सोमवार, 4 अप्रैल 2016
राधा की पुकार...
दिन बीते, महीने बीते। साल बीते, सदियाँ बीती और देखते ही देखते युग बीत गया। लेकिन मेरे मन मंदिर में आज भी तुम्हारी स्मृतियों का दीपक जल रहा है। उसकी लौ अभी भी कम नहीं हुई है। उसी आलोक से आलोकित मैं कण-कण में तुम्हारी कल्पनीय छवि निहार रही हूँ और हृदय से तुम्हें पुकार रही हूँ। आ जाओ कान्हा, तुम्हारी राधा तुम्हें सशरीर देखने को व्याकुल है।
तुम्हें तो कदाचित स्मरण भी न होगा कि एक बार मैं तुमसे केवल इस बात पर ही रूठ गई थी कि तुमने मयूर पंख को तो सिर पर धारण किया और मेरा कोई मोल न किया। रूठने के हर क्षण में मैंने तुम्हारा वियोग सहा है। तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान ने मेरी क्रोधाग्नि को तीव्र कर दिया था और कदम्ब की जिस डाल से मैं तुम्हें मारने दौड़ी थी आज वो सूखी डाल तुम्हें पुकार रही है।
गोकुल की गलियों में गूँज रही है तुम्हारी आवाज... मैया..मैया की पुकार। रूको... रूको, केवल मैया... मैया की पुकार ही नहीं कुछ और भी सुनाई दे रहा है। ध्यान से सुनने दो...। हाँ कान्हा, इसमें कुछ और भी आवाजें हैं - नंदबाबा, बलदाऊ, गोप-गोपियाँ और सखाओं की आवाजें...। इन सभी के साथ की गई बातों और अठखेलियों की लड़ियाँ मानों सदियों पहले आकाश में उछाल दी गई हों और आज इतने समय बाद वे धीरे-धीरे धरती पर गिर रही हैं। इन लड़ियों के सारे मोती धागे से अलग होकर गोकुल की माटी में यहाँ-वहाँ बिखर गए हैं। बीती बातों के ये सुनहरे मोती तुम्हें पुकार रहे हैं।
पत्तों की सरसराहट, बहती हवा के झौंके, बारिश की बूँदे, पंछियों का कलरव, तितलियों और भ्रमरों का गंुजन, कलियों और फूलों का स्पंदन, गोधूलि बेला में दोड़ती-भागती गायों और बछड़ों की लम्बी कतारंे, कालिन्दी का कल-कल बहता जल, कदम्ब की एक-एक डाल, गोपियों के सिर पर रखी मटकी, हर घर के सींके पर रखा दूध-दही और माखन, गायों को हाँकने के लिए साथ ले जानेवाली लकुटी, मुँडेर पर बैठा कौआ और तुम्हारा लाड़ला गोपसखा...किस किस का नाम लूँ कान्हा? कण-कण तुम्हें पुकार रहा है। सुनिए राधा की पुकार...
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