मंगलवार, 30 सितंबर 2008

क्या नेता कभी रिटायर नहीं होते?


डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव की आहट शुरू हो गई है, इसी के साथ झुर्रियों वाले कई चेहरों पर खिल गई है मुस्कान। अब वे सभी अपने आप को तैयार कर रहे हैं एक दमदार नेता के रूप में स्थापित करने के लिए। कई अपने भुले हुए मतदाताओं को याद करने में लगे हैं, तो कई अपने कार्र्यकत्ताओं को जमा कर रहे हैं। कुछ तो अपने चुनाव क्षेत्रों में हुए कामों की सूची बनाने में लगे हैं, तो कुछ नई तैयारी में लगे हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि एक सरकारी कर्मचारी 60 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाएगा, यह तय वे लोग करते हैं, जो 70-75 होने के बाद भी रिटायर नहीं हुए हैं। केवल राजनीति ही वह क्षेत्र है, जहाँ लोग औसत आयु पार करने के बाद भी जमे रहना चाहते हैं।
ऐसा केवल राजनीति में ही संभव है। हम सबने देखा होगा कि घर-परिवार में जब घर के मुखिया थोड़े अशक्त होने लगते हैं, तब बेटे उनसे कहते हैं पिताजी बहुत हो गया, अब आप आराम करें, हम सब मिलकर सारा काम कर लेंगे। बस आप हम पर अपनी छत्रछाया बनाएँ रखें, हमें आपके अनुभवों की आवश्यकता होते रहेगी। आप हमारा मार्गदर्शन करते रहें। इससे उस बाुर्ग को लगता है सचमुच मैं तो बूढ़ा हो गया, बेटे कब जिम्मेदार हो गए, पता ही नहीं चला। अब मुझे आराम के लिए कह रहे हैं। क्या सचमुच मेरी उम्र आराम के लायक हो गई? उसका सीना गर्व से भर उठता है। उसके हाथ आशीर्वाद के लिए उठ जाते हैं। लेकिन राजनीति में ऐसा कभी नहीं होता। एड़िया घिस जाती हैं, फिर भी इसका मोह भंग नहीं होता। हो भी नहीं सकता, यह एक नशा है, जो कभी नहीं उतरता।
आज यदि मनुष्य की औसत आयु 80 वर्ष मानी जाए, तो इसके 20-20 वर्ष के चार स्तर होते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए, तो हमारे देश के 80 प्रतिशत सांसद-विधायक वानप्रस्थ के लायक हो गए हैं। सवाल यह उठता है कि आज के नेताओं की औसत उम्र कितनी होनी चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री 70 के पार हैं, नेता विपक्ष लालकृष्ण आडवाणी भी 75 पार हैं, उनकी ऑंखों में प्रधानमंत्री बनने का सपना पल रहा है। हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा भी 70 पार कर चुके हैं, 83 वर्ष की उम्र में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक तरह से सेवानिवृत्ति का ही जीवन गाुार रहे हैं, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री 90 पार कर चुके हैं और अधिकांश रायों के रायपाल भी 70 पार कर चुके हैं। ये सभी वृध्द हो चुके हैं, यह सच है। इससे किसी को इंकार भी नहीं होगा। सभी के जीवन में संघ्या का आगमन होता है, पर मानव की परिपक्वता के साथ-साथ उनके अनुभव का खजाना भी तो भरता रहता है। लेकिन इसका लाभ सभी को नहीं मिल पाता। इसलिए कुछ बुद्धिजीवियों ने यह प्रश्न उठाया है कि सांसदों और विधायकों की भी सेवानिवृत्ति की उम्र तय होनी चाहिए। इनकी बात अनुचित भी नहीं है, पर भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह निर्मूल सिद्ध होती है कि नेता स्वयं कभी सेवानिवृत्ति लेते हैं।
कुछ तस्वीरें उभरकर आती हैं, कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई के एक सभागार में गद्दों और तकियों के सहारे बैठे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा खड़े हुए और कुछ कदम चलकर गिर पड़े, इसके बाद ऐसी ही एक सभा में काँग्रेसाध्यक्ष कमलापति त्रिपाठी खड़े होने के प्रयास में गिर पड़े। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में देवगौड़ा को कई बार ऊँघते हुए पाए गए। यही स्थिति आजकल मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह की है। इसकी क्लिपिंग जब टीवी पर दिखाई जाती है, तो हम सबका सर शर्म से झुक जाता है। आज जहाँ एक ओर कई युवा और उच्च शिक्षा प्राप्त सांसद बिना किसी जवाबदारी के संसद में अपनी शक्ति और समय को जाया कर रहे हैं। योतिरादित्य सिंधिया, राहुल गांधी, मिलिंद देवरा, सुचित्रा सूले, जैसे कई लोग हैं, जो इन बाुर्ग नेताओं से बेहतर जवाबदारी निभा सकते हैं। लेकिन हाशिए पर हैं। इन युवाओं में उमर अब्दुल्ला का नाम इसलिए नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि इन दिनों वे कठपुतली बनकर अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं।
इन बाुर्ग नेताओं के पक्ष में दलील देते हुए एक वर्ग का यह भी कहना है कि जब कोई व्यक्ति अपने व्यवसाय में 25-30 साल गाुार देता है, तो वह काफी अनुभवी हो जाता है। अपने अनुभवों का लाभ जब उसे मिलने लगता है, तब उसे काम से निवृत्त कर देना कहाँ की समझदारी है? आज कई निजी संस्थाओं में सेना एवं विभिन्न सरकारी क्षेत्रों के रिटायर्ड लोग अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इसका आशय यही हुआ कि सभी को इनकी योग्यता का लाभ मिलना चाहिए। यह दलील सच्ची अवश्य है, लेकिन व्यावहारिक बिलकुल नहीं है। निजी संस्थाओं में कर्मचारियों को अपने वेतन के एक-एक पैसे का लाभ अपने काम में देना होता है। हाल ही में आईपीएल मैच का ही उदाहरण ले लें, जिसमें अपेक्षाकृत परिणाम न दे पाने वाले खिलाड़ियों को तुरंत टीम से बाहर कर दिया गया था।
उधर सरकारी कार्यालयों का रवैया ऐसा होता है कि इसमें किसी मामले में कभी कोई दोषी नहीं पाया जाता। फिर सरकारी बाबुओं के रुतबे से कौन वाकिफ नहीं होगा? इनके चंगुल से कोई भी बचकर नहीं निकल सकता, यह तय है। आखिर इनके आदर्श वे नेता ही हैं, जिनके पाँव कब्र में लटक रहे हैं, फिर भी धन जुटाने की जुगत में ही लगे हैं। ऐसे अतिवृध्द नेताओं को पद से हटा देना चाहिए। ये नेता काम तो कम ही कर पाते हैं, इनके इलाज में ही लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। जो अपने पाँव पर ठीक से खड़ा नहीं हो पाता, सभा में सोते रहता है, चलने के लिए दो साथियों की आवश्यकता पड़ती हो, दो वाक्य भी स्पष्ट रूप से नहीं बोल पाता हो, वह देश का किस तरह से भला कर सकता है? ऐसे में यह बात सामने आती है कि कमजोर कांधों पर राष्ट्र का भविष्य किस तरह से सुरक्षित रह सकता है? स्वस्थ राष्ट्र का अर्थ ही है, मजबूत काँधे? क्या आज देश की राजनीति में कोई दिख रहा है मजबूत काँधों वाला नेता, जो राष्ट्र का भार अपने मजबूत काँधों पर लेकर पूरे विश्व में एक नई मिसाल दे पाए?
डॉ. महेश परिमल

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