बुधवार, 24 सितंबर 2008
कैसा इनाम और काहे का इनाम
डॉ. महेश परिमल
आपके घर पर यदि मनीआर्डर आया है, या फिर अवसर हो दीवाली का, अक्सर पोस्टमेन आपके दरवाजे पर खड़ा मिलेगा। कारण वही इनाम की चाहत। यह इनाम क्या है भई? आपने हमारी सेवा की तो इसके एवज में सरकार आपको वेतन तो देती ही है ना। इसके साथ-साथ तमाम सरकारी सुविधाएँ नहीं लेते क्या? जब आप सबकुछ सरकार से प्राप्त कर रहे हैं, तो हम अलग से धन देकर आपको नकारा क्यों बनाएँ?
निश्चित है मेरी यह शिक्षा डाकिए को बुरी लगेगी। इसका प्रतिफल यह होगा कि कोई रजिस्ट्री यदि आई, तो उस पर यह लिखकर वापस भेज दिया जाएगा कि इस पते पर इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिला। अब क्या कर लेंगे आप? यदि हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं तो हमें पग-पग में ठोकरें खानी पड़ेंगी। पीट लो, जितना पीटना है इमानदारी का ढोल। होगा वही जो एक अदना-सा कर्मचारी चाहेगा। अधिकारियों को मौका ही नहीं मिलेगा। जरा उस काहिल डाकिए को याद कर लें, जो अपने हिस्से की सारी चिट्ठियाँ बरसों तक एक कुएँ में डालता रहा। खुशी के कितने पैगाम, उसकी काहिली की भेंट चढ़ गए। क्या कार्रवाई हुई उस पर? कोई नहीं जानता।
इसी तरह महीने के आखिर में एक गोरखा दरवाजे पर दस्तक देता है- शलाम शाब, चौकीदार। अच्छा तो तुम हो चौकीदार। पिछले महीने मेरा स्कूटर घर से चोरी चला गया, तब तुम कहाँ थे? हमको नहीं मालूम शाब। हम तो रात भर इसी मोहल्ले की चौकीदारी करते हैं। अच्छा, आपको काम पर किसने रखा? किसी ने नहीं रखा, तो फिर यह कैसी नौकरी? अपने मन से ही काम शुरू कर दिया और शुरू कर दिया वसूली अभियान।
आप ही बताएँ, हम इन्हें धन क्यों दें? यह तो खुले आम रिश्वत है। अगर आप ईमानदार हैं, तो इस तरह से धन बरबाद करने के लिए भी आपके पास धन नहीं होना चाहिए। अगर आपके पास इस तरह धन उड़ाने के लिए धन है, तो तय है कि आप सब कुछ हो सकते हैं, पर ईमानदार नहीं हो सकते।
रिश्वत को आजकल शिष्टाचार माना जा रहा है। कभी ध्यान दिया आपने? ये शिष्टाचार क्यों बना? कुछ काहिल हमारे बीच ऐसे हैं, जिनके पास हराम की दौलत है। वे उसका मोल नहीं समझते। इसलिए अपना काम जल्दी और आसानी से करवाने के लिए इन्हें धन दे देते हैं। लेने वाला खुश होकर उसके लिए नियमों को ताक में रख देता है। रिश्वत देने वाला सरकार से बड़ा हो जाता है, क्योंकि सरकार ने उसके हित के बारे में नहीं सोचा, आपने सोचा। इसलिए रिश्वत लेने वाला देने वाले पर कुर्बान हो जाता है। उसकी यह कुर्बानी तब तक जारी रहती है, जब तक उसे कोई उससे भी बड़ी रिश्वत देने वाला नहीं मिल जाता। यह अंतहीन सिलसिला है, जो शायद चलता रहेगा, पर कुछ प्रश्न अवश्य छोड़ता जाएगा-
- क्या रिश्वत देना बहुत जरूरी है?
- हमारे जागरूक होने का मतलब क्या है?
- रिश्वत देकर हम एक काहिल समाज को तो जन्म नहीं देते?
- ईमानदारी और मेहनत के धन को एक बार रिश्वत के रूप में देकर देखो?
- जो सरकार को लूटता है, उसे हम रिश्वत देकर उसकी लूट में शामिल तो नहीं हो जाते?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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