गुरुवार, 4 सितंबर 2008

शिक्षक दिवस एक विद्यालय की वेदना


डा. महेश परिमल
मैं एक विद्यालय हूँ, आप मुझे शाला भी कह सकते हैं। पाठशाला, विद्या का मंदिर, विद्या का निकेतन, विद्या का आलय, शिक्षालय, गुरुकुल, मकतब, मदरसा, आदि कई नाम हैं मेरे। इन सभी नामों के बीच विराजती हैं, विद्या की देवी सरस्वती। इस परमपूज्य देवी के सानिध्य में और मेरे अहाते में बैठकर कई अबोध मासूमों ने शिक्षा और संस्कार का ककहरा पढ़ा है। मेरे ऑंगन में हर वर्ष नई किलकारियाँ गूँजती है, माता-पिता अपने बच्चों में अपने ही भविष्य का सपना देखते हैं और उसी सपने को पूरा करने के लिए उन मासूमों को छोड़ जाते हैं, मेरी गोद में। मैं ही उन्हें दुलारती हूँ, प्यार करती हूँ और उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश फैलाती हूँ, ताकि वे ज्ञान के इस प्रकाश को देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में फैलाए।
मेरे आंगन में अपनी सारी मस्तियों के बीच वे न जाने कब, कैसे बड़े हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। ऑंखों में सफल जीवन के कई सपने पाले किलकारियाँ भरते, अठखेलियाँ करते, अपने बचपन को जीते कई नौनिहाल मेरे द्वार पर आए और उन सपनों में सफलता के इंद्रधनुषी रंग भर कर मेरे आंगन से विदा ली। उनकी विदा बेला में दु:खी होने के बजाए मैं प्रसन्नता से आल्हादित हो जाता हूँ। मैं गौरवान्वित हो उठता हूँ, क्योंकि मेरे यहाँ कई निरक्षरों को साक्षरता का उपहार मिला है। आज भी जब कोई पालक अपने बच्चों के साथ मेरे सामने से गुजरता है, तो वह बड़े ही गर्व से कहता है- देखो बच्चो, मैंने यहीं से शिक्षा प्राप्त की है। यहीं मैंने अपने जीवन की बहुत सारी मस्तियाँ की हैं। शिक्षकों के प्यार, दुलार के साथ-साथ उनकी कड़वी डाँट भी सुनी है। मेरी शाला का यह ऑंगन आज भी मेरे लिए पूजनीय है, मैं इसे प्रणाम करता हूँ।
आज मेरी पवित्रता पर ग्रहण लग गया है। अब मैं केवल ज्ञापन का मंदिर नहीं, बल्कि एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान का रूप मिल गया है। मेरा रूप पूरी तरह से इन्हीं पढ़े-लिखे लोगों ने ही बदल दिया है। आज मुझे विद्या का मंदिर नहीं, व्यापार का केन्द्र कहा जाता है। मेरे यहाँ अब विद्या तो मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गई है। आज हर गली-मोहल्लों में मेरे कई छोटे-छोटे रूप देखने को मिल जाएँगे, बारिश मेें ऊगने वाले कुकुरमुत्तों की तरह। सुनकर बड़ा बुरा लगता है, पर मैं क्या कर सकता हूँ? कुछ नहीं। लोगों की बातें सुनता हूँ और खो जाता हूँ अतीत में। जहाँ मेरे पास कई सुनहरी स्मृतियों का इतिहास है। एक वह समय था, जब मेरे पास आने में लोगों को आनंद की अनुभूति होती थी। उनके चेहरे का सुकून मुझे मेरी जवाबदारियों का अहसास दिलाता था। नहीं भूल सकता मैं कि इन जवाबदारियों का बोझ मैंने अकेले कभी नहीं उठाया, क्योंकि हमेशा सरस्वतीपुत्रों यानि कि शिक्षकों ने मेरा साथ दिया। कैसे भूल सकता हूँ मैं कि उनकी रात-दिन की मेहनत, एक निरक्षर को साक्षर बनाने की ललक, जोश, उमंग, उत्साह ये सभी उस समय कितने अनोखे और अनमोल थे, जैसे पानी की एक बूँद सीप में कैद हो कर मोती का रूप ले रही हो, पत्थर पर एक नया इतिहास रचा जा रहा हो, झरने की लहरों में एक नया संगीत गूँज रहा हो, ऐसा ही कुछ और बहुत कुछ नया करने का प्रयास प्रतिक्षण होता था, उन सरस्वतीपुत्रों के द्वारा।
एक समय था जब मेरी चौखट पर विद्यार्थी श्रध्दा से अपना शीश झुकाते थे, देशभक्ति के गीत, राष्ट्रप्रेम के गीतों से जब मेरा कोना गूँजता था, तो उसमें विद्यार्थियों के रोम-रोम से समर्पण भावना बहती थी। शाला के कोई भी कार्यक्रम में वे पूरे उत्साह से भाग लेते थे। शिक्षक के प्रति आदर भाव तो इतना अधिक था कि अपशब्दों का प्रयोग तो दूर की बात है, ऊँचे स्वर में बोलना भी मर्यादा का उल्लंघन माना जाता था। शाला के जिस कक्ष में छात्र अध्ययन करते थे, उसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना उनकी जिम्मेदारी थी और वे अपनी यह जिम्मेदारी निभाने का पूरा प्रयास करते थे।
आज एक बार फिर समय ने ऐसी करवट ली है कि ये सारी बातें केवल अतीत का एक हिस्सा बनकर रह गई है। श्रध्दा शब्द अब विद्यार्थियों के शब्दकोश से गायब हो चुका है। कार्यक्रम अब भी होते हैं, पर उनमें व्यावसायिकता राजनीति की तरह हावी हो जाती है। इस कुहासे में छात्रों का मनोबल टूटने लगता है। अपशब्द आज के विद्यार्थियों की पहचान बन चुके हैं। मेरे ही ऑंगन से हटकर ही अब कई छोटी-छोटी दुकानें लग गई हैं, जहाँ पान, सिगरेट, गुटखा, तम्बाखू आदि बुराइयाँ परोसी जा रही हैं। यहाँ बिकने वाली वस्तुओं का सेवन केवल छात्र ही नहीं, बल्कि शिक्षक भी बड़ी शान से करने लगे हैं। मेरे ऑंगन से साफ-सफाई अब विदा ले चुकी है। अनुशासन शब्द एक मजाक बनकर रह गया है मेरे ऑंगन में।
दु:ख तो तब और बढ़ जाता है, जब मेरे ही ऑंगन से निकलकर शायद बड़े होकर बच्चे युवा बनते हैं, और पहुँच जाते हैं महाविद्यालय। यही महाविद्यालय अब राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गए हैं। जहाँ रेगिंग के नाम पर खुलेआम अपराध होते हैं, अपराधी ही चुनाव लड़ते हैं और अपनी वीरता के बल पर चुनाव जीत भी जाते हैं। शिक्षा से इनका कोई लेना-देना नहीं होता। दूसरे अर्थों में कहा जाए, तो यही वह स्थान है,जहाँ देश के भविष्य का आकार मिलता है। यही वह स्थान है जहाँ शिक्षा के नाम पर पालकों को बुरी तरह से आर्थिक शोषण होता है। अपने बच्चों को शिक्षित करने के नाम पर पालक कुछ नहीं कर पाते।
अब तो मेरे ही ऑंगन में नन्हों की मौत भी होने लगी है। समाज के कथित ठेकदार साधु संतों द्वारा चालाए जा रहे गुरुकुल या कह ले आश्रमों में मासूमों की मौत होने लगी है। ये कैसे शिक्षा संस्थान हैं, जिसे अपराधी संचालित कर रहे हैं? प्रशासन मौन है, अनजाने में इन कथित शिक्षा संस्थाओं को उसी का वरदहस्त प्राप्त है। कहाँ से कहाँ पहुँच गई शिक्षा पध्दति? अब तो न धौम्य ऋषि जैसे गुरु हैं ओर न ही आरुणि जैसे शिष्य, अब तो हर तरफ धाक लगाए छात्र और इसे संरक्षण देने वाले शिक्षक ही शेष हैं। जो शिक्षक वास्तव में गुरु की अहम भूमिका निभा रहे हैं, वे प्रचार-प्रसार से काफी दूर हैं। जिन्हें योग्य शिक्षक का पुरस्कार मिल रहा है, वह भी कई जुगत के बाद मिल रहा है। इसके लिए कितनी तिकड़म करनी पड़ती है, उन्हीं शिक्षकों से पूछो, जो पुरस्कृत हो रहे हैं।
रक्तरंजित शिक्षा संस्थान क्या वास्तव में शिक्षा देने का काम कर रहे हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है, जो हम सबके लिए है। देखते हैं इस विचार को हम कहाँ तक आगे ले जाने में सक्षम हो पाते हैं?
डा. महेश परिमल

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