सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

मुश्किल है मन के भ्रम को मिटाना


डॉ. महेश परिमल
कहा गया है मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कई बार देखा गया है कि बड़े-बड़े विवादों के मूल में सार तत्व कुछ भी नहीं रहता। उसमें रहता है केवल भ्रम और मिथ्या अहंकार। मन ही है जिसके भीतर भ्रम और अहंकार पनपते हैं। कोई लाख प्रयत्न कर ले, पर मन के भ्रम को मिटाना मुश्किल है।
प्रत्येक विचारवान मनुष्य के भीतर एक चंचल मन होता है। इसे जितना रोकना चाहो, वह उतना ही भागेगा। अगर उसे भाग जाने के लिए कहा जाएगा, तो वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाएगा। मन में ही उठते हैं विचार। विचारवान पुरुष जानबूझकर किसी का विरोध नहीं करता। यदि कोई जानबूझकर उसके सही विचारों का विरोध करता है, तो वह विचारवान नहीं हो सकता। ऐसा करके वह अपनी ही हानि करता है, ऐसा व्यक्ति क्षमा का पात्र है।
कई लोग दूसरों की बुराइयाँ करने में ही अपना समय व्यतीत कर देते हैं। ऐसे लोग कभी शांति से नहीं रहते। दूसरों की सही या गलत बुराइयों का सबके सामने बखान करके विवाद या तनाव बढ़ाकर कोई व्यक्ति न अपने जीवन में शांति पा सकता है और न ही दूसरे की शांति में सहायक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो अशांत रहेगा ही, दूसरों को भी अशांत करेगा। इसी में उसे जीवन के परम आनंद का सुख मिलता है।
दूसरी ओर ऐसा व्यक्ति हमेशा कहीं न कहीं उलझा रहता है। उलझे हुए आदमी के मन का स्तर सदैव गिरता रहता है। वह हमेशा बुरा सोचता है और बुरा कहता है। इस प्रकार वह निरंतर बुराइयों में लिपटा रहता है। उसकी आध्यात्मिक शक्ति क्षीण हो जाती है और वह पतित हो जाता है। याद रखें, आध्यात्मिक पतन सबसे बड़ा पतन है।
यह तो तय है कि हम दूसरे के मन की बात समझ नहीं सकते, पर उनके विचारों का सम्मान तो कर ही सकते हैं। दूसरों के विचारों को आदर देना बहुत बड़ी मानवता है। जो दूसरे की सुख-सुविधा के बारे में नहीं सोचता उसे कभी शांति नहीं मिल सकती। कोई शत्रु यदि चाहे, तो हमें आर्थिक या शारीरिक हानि ही पहुँचा सकता है, लेकिन यदि हमने लोगों की बुराई करने का एक सूत्रीय अभियान चला रखा है, तो हमारे दु:ख और बढ़ जाएँगे। शांति हमसे कोसों दूर हो जाएगी, क्योंकि दूसरों के लिए राग-द्वेष का भाव अपने मन में रखकर हम स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। हमारी हानि मन की अशुद्धि में है और लाभ मन की पवित्रता में। इस बात को ठीक से समझ लिया जाए, तो हमारी दृष्टि में कोई शत्रु नहीं होगा। सब मित्र होंगे।
अंत में केवल इतना ही कबीरदास जी कह गए हैं- सांचे श्रम न लागै, सांचे काल न खाय, सांच ही सांचा जो चलै, ताको काह नशाय। यह वचन विश्व नियम का महाकाव्य है। हमें चाहिए कि हम दूसरों पर संदेह करके अपने मन को खराब न करें, किन्तु अपने मन को साफ रखकर सच्चे मार्ग पर चलने का प्रयास करें।
डॉ. महेश परिमल

3 टिप्‍पणियां:

  1. अपने विचारों को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है।बधाई।

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  2. सहज सुंदर शब्दों में आपने गूढ़ तथ्यों को कह दिया,जिसपर चल व्यक्ति निश्चय ही सुख और शान्ति पा सकता है.
    साधुवाद...

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  3. सहज सुंदर शब्दों में आपने गूढ़ तथ्यों को कह दिया,जिसपर चल व्यक्ति निश्चय ही सुख और शान्ति पा सकता है.
    साधुवाद...

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