बुधवार, 20 अप्रैल 2016
कहानी - लाइन - डॉ. अपर्णा शर्मा
कहानी का कुछ अंश...
फोन बिल के काउण्टर पर पुरुषों की लम्बी कतार थी। अभी सुबह के दस ही बजे थे यह महिलाओं की घरेलू व्यस्तता का समय था। अतः महिला कतार में केवल चार महिलाएं थी। नम्बर तीन व चार की महिलाएं अभी आकर कतार में लगी थी। तीन नम्बर महिला हाँफ रही थी। लगता था वह थोड़ी दूर से पैदल चलकर आई है। उम्र चालीस के करीब और शरीर इस उम्र की आम हिन्दुस्तानी महिलाओं जैसा थुलथुल। चेहरा मेकअप से पुता परन्तु आँखें निस्तेज। वह गहरी सांस ले रही थी। लगता था मुटापे का कुटुम्बी रक्तचाप उन्हें मुटापे के साथ मिल चुका था और दिल का रोग दरवाजे पर दस्तखत दे रहा था। ऐसा इसीलिए क्योंकि वह गहरी सांस लेते हुए सीने पर हाथ भी रख रही थी। बैग से बोतल निकाल कर उसने थोड़ा पानी पिया। तभी उसके मोबाइल की घंटी बज उठी। बैग से मोबाइल निकाल कर वह धीमी आवाज में बातें करने लगी। फोन संभवतः उसकी किसी सखी का था जो शायद आस-पास के इलाके में ही रहती थी। वह फोन पर उसे आश्वासन दे रही थी कि वह शीघ्र ही उसके यहाँ पहुँच जाएगी। सखी अधिक कुछ न करे। उसे केवल एक कप चाय पीकर चले जाना है। बच्चों के स्कूल से लौटने से पहले लंच तैयार करना है। समय का अभाव होने पर भी उनकी बातें काफी देर तक चलती रही। इस बातचीत से आस-पास के लोग जान गए कि उसका नाम निशा है और इनके बच्चे शहर के सबसे महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ते है।
निशा ने जब मोबाइल बैग में रखा तब एक नम्बर वाली महिला बिल जमा करने की कोशिश कर रही थी। निशा के चेहरे पर संतोष की झलक दिखाई पड़ी। शायद वह आश्वस्त हो गई थी कि अब कुछ ही मिनटों में उसका नम्बर आ जायगा। निशा ने एक नजर सामने लगी घड़ी पर डाली। एक के बाद एक बिल जमा होते रहे। परन्तु एक नम्बर महिला हाथ में बिल थामे खड़ी रही। उसने कई बार बिल आगे बढ़ाया पर क्लर्क ने उसकी ओर कोई ध्यान न दिया। वह बराबर पुरुष लाइन से बिल पकड़ता और जमा करता रहा। निशा महिला को बिल जमा करने को बराबर उकसाती रही। वह प्रयास भी कर रही थी। पर सफलता नहीं मिल रही थी। निशा के लिए फिर एक फोन काल आ गई। वह दूसरी ओर मुँह घुमाकर आवाज धीमी रखने की कोशिश करते हुए बातें करने लगी। जो शायद संभव नहीं था। बीच-बीच में उसकी ऊँची होती आवाज काउण्टर बाबू के काम में बाधा डाल रही थी। आखिर उसने ऊँची आवाज में बोल ही दिया- “मेहरबानी करके जरा दूर जाकर बात करें।”
बातों का सिलसिला इस बार भी लम्बा चला। निशा के हाव-भाव से और बीच-बीच में ऊँची होती आवाज से साफ पता चल रहा था कि उसकी अपने पति से किसी मुद्दे पर बहस चल रही है। खैर निशा का मोबाइल बैग में गया। उसने पानी की बोतल निकाल कर फिर कुछ घूंट गटके। बोतल बैग में रख रूमाल से थपथपाते हुए पसीना पोछती वह फिर लाइन में आ लगी। अब तक एक नम्बर महिला बिल जमा कर जा चुकी थी। दो नम्बर ने बिल के साथ अपना हाथ खिड़की में डाला हुआ था। निशा ने भी बैग से बिल निकाला और पर्स से पैसे निकाल कर गिने। वे पूरे थे। निशा ने बिल और पैसों को हाथ में मजबूती से पकड़ा और काउण्टर की खिड़की में हाथ डालने की कोशिश करने लगी। वहाँ पहले ही कई हाथ मौजूद थे। निशा का प्रयास व्यर्थ रहा। तब उसने अपना हाथ अपने आगे वाली महिला के हाथ से आगे बढ़ाने का प्रयास किया। परन्तु उसके विरोध के कारण वहाँ से भी हाथ पीछे खींचना पड़ा। बिल लगातार जमा होते रहे और दोनों महिलाएं खिड़की पर झुकी अपनी बारी का इंतजार करती रहीं। शुरू में एक दूसरे को घूरकर देखने वाली इन दोनों महिलाओं में अब कुछ आत्मीय बातचीत होने लगी थी। उनमें कुछ देर के लिए बहनापा सा आ गया था। समान हालातों से जन्मी हमदर्दी धीरे-धीरे संवाद में तब्दील होने लगी। बीच-बीच में वे बाबू से कभी नर्म, कभी गर्म भाषा में बिल जमा करने को कह रही थी। परन्तु लगता था काउण्टर बाबू की वार्णेद्रिय काम नहीं कर रही थी। वे नजर उठाकर किसी को देख भी नहीं रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में केवल उनका हाथ स्वचालित यंत्र सा पुरुष लाइन की ओर बढ़ता, बिल लेता, जमा करता और रसीद थमा देता। इसका कारण पुरुष लाइन का उनके सीधे हाथ पर होने से बिल लेने में सुविधाजनक होना था या वे अपनी पत्नी से ख़फ़ा होकर आए थे या उनके पड़ौसी की पत्नी बाहरी कार्य बखूबी निबटा लेती थी और उनकी नहीं कर पाती थी अथवा इन सब सामान्य कारणों से भिन्न ही कोई गम्भीर ठोस कारण, नारी विमर्श के इस युग में पुरुष विमर्श खड़ा करने जैसा कोई जज़्बा। ख़ैर कारण जो भी हो पुरुष लाइन तेजी से छोटी हो रही थी और महिला लाइन में एक गई, तीन आई थीं। इस बार जब बाबू ने हाथ पुरुष लाइन की ओर बढ़ाया तो आगे वाली महिला से न रहा गया। उसने हाथ बढ़ाते हुए बोल ही दिया- “इधर की लाइन से बिल नहीं लेना था तो लाइन लगवाई ही क्यों है?” खिड़की की ओर लम्बे होकर फैले दो पुरुष हाथ सहमकर जरा पीछे सरके तो दो नम्बर महिला ने तुरंत अपना बिल आगे बढ़ा दिया। बाबू ने कुछ नाराजगी से पल भर को उसे देखा और- “लाइए।” की एक रूखी सी झिड़की के साथ बिल और पैसे उसके हाथ से ले लिए। बिल जमा हो गया। महिला अस्पष्ट सा कुछ बोलती और निशा की ओर हमदर्दी से देखते हुए चली गई। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लें...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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