गुरुवार, 14 अप्रैल 2016
कहानी - बच्चा - ज्ञानप्रकाश विवेक
कहानी का कुछ अंश...
अचानक जाली वाला दरवाज़ा खुला। एक बच्चे ने दरवाज़े को आधा खोलते हुए और उसमें से अपने चेहरे को निकालते हुए मुझे देखा। मुझे देखकर मुस्कराया। मैंने उसे देखा। हैरान होकर देखा। लेकिन वह मुस्कराया, तो मैं भी मुस्कराया। वैसे मुस्कराने जैसा मेरे पास कुछ था नहीं। फिर भी मैं मुस्कराया। शायद बच्चे को देखकर। फिर वह झीनी-सी मुस्कान लोप हो गई। हैरान रह गई। मेरी हैरानी समझदार थी। सयानी भी। उस बच्चे की मुस्कान मासूम थी। मैं कुछ कहता कि वह बड़ी प्यारी-सी आवाज़ में बोला, "हम आ जाएँ?" जैसे घंटियाँ-सी बज उठी हों। उसके इस छोटे-से प्रश्न में कशिश थी, संगीत था, आदाब था। वह अंदर आने के लिए पूछ रहा था। आज्ञा ले रहा था। लेकिन उसने आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं की। शर्माता-लजाता, छोटे-छोटे कदम रखता कमरे में चला आया था। उसकी आँखों में कुतूहल था। अजनबीयत का अहसास और थोड़ा-सा भय। वह आहिस्ता से चलता हुआ आया। मुझे देखता-सा। दीवारों को देखता-सा। शेल्फ़, घड़ी, दरवाज़े, किताबें सबको देखता-सा। शायद इनमें किसी को भी न देखता-सा। सिर्फ़ अपनी दुनिया - अपने बचपन की सतरंगी दुनिया के साथ चलता-सा।
वह मेरे सामने वाले सोफ़े पर थोड़ा टिक-सा गया। उसे बैठना नहीं कहेंगे। शायद पराए घरों में अजनबी बच्चे इसी तरह बैठते हों।
वह मुझे देखने लगा- शर्माते हुए। मुस्कराते हुए। मैंने कहा, "बेटे आराम से बैठ जाओ।"
"बैठा हुआ तो हूँ।" उसने मेरी ग़लती में सुधार किया। उसके वाक्य में बालसुलभ कॉन्फिडेंस था। लेकिन अपनी बात कहकर वह तुरंत उठ खड़ा हुआ। बोला, "देखो, अंकल, अब खड़ा हूँ। और अब. . ." पुन: बैठते हुए बोला, "अब बैठ गया। बैठ गया न?" उसने मेरा समर्थन चाहा।
मैंने 'हाँ' में सिर हिलाया। कुछ क्षण यों ही गुज़र गए। इस बीच वह कई बार मुस्कराया। शायद उसका मुस्कराना कोई संवाद हो। या फिर मुस्करा इसलिए रहा हो कि चुप रहने से मुस्कराने की स्थिति बेहतर हो। या फिर इसलिए कि मुस्कराते हुए वह दोस्ती का माहौल पैदा करना चाहता हो।
मेरी चुप से उसकी मुस्कान टकराती रही। मेरी चुप हारती रही। एक बच्चे की मुस्कान की ताक़त का अहसास मुझे हो रहा था। मैंने मुस्कराने की कोशिश की।
मैं बहुत कम हँसता हूँ। मुस्कराता भी कम ही हूँ। हमेशा संजीदा। सोच में मुब्तिला। परीशाँ-परीशाँ। ग़मगीन। मेरे दोस्त कहते हैं कि मैं अपनी ज़िंदगी की मुस्कान गिरवी रख चुका हूँ। पता नहीं यह जुमला है या मेरी ज़िंदगी का सच। पर मेरी ज़िंदगी का सच कुछ और है। मुझे लगता है, चुटकुलों की सारी किताबें पुरानी पड़ चुकी हैं। यह वह नामाकूल दौर है, जिसमें लतीफ़ेबाज़ जब मिलते हैं, तो बा-चश्मेनम मिलते हैं।
मुझे लगा, बच्चे से कुछ बोलना चाहिए। क्या बोलूँ? वही पुराना ढर्रा। बच्चे से बातचीत करनी हो, तो सबसे पहले उससे उसका नाम पूछो। फिर पापा का नाम। फिर पोयम, स्कूल, फ्रेंडस।
मैंने पूछा, "बेटे, आपका नाम क्या है?"
"गुद बॉय!" उसने कहा।
"गुड बॉय?"
"हाँ, गुद बॉय!"
"गुड बॉय कोई नाम होता है?" मैंने सवाल किया।
"तो क्या बैद बॉय नाम होता है?" उसने कहा। उसका तर्क़ वाजिब था। मैं हँस पड़ा। मुझे हँसते देख वह भी हँसने लगा। वह चाहता था कि मैं हँसू। न हँसता हुआ मैं शायद उसे डरावना लगता था। हँसता हुआ मैं शायद उसे उस तरह का लग रहा था, जिस तरह का वह चाहता था। आगे की कहानी जानने के लिए इसे ऑडियो के माध्यम से सुनिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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