शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

टूटती सीमाओं का उत्सव


डा. महेश परिमल
माँ, मैं तुम्हारे ही खून का एक अंश हूँ, तुम्हारी ही साँसे मुझे जीवन दे रही है। तुम्हारे जीवन से ही मेरे जीवन की डोर बँधी है। ये सच है कि अभी मेरे अंगो को समुचित आकार नहीं मिल है, पर ये तुम्हारे ही शरीर का एक अंश है। मैं तुम्हारी कोख को सार्थक करने, तुम्हें एक नई पहचान देने तुम्हारे पास आऊँगी। मैं इस धरती पर आना चाहती हूँ, तुम्हारी गोद में आना चाहती हूँ, मुझे आने दो ना। मुझे मत मारो, मुझे मत सताओ। देखो मुझे दर्द होता है, चुभती हैं ये सूइयाँ, ये तीखे धारदार औजार चुभते हैं मेरे कोमल अंगों पर... मुझे इनसे बचाओ.. इस तेज रोशनी से दूर मुझे इस ऍंधकार में ही रहने दो। यहाँ सुकून है, शांति है... इसे महसूसने दो। कुछ समय के इस अंधकार के बाद मेरे चारों ओर उजाला ही उजाला होगा। मैं जानती हूँ, मेरी नन्हीं मुस्कान तुम्हें भी खिलखिलाना सिखाएगी। तुम्हारे जीने की प्रेरणा बनेगी। मगर अभी तो मेरी ये सिसकारी सुनो माँ, मुझे मत मारो... मुझे मत मारो...। क्या ये अनसुनी चीखें.... सिसकारियाँ... प्रार्थनाएँ... हमारे देश के कई नर्सिंगहोम के दरों-दीवारों पर गूँजती हुई आपने कभी सुनी है?
ये एक अबोध, अजन्मे,नन्हें मासूम भ्रूण की पुकार है। यह जीना चाहता है, पर हममें से कई ऐसे हैं, जो इसकी अनसुनी चीखों को सुनना ही नहीं चाहते, इन्हें इस दुनिया में आने के पहले ही खत्म कर देना चाहते हैं। ये नहीं सोचते कि उस भ्रूण को अपनी कोख में रखने वाली माँ की माँ ने भी ऐसा ही सोचा होता, तो आज यह नौबत ही नहीं आती। आश्चर्य तो तब होता है, जब उस अबोध भू्रण को कोख में ही खत्म कर देने के इस काम में महिलाओं की ही भागीदारी अधिक होती है। एक माँ, एक डॉक्टर, एक नर्स, एक दाई और एक कामवाली बाई के रूप में। आखिर उस मासूम भ्रूण को आने का अवसर कैसे मिला। इन्हीं अवसरों का समय आ गया है, उत्सव के रूप में। इसी के साथ ही लोगों का घर से बाहर निकलने का सिलसिला भी शुरू हो गया है। फिर चाहे वह खरीदी के नाम पर हो, मंदिर जाने के नाम पर हो या फिर मिलने-जुलने के नाम पर हो। इन सभी के साथ शुरू हो गईं हैं कुछ गलत परंपराएँ। शालीन दिखने वाली इन परंपराओं के पीछे जो उद्देश्य हैं, वे आज समाज की सच्चाई बनकर विकृत रूप में हमारे सामने आ गए हैं। ये रूप भविष्य में अनसुनी चीखों का कारण बनते हैं। अनसुनी चीख का आशय उस स्थिति से है, जिसमें आज के युवा कुछ देर के लिए बहक जाते हैं, यही बहकना आगे चलकर एक अनसुनी चीख को जन्म देता है। माता-पिता शर्मसार हो जाते हैं, समाज कलंकित होता है और युवाओं का भविष्य अधर में लटक जाता है। समाज का यह रूप इतना भयावह है कि कहते हुए भी शर्म आती है। इसके लिए यदि पालक अभी से सजग न हुए, तो निश्चित रूप से जो पीढ़ी हमारे सामने आएगी, वह हमें कभी माफ नहीं करेगी, क्योंकि यह पीढ़ी इतनी बेशर्मी के साथ पेश होगी कि पालकों को जवाब देना ही मुश्किल हो जाएगा।

एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं, जिससे लगता है कि आज हमारा समाज कई क्षेत्रों में इतना आगे बढ़ गया है कि सर शर्म से झुक जाता है। केंद्र सकरार के स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन मंत्रालय से प्राप्त ऑंकड़ों के अनुसार देश में हर वर्ष 67 लाख गर्भपात होते हैं। इसमें से 57 लाख अवैध होते हैं। ये तो सरकारी ऑंकड़े हैं, पर इन ऑंकड़ों को कोई सच नहीं मानेगा। वास्तव में जो ऑंकड़े हैं,वह तो चौंकाने वाले हैं। मुट्ठी भर रुपयों के लिए गर्भपात करने वाले कथित झोला छाप डॉक्टरों की हमारे देश में कमी नहीं है। इनके चंगुल में पड़कर न जाने कितनी कुमारिकाएँ मौत को प्राप्त होती हैं, इसके ऑंकड़े सरकार के पास नहीं हैं।
आज हम सब लगातार आधुनिक होते जा रहे हैं। इतने आधुनिक कि जब तक सास-बहू से जुड़े सवालों का जवाब टीवी पर नहीं ढूँढ़ लेते, हम सो नहीं पाते। बच्चे तो दिन में कौन-कौन-सा धारावाहिक देखते हैं, इसकी जानकारी पालकों को नहीं है। इस बुध्दू बक्से के माध्यम से विज्ञापनों और धारावाहिकों की भाषा ने युवा वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित किया है। विवाहेत्तर संबंध तो इन धारावाहिक में आम हो गया है। इस पूरा असर घर-परिवार पर दिखाई दे रहा है। फिर भी आधुनिक बनने के चक्कर में हम इसे अनदेखा कर रहे हैं। यहाँ तक कि युवा बिटिया का देर रात डगमगाते कदमों से घर पहुँचना भी पालकों को आश्चर्य में नहीं डालता। हम सोचते हैं कि हमने उन्हें संस्कार ही नहीं दिए हैं, पर ऐसा नहीं है, हमने इस पीढ़ी को अनदेखा किया है, यही कारण है कि अपने बच्चों को पथभ्रष्ट होते देखकर भी हम कुछ नहीं कर पाते।
अभी कुछ महीनों पहले ही अमेरिकी संसद में अवयस्क किशोरियों के गर्भपात को अवैधानिक बताते हुए उसके खिलाफ एक कानून बनाया है। किशोरियों के गर्भपात करने वाले या उसमें सहायक की भूमिका निभाने वालों को एक वर्ष की सख्त कैद और अदालत जो अर्थदंड तय करे, ऐसी संजा का प्रावधान इस कानून में है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका और यूरोप के दूसरे देशों में तो 12-13 वर्ष के किशोर-किशोरियाँ बेरोकटोक सेक्स का आनंद उठाते हैं। वहाँ तो एकल पालक की परंपरा भी है, माता या पिता में से किसी एक के सहारे बच्चे बड़े होते हैं, इस स्थिति में वहाँ अवैध रूप से होने वाले गर्भपातों की संख्या असीमित है। इसके बाद भी अमेरिका ने अवैध गर्भपात के खिलाफ एक कानून तो बनाया और उसे अपने 26 राज्यों में तत्काल लागू भी कर दिया। दूसरी ओर हमारे देश में जहाँ महिलाएँ उच्च पदों पर आसीन हैं, परोक्ष रूप से राजनीति में भी उच्च पद पर हैं, उसके बाद भी हमारे यहाँ ऐसा कोई कानून नहीं बना, जिसके आधार पर अवैध गर्भपात पर रोक लग सके। इस संबंध में यूनीसेफ का कहना है कि भारत में मात्र 15 प्रतिशत माताओं को ही समुचित चिकित्सा उपलब्ध हो पाती है। ग्रामीण अंचलों में तो 75 प्रतिशत प्रसूति दाइयों द्वारा घर पर ही की जा रही है। इन्हें तो यह भी नहीं पता कि सरकार द्वारा प्रसूति के लिए अस्पतालों में विशेष व्यवस्था की गई है। दरअसल हमारे देश में सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी खराब है कि वहाँ जाना याने मौत को बुलावा देना है। वहाँ की बदतर हालत के कारण ही निजी अस्पतालों की चाँदी हो रही है। जब स्वास्थ्य तंत्र अव्यवस्थित हो गया, तभी निजी अस्पताल वालों पौ-बारह हो गए।
देश की राजधानी दिल्ली में एक रिपोर्ट के अनुसार यहां गर्भ में ही भ्रूण की जाँच के लिए 1800 अल्ट्रासाउंड क्लिनीक पंजीकृत हैं, इसमें से केवल 700 क्लिनीक ही अपने कामों की रिपोर्ट सरकार को हर महीने देते हैं, बाकी के 1100 क्लिनीक खुलेआम भू्रण परीक्षण कर रहे हैं। यहाँ की मुख्यमंत्री भी एक महिला है, फिर भी इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा रहा है। सरकार को मालूम है कि इन क्लिनीकों में अवैध रूप से गर्भपात कराया जा रहा है, फिर भी इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है, इसके लिए किसे दोषी माना जाए? निश्चित रूप से कहीं न कहीं सरकार का ही कोई तंत्र इन्हें सहयोग कर रहा है।
इसके अलावा अवैध गर्भपात की दिशा में कई गैर सरकारी संस्थाएँ सक्रिय हैं, जिनके कार्य अतुलनीय हैं। इस तरह की संस्थाएँ सुदूर गाँवों में जाकर अवैध गर्भपात रोकने की दिशा में जागरुकता की अलख जगाई है। यह एक करुण सच्चाई है कि जो काम सरकार को कानूनन करना चाहिए, वह काम गैर सरकारी संस्थाएँ कर रहीं हैं। ग्रामों की स्थिति कितनी भी भयावह हो, पर उसे नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन शहरों की स्थिति बहुत ही खराब है। वहाँ तो आधुनिकता के नाम पर जो कुछ होता है, उससे पूरा समाज ही शर्मसार हो रहा है।
ंजरा उस मासूम की अनसुनी चीखों पर ंगौर करें। किस तरह से उसे एक भ्रूण के रूप में मारने की कोशिश होती है। आखिर उसका क्या दोष? इस दुनिया में आने के लिए वह स्वयं तो दोषी नहीं है? अपनी मर्जी से तो इस दुनिया में आने के लिए उसने कोई प्रयास तो नहीं किया? फिर क्यों उसे नश्तर, छुरी और न जाने किन-किन साधनों से मारने की कोशिश होती है। इन कोशिशों में वह कब कोख से डस्टबीन का रास्ता तय कर लेता है किसी को पता ही नहीं चलता। युवती अपना हल्का पेट देखकर और डॉक्टर अपनी जेब भारी देखकर खुश हो जाती है। खुन से लिपटा एक चिथड़ा, जिसने अपनी पूरी सांस भी नहीं ली, डस्टबीन में अपने अधखुले जीवन का अंत देखता रह जाता है। आनंद की परिणति इस तरह से भी हो सकती है, यह किसने सोचा? उस अबोध की अनसुनी चीखों को किसी ने सुनने की कोशिश की है?
आज युवा पीढ़ी इतनी उच्छृंखल हो गई है कि उन्हें अपने किए पर जरा भी पछतावा नहीं होता। उनके लिए तो सब कुछ मौज-मस्ती के साधन हैं। उन्हें अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके किसी कार्य से किसी को दु:ख पहुँचा या हानि पहुँची। युवक तो किसी तरह अपना पल्ला छुड़ाकर निकल जाते हैं, पर युवतियाँ उन युवाओं के झाँसे में आ जाती हैं। शिक्षा और सहूलियत के नाम पर पालक अपने बच्चों को मोबाइल से लेकरवाहन तक देते हैं, पर इस सबसे अधिक दुरुपयोग भी यही युवा करते हैं। अब इसे पालकों का दोष कहा जाए या जमाने का, जिसने उन युवाओं को ऐसा बनाया, जो अपनी जिम्मेदारियों को समझना ही नहीं चाहते। जब तक हमारे समाज में अनसुनी चीखें सुनाईै देती रहेंगी, तब तक न तो हमारा और न ही किसी समाज का भला नहीं होगा, यह तय है।
डा. महेश परिमल

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