शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

कहानी - मुझे आधार नहीं चाहिए

माया ने जैसे ही अपने घर में प्रवेश किया, उसे चहचहाता हुआ घर बिलकुल शांत लगा। न तो स्वागत करने के लिए दीपा सामने आई और न ही बाबूजी दिखाई दिए और न ही माँ ने उसके हाथ से पर्स लिया। वह समझ नहीं सकी कि ऐसा क्यों हुआ। बाबूजी की तबियत दो दिन से थोडी ढीली थी। कहीं ज्यादा खराब तो नहीं हो गई होगी। आज शाम को वह उन्हें डॉक्टर के पास ले जाएगी। उसने मन ही मन ये निर्णय कर लिया था। कपड़े बदलकर जैसे ही वह बाहर आई कि दीपा सामने आ गई। उसने उसके हाथ में एक पत्र रख दिया। वह पत्र खुला हुआ था। अर्थात पत्र पढ़ा जा चुका है। तो यही है इन सभी की चुप्पी का राज। उसने पत्र की लिखावट देखी और उसके साथ ही अतीत में खो गई। वो अतीत जिसे उसने इन दो सालों में भूला दिया था, वह एक बार फिर उसे गुदगुदा रहा था। लेकिन उसे महसूस न करते हुए वह तो अपना निर्णय ले चुकी थी। क्या था उस पत्र में, जो उसे अतीत की ओर ले गया, क्या था वह निर्णय जो उसे डिगा भी नहीं सका, क्या था एेसा जो घर के सभी सदस्य चुप थे, इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए सुनिए भारती परिमल की कहानी - मुझे आधार नहीं चाहिए...

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