बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

चिंतन :कौन परिवर्तनशील?


डॉ. महेश परिमल
कहा जाता है कि समय परिवर्तनशील है, पर देखा जाए तो हम समय से यादा परिवर्तनशील हैं। कब धार्मिक बन जाएँ, कब अधार्मिक, हम खुद नहीं जानते। घर से निकले किसी काम से, सामने बिल्ली ने रास्ता काट दिया। हमारे सामने अंधविश्वास था। हम ठहर गए, हमारा ही कोई साथी आगे बढ़ा। हमने सोचा- अपशकुन टल गया। हम भी आगे बढ़ गए। मन के अनुकूल काम हुआ या नहीं, नहीं मालूम, पर आते समय हम एक बिल्ली के आगे से गुजर कर उसका रास्ता काट गए। बदकिस्मती बिल्ली की वह एक कार के पहिए के नीचे आ गई। उसका प्राणांत हो गया।
अब वह बिल्ली अपनी क्षत-विक्षत अवस्था में सड़क पर पड़ी है। बदबू फैला रही है। हमने अपनी जागरूकता का परिचय देना चाहा, चलो कुछ करे। बिल्ली के अंग को ही समेट कर फेंक दें। हम जागरूक नहीं हो पाए, अलबत्ता पार्षद से कह आए। हम पार्षद के आश्वासन से लदे हुए थे। बिल्ली के अंग नहीं हट पाए। हाँ, कौवे, कुत्ते कभी-कभी वहाँ दिख जाते। वातावरण दूषित होता देख हमने नगर निगम फोन कर पुन: अपनी जागरूकता का परिचय दिया। वहाँ जिसने फोन उठाया, वह उस विभाग का कर्मचारी नहीं था, फिर भी उसने पूरी बात सुनी और संबंधित कर्मचारी को बताने का आश्वासन दिया।
इधर बिल्ली के अंग कम होते जा रहे थे और दुर्गंध बढ़ती जा रही थी। समस्या वहीं के वहीं थी। फिर हम सबने एक साथ जागरूक होने का परिचय दिया। चंदा किया, जमादार को बुलवाया, उससे विनती की, हाथ जोड़े, उसने रुपए लिए और उस जगह को साफ कर दिया। जगह साफ हो गई और हमारा हृदय भी साफ हो गया। अब गंदे और बदबूदार विचार भी आने बंद हो गए।
सोचता हूँ कि बिल्ली को मरना था। हमने रास्ता काटा और वह चल बसी, पर उसके साथ-साथ हमारी मान्यताएँ और परंपराएँ भी क्या चल बसी, जो हमें माता-पिता और समाज से संस्कार के रूप में मिली थीं? रास्ते चलते हुए मंदिर दिखा, तो झट से सर झुकाया, पर बिल्ली मरी हुई देखी, तो मुँह फिराकर निकल गए। कहीं धार्मिक बने, तो कहीं अधार्मिक। हम अपना चेहरा कितनी जल्दी बदल लेते हैं, कभी सोचा आपने?
जब हम किसी से अपना काम करवाना चाहते हैं, तब उससे विनती करते हैं कि नियम-कायदों में जरा ढील दे दो, पर जब वही व्यक्ति हमारे पास किसी काम से आता है, तब हम नियम-कायदों के प्रति और सख्त हो जाते हैं। ऐसा कैसे कर लेते हैं हम? यहाँ हम स्वयं ही यह नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं?
घर के सामने कोई समस्या हो, मोहल्ले की कोई समस्या हो, समाज की, शहर की कोई समस्या हो, तो हम उसे अनदेखा तब तक करते रहते हैं, जब तक वह खुद की समस्या नहीं बन जाती। अब जब समस्या गले पड़ ही गई, तो उसका समाधान तो ढूँढना ही है। तब तो वही समस्या हमारे लिए बहुत बड़ी हो जाती है। आखिर क्यों न हो, उसका असर हमारे परिवार पर पड़ेगा भई। तो जनाब क्या पहले जब वह समस्या देश और समाज की थी, तब आपकी नहीं थी? बदल लिया न अपना चेहरा? सच-सच बताना कितने चेहरे हैं आपके? प्रश्न तो अभी भी उठ रहे हैं कि -
- क्या आप सामाजिक प्राणी नहीं हैं?
- क्या आप समाज से अलग रहना पसंद करते हैं?
- क्या आपका अपना अलग ही समाज और राष्ट्र है?
- क्या आपका हित समाज और राष्ट्र के हित से बड़ा है?
अगर ये सब गलत है, तो उठिए और हर समस्या का समाधान ढूँढिए और एक अच्छे नागरिक होने का सुबूत दीजिए। यही आपकार् कत्तव्य है।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. Sahi baat hai aapki, ek chehre pe kai chehre laga lete hain log.... Har aadmi apni jimmedari samjhane lage aur samasyaon ka samadhan khojne lage to phir ve rahengi hi kahan? Kaash aisa kuchh ho.

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  2. बहुत सुंदर लेख है. हम अपनी सुविधा के हिसाब से बदलते रहते हैं. बातों को अपनी सुविधा के हिसाब मानते हैं. असल में मुखौटे लिए घूम रहे हैं हम.

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