गुरुवार, 18 सितंबर 2008
दु:ख तो अपना साथी है
डॉ. महेश परिमल
यह एक पहेली हो सकती है कि ऐसी कौन सी अदृश्य वस्तु है, जो एक तरफ बाँटने से कम होती है और दूसरी तरफ बाँटने से बढ़ती है। उत्तर हम सब जानते हैं क्योंकि जीवन में उतार-चढ़ाव के साथ यह भी हमारे साथ जुड़े हैं। अदृश्य वस्तु से आशय उस अनुभूति से है जिसे हम केवल महसूस करते हैं। उन दोनों अनुभूतियों का रिश्ता ऑंसुओं से है। शायद अब आप समझ गए होंगे, इस पहेली का हल।
आपने सही समझा- दु:ख बाँटने से कम होता है और खुशी बाँटने से बढ़ती है। दु:खी मनुष्य इन क्षणों में ऑंसुओं को अपना साथी मानता है। ये ऑंसू उसके दु:ख को सहलाते हैं। दूसरी तरफ अचानक मिली खुशी भी ऑंखें गीली कर देती है। ये खुशी के ऑंसू ही होते हैं, जो अनायास ही आ जाते हैं। खुशी में ऑंसुओं का आना यह बताता है कि इस खुशी को प्राप्त करने के लिए उसने कितना संघर्ष किया है। इन क्षणों में वह संघर्ष याद आता है। यही वजह है कि उन संघर्ष के दौरान हार न मानने वाला व्यक्ति, ऑंसुओं को रोकने वाला व्यक्ति खुशी प्राप्त होती ही अनायास ही रो पड़ता है। उसके अब तक रोके हुए ऑंसू सतत बहते चले जाते हैं। इस रोने में दु:ख नहीं होता। इसमें खुशी शामिल होती है।
इसके अलावा इन क्षणों में ऑंसू आने का एक और कारण है। उस व्यक्ति को यह खुशी देने वाला या फिर संघर्ष के दिनों में उसे लगातार प्रेरित करने वाले व्यक्ति की अनुपस्थिति। खुशी के उन क्षणों में प्रेरणापुंज बने उस व्यक्ति का न होना भी ऑंखें गीली कर देता है। खुशी का यही क्षण होता है, जब लोग उसकी इस खुशी में शामिल होकर उस सफलता के लिए बधाई देते हैं। जितनी अधिक उसे बधाई मिलती है, वह उतना ही अधिक खुश होता है। उसकी खुशी बढ़ती जाती है।
इंसान के पास खुशी हमेशा नहीं रहती, किंतु दु:ख या ंगम सदैव उसके साथ रहते हैं। इसे दु:ख कह लें या निराशा। इसके केन्द्र में मनुष्य अकेला होता है। अब यह उसकी प्रवृत्ति पर निर्भर है कि वह इन क्षणों को किस प्रकार जीना चाहता है। अगर दु:ख को वह अपना साथी मानता है, तब तो उसे दु:खी होने की कतई आवश्यकता नहीं, क्योंकि साथी से भला कौन बिछुड़ना चाहेगा? अगर वह दु:ख को मेहमान मानता है, तब तो उसे दु:खी होना ही नहीं चाहिए, क्योंकि मेहमान कुछ दिनों के होते हैं। दु:ख भी मेहमान की तरह उसके जीवन में आया और कुछ दिन बाद फिर चला जाएगा।
इसके अलावा कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो दु:ख को पहाड़ समझते हैं। वे मानते हैं कि हमारा दु:ख ही सबसे बड़ा है। हमसे बड़ा दु:खी संसार में नहीं है। ऐसे लोगों के लिए अपना जीवन बेहतर बनाना मुश्किल है। वे रोज ही नए-नए दु:ख पाते हैं। ऐसे लोग यह समझते हैं कि खुशी हमसे रूठ गई है। अब वह हमारे पास कभी नहीं आएगी। इनके पास यदि कोई चला जाए और उनसे उनका दु:ख पूछे, तो वे अपनी दु:खभरी कहानी सुना देते हैं। उन्हें यदि हम सांत्वना और सहानुभूति के दो शब्द बोल दें, तो वे काफी राहत महसूस करते हैं। यही क्षण होता है, जब उन्हें बताया जाए कि संसार में तुम अकेले नहीं हो और भी बहुत से दु:खी प्राणी हैं। कुछ समय बाद वे अपनी दु:खभरी स्थिति से उबर जाते हैं।
तो यह था एक पहेली के माध्यम से जीवन के उतार-चढ़ाव का विश्लेषण। जीवन में ये दोनों आते जाते रहते हैं। वैसे दु:ख में भी हँसते-हँसते जीने वाला कभी दु:खी नहीं होता। यह परमसत्य है।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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