गुरुवार, 21 अप्रैल 2016
कहानी - तबादला - अंकिता भार्गव
कहानी का कुछ अंश...
बानी का उतरा चेहरा देख कर मैं और उर्मिला समझ गए वह उदास है। उसकी उदासी का कारण था ऋषभ का तबादला। वह काफी संवेदनशील है, अपने हाथों से सजाया-संवारा घर संसार छोड़ कर दूसरे शहर चल देना उसके लिए सदा तकलीफदेह रहा है। वहीं तबादला सरकारी कर्मचारी के जीवन में बार बार घटने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है, यह भी मैं जानता था इसलिए ऋषभ को भी दोष नहीं दे सकता था।
वह मुझे चाय देने आई तो मैंने उसका सर हल्के थपक दिया, ”बानी बेटे ऐसे घबराते नहीं। तुम जानती हो कि ऋषभ नौकरी में तबादला होता रहता है। तुमने हमेशा इस समस्या का सामना हिम्मत से किया है, इस बार भी सब आसानी से हो जाएगा। हम हैं ना सब मिल कर संभाल लेंगे। देखना कोई मुश्किल नहीं आएगी। ऐसा करो तुम ऋषभ के साथ जोधपुर चली जाओ जाओ और घर की तलाश करो। बच्चों को यहां हमारे पास छोड़ जाओ। तब तक हम यहां थोड़ा थोड़ा करके सामान बांध लेंगे। जब तुम्हें लगे कि वहां सब व्यवस्था ठीक से हो गई है तो हमें फोन कर देना हम बच्चों और सामान के साथ चले आएंगे। क्यों ऋषभ ठीक है ना?“
”नहीं पापा मैं आप लोगों को यहां अकेला छोड़ कर नहीं जाऊंगा। एक तो आप लोगों की तबियत ठीक नहीं रहती, आपसे इतना काम भी नहीं होगा। फिर बच्चों इतने शैतान हैं कि हमारे ही काबू में नहीं आते, आप दोनों के तो ये नाक में दम कर देंगे। हम सब एकसाथ ही चलेंगे। मैंने विवेक को पहले ही मकान ढूंढने के लिए कह दिया था। उसने मकान देख लिया है बस हमें तो वहां जा कर सामान ही रखना है। कोई समस्या नहीं आएगी, मैं बता चुका हूं बानी को फिर भी पता नहीं क्यों रोनी सूरत बना कर बैठी है।“
”मेरी सभी सहेलियां यहीं छूट जाएंगी।“ बानी के आंसू आंखों की सीा पार कर गालों पर बिखरने लगे।
“क्यों छूट जाएंगी? इंटरनेट के जमाने में कोई किसी से दूर होता है भला, सोशल साइट पर उनसे हमेशा दोस्ती बनाए रखना। बल्कि जोधपुर में और नई दोस्त बनाना।”
”दादाजी पापा हमें शैतान कह रहे हैं। क्या हम आपको और दादी को परेशान करते हैं?“ मेरे पोते ध्रुव ने पूछा।
”नहीं मेरे बच्चों तुम लोग हमें कहां परेशान करते हो। तुम तो बस हमें अपने पीछे दौड़ाते हो।“ मैंने उसके गुस्से से फूले हुए गालों को सहला दिया।
”वाह, आज तो मां और बच्चे सभी, मुझसे दो दो हाथ करने के मूड में हैं।“ ऋषभ ने मजाकिया अंदाज में कहा तो गुमसुम बैठी बानी भी मुस्कुरा दी और घर का माहौल खुशनुमा हो गया।
जोधपुर में सबसे पहले हम ऋषभ के मित्र विवेक के घर गए। विवेक और उसकी पत्नि ने हमें रात को उनके घर पर ही आराम करने की आग्रह किया, किन्तु हमारी अनिच्छा देख उन्होंने हमें चाय नाश्ते के बाद घर दिखा दिया। घर अच्छा था, किन्तु काफी समय तक बंद रहने के कारण थोड़ी गंदगी फैली हुई थी। उस दिन सफर की थकान थी फिर रात भी काफी हो चली थी अतः घर की साफ सफाई का काम अगले दिन पर छोड़ हम सोने की तैयारी करने लगे। बानी ने एक कमरे में थोड़ी झाड़ पोंछ कर बिस्तर लगा दिए। खाना ऋषभ होटल से ले आया।
सुबह जब नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। साढ़े आठ बज रहे थे। सच में देर हो गई थी। थकान के कारण किसी भी नींद नहीं खुली। नए शहर की पहली सुबह अपने साथ समस्या लेकर आई, घर में पानी ही नहीं था। अपनी आदत से मजबूर बानी घबरा गई। उसे इस तरह घबराते देख ऋषभ को गुस्सा आ गया, उसने बानी को डांट दिया तो वह रोने जैसी हो गई। उर्मिला ने उसे और बानी को शांत किया। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए....
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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