गुरुवार, 11 सितंबर 2008
मन के हारे हार और मन के जीते जीतx
डॉ. महेश परिमल
अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि लोग दु:खी क्यों हैं? सवाल गंभीर है, पर जवाब उतना ही आसान है। गंभीर सवाल का आसान जवाब? बात भले ही विचित्र लगे, पर यह सच है। हाल ही में इस पर एक शोध सामने आया है। उसमें कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष निकाले गए हैं। शोध के अनुसार लोग इसलिए दु:खी हैं कि उनका पड़ोसी सुखी है। है ना गंभीर सवाल का आसान जवाब।
मनुष्य के अपने दु:ख बहुत छोटे हैं। ऐसे कई दु:ख वह झेलता रहता है। जीवन के मार्ग में संघर्ष करता रहता है, परंतु कभी-कभी वह ओढ़ी हुई सभ्यता का शिकार हो जाता है। ओढ़ी हुई सभ्यता का मतलब है कि कोई हमें कहता है आप अच्छे हैं, तो हम स्वयं को बहुत अच्छा मानने लग जाते हैं। यदि कोई हमें बुरा कहता है, तो हम स्वयं को अच्छा समझते हुए उसे अपना जानी दुश्मन मान लेते हैं और उसको नुकसान पहुँचाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। किसी के कहने मात्र से हम अच्छे-बुरे बन गए, तो हमारी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है।
जो हमारी निंदा या प्रशंसा करते हैं, जरा उनका मानसिक स्तर तो देखें, ऐसे ओछे विचार वालों के दृष्टिकोण से हमारा फूलना या पिचकना कितना हास्यास्पद लगता है, कभी सोचा है आपने? इससे तो यही निष्कर्ष निकला कि हम अच्छा रहने की चिंता नहीं करते, बल्कि अच्छा कहलाने मात्र की चिंता करते हैं। हम भले ही अच्छा न बन पाएँ, पर अच्छी सोच के स्वामी तो हो ही सकते हैं।
अच्छी सोच होगी और अच्छे कार्य होंगे, तो हम इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाएँगे, जहाँ संसार के राग-द्वेष हमें छू भी नहीं पाएँगे। किसी को अपनी निंदा करते देखें तो मन ही मन मुस्करा दें। कोई हमारी प्रशंसा करे, तो भी मन में मुस्करा दें।
मन बड़ा चंचल है, पर इसे काबू में किया जा सकता है। अपने आप से बातें करों। मन भी उसमें शामिल हो जाएगा। कोई भी कार्य करो, तो मन की राय अवश्य लो। वह कभी गलत सलाह नहीं देगा। दु:ख के क्षणों में वही अपना सच्चा साथी साबित होता है। मन कोमल होता है, संवेदनशील होता है और कमजोर भी होता है। इसे सबल बनाने का काम हमारा है। हमारे दृढ़ विचार इसे सबल बनाते हैं। इसका सबल होना इसलिए भी आवश्यक है कि सबल मन तूफानों से नहीं डरता। तूफान में भी कोई अविचल खड़ा रह सकता है, तो वह है सबल मन।
रोगी को अच्छा करने में सबल मन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मन से हारा रोगी कितनी भी महँगी दवाएँ खरीद ले, बड़े से बड़ा अस्पताल चला जाए, वह निरोगी नहीं हो सकता। वहीं सबल मन का स्वामी हर परिस्थितियों में अपने लायक हालात बना ही लेता है। इसे कहते हैं मन की जीत। इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीत।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सही कहा आपने, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख!!
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