मंगलवार, 23 सितंबर 2008

पानी का आना और जाना


डॉ. महेश परिमल
शहर में रहना है, आपकी आय भी अधिक नहीं है, उस पर यदि आपने अपना घर होने का सपना ऑंखों में पाल लिया है, तो आपका जीवन मुश्किल में पड़ सकता है। जीवन को मुश्किल में डालते हुए सपने को सिमित करते हुए अपने एक फ्लेट ले लिया। समझो जिंदगी कुछ आसान हो गई। अब यहाँ सब कुछ अपना है। न हर महीने की एक तारीख को मकान-मालिक का मुँह देखना पड़ता है, न ही किराया बढ़ाने की धौंस सुननी पड़ती है। चलो अच्छा हुआ, इस शहर में अपनी एक छत तो है।
लेकिन केवल सर छिपाने के लिए छत से कुछ नहीं होता। जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए भोजन से अधिक आवश्यक है जल, क्योंकि जल ही जीवन है। आपका फ्लेट तीसरी मंजिल में है, तो हो गया बंठाधार। फ्लेट में जल व्यवस्था नगर निगम के हाथ में तो होती नहीं। इसके लिए बिल्डर जो व्यवस्था कर गया है, उसी से काम चलाना आपका धर्म है। अब आपके यहाँ पानी नहीं आता तो दोष किसका, बिल्डर का? नहीं, उसका तो नहीं, क्योंकि पहले तो पानी हमेशा आता था। अब नहीं आता। पहले पानी आता था, इससे बिल्डर तो बरी हो गया। अब नहीं आता, इसका मतलब बिलकुल पानी की तरह साफ है। आपके यहाँ आते-आते पानी का दबाव कम हो जाता है।
आप कहेंगे, पर भाई साहब हमारे नीचे वाले फ्लेट में खूब पानी आता है। तो क्या अंदाजा लगाया आपने? जब उनके यहाँ खूब पानी आता है, तो वे भी पानी आते समय उसका खूब इस्तेमाल करेंगे। पानी चाहे आधा घंटा आए या पैंतालिस मिनट, उनकी वॉशिंग मशीन भी उसी समय चलेगी। जब उनका सारा काम हो जाएगा और उनको आप पर दया आई, तो वे अपने नल बंद कर देंगे। तब आपके यहाँ पानी आ सकता है। वह भी कुछ समय के लिए मेहमान बनकर।

मतलब यही कि आप यदि तीसरी मंजिल पर रहते हैं, तो आप नीचे वाले पर निर्भर हैं। उनमें नैतिकता है, तो आपके घर पानी आ सकता है, अन्यथा ऊपर रहने का सुख भोगें और हवा के सहारे जिंदा रहें। यही हो रहा है आजकल हर तरफ। हर कोई अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने में लगा हुआ है। दूसरों से उसका कोई वास्ता नहीं। वह अपने में ही रमा हुआ है। उसकी सारी जद्दोजहद केवल अपने लिए है। पडाेसी भी आपसे अच्छा व्यवहार तभी करेंगे, जब आपसे उसका कोई स्वार्थ सधता है। अन्यथा वह आपको पहचानने से भी इन्कार कर सकता है। आपके दु:ख से उसको कोई मतलब नहीं है। सबके अपने-अपने आस्मां हैं, अपनी-अपनी जमीं है।
सवाल यह उठता है कि क्या ऐसा होना चाहिए? क्या हो गया है हमें? कहाँ गई हमारी संवेदनाएँ? कहाँ गए हमारे संस्कार? और कहाँ गए हमारे अच्छे विचार?
- कहीं हमने अपनी संवेदनाएँ बेच तो नहीं डाली?
- कहीं हमारे संस्कार ताक पर तो नहीं रखे हैं?
- कहीं भाईचारा शब्द स्वार्थ के शब्दकोष में विलीन तो नहीं हो गया।
- कहीं हम भीतर से टूट तो नहीं रहे?
- कहीं हम भी तो स्वार्थी नहीं हो गए?
- क्या हममें जरा सी भी नैतिकता बाकी है?
डॉ. महेश परिमल

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