मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

अब होगा ईमानदार डॉक्टरों का अकाल


डॉ. महेश परिमल
आज आम शिकायत यही है कि डॉक्टर अब मरीजों को लूटने लगे हैं। सच भी है आजकल डॉक्टरों के भाव बढ़े हुए हैं, उनकी मानवीयता मर गई है। अब तो ऐसी घटनाएँ आम होने लगी हैं कि इलाज के दौरान मरीज का यदि देहांत हो गया, तो जब तक उसके इलाज में हुए खर्च का भुगतान न हो जाए, तब तक लाश उसके परिजनों को नहीं सौंपी जाती, जिससे मृतक के परिजन अस्पताल में हंगामा और तोड़फोड़ करने लगे हैं। आए दिनों इस आशय के समाचार अखबारों में पढ़ने को मिल रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच आज के डॉक्टरों में मानवता नाम की कोई चीज नहीं रह गई है? इसे मरीजों की दृष्टि से सोचा जाए, तो निश्चित रूप से डॉक्टर ही दोषी होंगे, यदि इसे डॉक्टरों के नजरिए से सोचा जाए, तो स्पष्ट होगा कि इसमें डॉक्टरों से अधिक सरकार की नीतियों का दोष है। अब भला 25 लाख रुपए खर्च करके कोई युवा डॉक्टर की डिग्री हासिल करता है, तो उससे किस तरह से किसी सेवा की अपेक्षा रखी जाएगी। आखिर उसके पालकों ने किस तरह से उसकी पढ़ाई के लिए 25 लाख रुपए जुटाए होंगे? खेत, जमीन, घर, गहने बेचकर यदि अपने बच्चे के लिए धन जुटाए, तब पालकों की भी यही आशा होती है कि अब उनका पुत्र कुछ कमाए। ऐसे में उस पुत्र से सेवा की तो आशा की ही नहीं जा सकती। निश्चित रूप से अभी-अभी नया-नया बना डॉक्टर अपने पेशे के प्रति ईमानदार तो नहीं रह सकता।
कोल्हापुर में रहने वाले सुनील पाटिल के पिता डॉक्टर बनकर समाज की सेवा कर रहे हैं। सुनील की इच्छा थी कि वह भी पिता के पदचिह्नों पर चले, इसके लिए उसने निजी मेडिकल कॉलेज द्वारा लिए जाने वाले कामन इंट्रेस्ट टेस्ट (सीईटी) की परीक्षा में शामिल हुआ। इस परीक्षा में उसने 84 प्रतिशत अंक प्राप्त किए । उसे उसकी पसंद की कॉलेज काशीबाई नवले मेडिकल कॉलेज में प्रवेश भी मिल गया। पुणे की उस निजी मेडिकल कॉलेज चलाने वाली संस्था में उसने दो लाख 20 हजार रुपए जमा भी करा दिए। एक सप्ताह बाद ही उसके पास कॉलेज का पत्र आया, जिसमें यह जानकारी दी गई कि कॉलेज की फीस बढ़ाकर 4 लाख 40 हजार कर दी गई है, अतएव 2.2 लाख रुपए और तत्काल जमा नहीं किए गए, तो उसका एडमिशन रद्द माना जाएगा।
पाटिल परिवार पर मानों दु:ख का पहाड़ ही टूट पड़ा, डॉक्टर पिता की हैसियत इतनी नहीं थी कि अपने बच्चे के लिए एक बार सवा दो लाख रुपए इकट्ठे करें। स्थिति यह हो गई कि पूरे पाँच वर्ष में उन्हें 11 लाख के बजाए 22 लाख रुपए केवल फीस के रूप में दिए जाने हैं। इस बारे में सुनील का कहना था कि वह काशीबाई नवले कॉलेज के बजाए किसी ऐसे कॉलेज में प्रवेश ले लेगा, जिसकी फीस कम हो। इस पर प्राइवेट मेडिकल कॉलेज एसोसिएशन द्वारा उसे कहा गया कि सुनील ने चूँकि 84 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, इसलिए उसे किसी दूसरे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलेगा, क्योंकि यह मेरिट के सिद्धांत के खिलाफ है। सुनील के पास अब केवल दो रास्ते ही बचे थे, या तो वह पाँच वर्ष में 11 लाख रुपए और खर्च करने के लिए तैयार रहे, या डॉक्टर बनने का विचार ही त्याग दे। निजी मेडिकल कॉलेजों की इस मनमानी के खिलाफ उसने मुम्बई हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए माँग की है कि कॉलेज में प्रवेश के समय जो फीस तय की गई है, उसमें फेरफार करने की छूट कॉलेजों को नहीं देनी चाहिए।

यह व्यथा केवल सुनील की ही नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र के निजी मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन लेने वाले कई विद्यार्थ्ाियों की है । सरकारी मेडिकल कॉलेज आरक्षण के कारण और सीटें कम होने के कारण बहुत ही कम छात्रों को प्रवेश दे पाते हैं, इसलिए निजी मेडिकल कॉलेजों की बन आती है। इस वर्ष करीब दो हजार विद्यार्थ्ाियों ने निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था, इन कॉलेजों ने अपने ब्रोशर में जो फीस निर्धारित की थी, उसके आधार पर सैकड़ों विद्यार्थ्ाियों ने निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था। इसी बीच हाईकोर्ट का यह फैसला आया कि निजी मेडिकल कॉलेजों को बढ़ी हुई फीस ले सकते हैं, इसे आधार बनाकर प्रदेश की दस में से छह निजी मेडिकल कॉलेजों ने अपनी फीस बढ़ा दी, जिससे सैकड़ों विद्यार्थ्ाियों के सामने मुश्किल आ पड़ी।
निजी मेडिकल कॉलेजों को मानों विद्यार्थ्ाियों से अधिक से अधिक फीस लेने का लाइसेंस ही मिल गया। वे खुले रूप में लूट करने लगे। महाराष्ट्र में इन कॉलेजों को इस तरह की मनमानी करने का भी एक इतिहास है। हुआ यूँ कि सन 2002 में महाराष्ट्र की तमाम निजी मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटे सरकार के कोटे से भरनी पड़ती थी, शेष 50 प्रतिशत सीटें मैनेजमेंट कोटे की होती थी। इसकी फीस सरकार निर्धारित करती। सरकार के कोटै में जो 50 प्रतिशत सीटें होती थीं, उसकी फीस सरकारी मेडिकल कॉलेजों के समकक्ष होती थी। इससे गरीब और मध्यम वर्ग के विद्याथयों को भारी राहत मिल जाती थी। इस वाजिब फीस के कारण कॉलेज के संचालकों को जो नुसान होता था उसे मैनेजमेंट कोटे की 50 प्रतिशत सीटों की फीस से भरपाई कर ली जाती थी। निजी मेडिकल कॉलेजों को यह रास नहीं आया, क्याेंकि उन्हें तो नफाखोरी करनी थी। इसके लिए कॉलेज के संचालक सुप्रीमकोर्ट गए और फीस बढ़ाने की माँग की। सुप्रीमकोर्ट ने कॉलेज संचालकों की माँग मान ली, फलस्वरूप कॉलेजों ने अपनी फीस बढ़ाकर 3.8 लाख रुपए प्रतिवर्ष कर दी।
निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा इस तरह से फीस में जबर्दस्त रूप से की गई बढ़ोत्तरी विद्यार्थ्ाियों और पालकों के लिए किसी आघात से कम नहीं था। इस हालात को समझते हुए सुप्रीमकोर्ट के आदेश से जागीरदार समिति बनाई गई। इस समिति ने तय किया कि विभिन्न निजी मेडिकल कॉलेजों द्वारा दी जा रही सुविधाओं के आधार पर विद्यार्थ्ाियों से हर वर्ष 61 हजार रुपए से 1.41 लाख रुपए से अधिक फीस नहीं ले सकती। इस आदेश से केवल मुनाफा कमाने वाले निजी मेडिकल कॉलेज के संचालकों को मानो साँप सूँघ गया। वे चुप नहीं बैठे, उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की, हाईकोर्ट ने फीस तय करने के लिए एक बार फिर एक नई समिति बनाई, जिसका अध्यक्ष हाईकोर्ट के निवृत्तमान न्यायाधीश पी.एस.पाटणकर थे। इस समिति की स्थापना सन 2003 में की गई।
जस्टिस पाटणकर समिति के सामने कॉलेज के संचालकों ने अपने खर्चों को बढ़ाचढ़ाकर बताए। कॉलेज भवन का किराया अधिक बताया, इसके अलावा कॉलेज जिस अस्पताल के साथ संलग्न होते, उस अस्पताल के कई खर्चों को अपने खर्च में शामिल कर दिया, जैसे अस्पताल की नर्सों का वेतन, अखबारों में दिए गए विज्ञापनों के बाद कॉलेज के खिलाफ की जाने वाले तमाम याचिकाओं के कानूनी खर्च भी अपने खर्च में शामिल कर दिए। इस चालाकी की जानकारी जस्टिस पाटणकर को नहीं थी, इसलिए उन्होंने निजी मेडिकल कॉलेजों को फीस बढ़ाने की अनुमति दे दी।
इसके बाद निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालकों ने कॉलेज की फीस में जमकर वृदधि की। विद्यार्थ्ाियों और पालकों द्वारा जब इसका विरोध किया गया, तब जस्टिस पाटणकर को खयाल आया कि उनके द्वारा फीस बढ़ाए जाने की सिफारिश करना गलत कदम था। एक छात्र ने श्री पाटणकर के पास आकर कहा कि फीस बढ़ाए जाने की खबर सुनकर उनके पिता को हार्ट अटैक आ गया। पिछले वर्ष तो इन निजी मेडिकल कॉलेजों ने घटी हुई दर पर फीस ली, किंतु पीछे से उन्होंने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई एक साल बाद इस वर्ष की 24 जुलाई को हुई। अपने फैसले में हाईकोर्ट ने 60 प्रतिशत फीस घटाने की जस्टिस पाटणकर समिति के आदेश के खिलाफ निषेधाज्ञा जारी की। यह फैसला जब आया, तब तक वर्ष 2008-2009 के लिए प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो गई थी और 60 प्रतिशत कटौती के अनुसार ही फीस वसूल की गई, किंतु हाईकोर्ट का फैसला आते ही तमाम निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालकों ने विद्यार्थ्ाियों को फीस की शेष राशि जमा करने के लिए सर्कुलर भेज दिया। इसी कारण सुनील जैसे विद्यार्थी आफत में आ गए।
गुजरात और महाराष्ट्र में मेडिकल कॉलेज खोलना एक ऐसा धंधा माना जा रहा है, जिसमें बेशुमार दौलत है। महाराष्ट्र के अधिकांश दमदार नेता मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज चला रहे हैं। सकार की नीति भी कुछ खास व्यक्तियों को अनुमति देकर उन्हें उपकृत करने की है। सरकार की इस छूट का लाभ कॉलेज के संचालक खूब उठाते हैं और खुली लूट में शामिल हो जाते हैं।
अब आप ही बताएँ कि पूरे 25 लाख रुपए खर्च करके कोई डिग्री हासिल की जाए और उसके बाद किस तरह से सेवा कार्य किया जाए। इसी खर्च के एवज में डॉक्टर मरीजों से खूब धन लेता है, दवा कंपनियों का दलाल बन जाता है, साथ ही धन कमाने के लिए जो भी रास्ता मिलता है, उस पर चल पड़ता है। क्या नीति और क्या अनीति, उसके लिए सब बराबर है। अतएव यह कहा जा सकता है कि सरकार के संरक्षण में फल-फूल रहे मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज का धंधा बेशुमार दौलत का धंधा बन गया है। इससे स्पष्ट है कि भविष्य में यदि किसी को कोई ईमानदार डॉक्टर मिल जाए, तो इसे मरीज की किस्मत कहेंगे या फिर सरफिरा।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सही मुद्दा उठाया आपने और सत्य,तथ्य को प्रभावशाली रूप में सामने रखा है..
    इसे इसी तरह गंभीरता से उठाना चाहिए.नही तो असंख्य मेधावी क्षात्र जो लोगों की जान बचा सकते हैं,इससे वंचित रह जायेंगे और इस लाइन की पढ़ाई से कतरायेंगे.

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