बाल सफेद होने ही थे। बस मैं बा के बाल सफेद होने का इंतजार करने लगी थी और ये इंतजार आज भी आँखों में समाया हुआ है क्योंकि बा अपने काले बालों के साथ ही इस दुनिया से विदा हो गई थी। तब एक बार फिर याद आई थी, उस अमरूद के पेड़ की। जिसकी शाखें मुझे सहारा देती थीं। मन करता था कि उसकी शाख पर बैठकर उससे लिपटकर रोऊँ। पेड़ की सारी पत्तियाँ प्यारी सहेलियाँ बनकर मुझे साँत्वना दें। कहीं से एक अमरूद टपककर मेरी गोद में आ गिरे और कहे कि चिंता क्यों करती हो, मैं हूँ ना। मगर अफसोस समय की आरी से पड़ोस में लगा वो अमरूद का पेड़ कट चुका था। बचपन जा चुका था।
आज दो बच्चों की माँ बनकर यादों के उस बियाबान में जाती हूँ, तो लगता है कि कितना मासूम था, मेरा बचपन। मेरा ही क्या सबका बचपन बहुत ही मासूम होता है। इस मासूम बचपन की बातें भी बहुत ही मासूम होती हैं। पहले के उस मासूम बचपन में बहुत से सजीव पात्र होते थे। आज का बचपन मासूम नहीं है, उसके पात्र भी सजीव नहीं हैं। यदि हैं भी, तो वह सजीवता नहीं है, जो हमारे बचपन की मासूमियत में थे। अब तो यही कह सकती हूँ कि सबका बचपन बचा रहे, मासूमियत बची रहे और बची रहें यादें….यादें…. और केवल यादें….। यादों की इसी गुनगुन को सुनिए ऑडियो की मदद से...
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दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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