बुधवार, 10 सितंबर 2008
सदा खुश रहो
डॉ. महेश परिमल
बड़े बुजुर्ग जब भी हमें आशीर्वाद देते हैं, तब एक वाक्य यह अवश्य होता है- सदैव प्रसन्न रहो। उनके इस आशीर्वाद के पीछे एक रहस्य है। वैसे भी हमारे अग्रज हमेशा गूढ़ बातें किया करते हैं। कई बार तो वे ऐसा कुछ कह जाते हैं कि समझने में काफी वक्त लगता है। तो आइए, बुजुर्गो के उस आशीर्वाद का मतलब जानने की कोशिश करें।
खुश रहना एक कला है, जो सबको प्राप्त नहीं होती। इसे हासिल करना पड़ता है। सुख में, अनुकूल परिस्थितियों में खुश रहना कोई बड़ी बात नहीं है। यह स्वाभाविक है, लेकिन दु:ख में, प्रतिकूल परिस्थितियों में खुश रहना बहुत बड़ी बात है। हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि मनुष्य जीवन विषम होता है। इस जीवन-मार्ग में चलना बहुत दुष्कर है। बहुत-सी बाधाएँ हैं, लेकिन हँसमुख स्वभाव का व्यक्ति अपने स्वभाव और व्यवहार से सभी को अपना बना लेता है। जहाँ हमारे हितैषी अधिक हों, वहाँ जीवन सुचारू रूप से चलने लगता है। रास्ते सरल होने लगते हैं, बाधाएँ दूर होने लगती हैं।
यह समझना गलत होगा कि जो हँसमुख होते हैं, वे गंभीर नहीं हो सकते। वास्तव में जो हँसते-हँसाते रहते हैं, उनके भीतर अथाह पीड़ा छिपी होती है। कभी उनका हृदय टटोलने का प्रयास करो तो असीम वेदना का एक अंतहीन सिलसिला मिलेगा। कहीं रिश्तेदारोें से धोखाघड़ी, कहीं प्रेमिका ने ठुकराया, गरीबी, कुंठा, संत्रास ये सभी कुछ उनके जीवन के अभिन्न अंग के रूप में मिलेंगे। ऐसे लोग हँसते इसलिए हैं कि उनका दु:ख कुछ कम हो जाए और हँसाते इसलिए हैं कि सामने वाले का दु:ख कुछ कम हो जाए।
ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जिसे हँसता और खिलखिलाता चेहरा अच्छा नहीं लगता। हर कोई चाहता है कि वह स्वयं सदैव हँसता रहे, हँसाता रहे, पर क्या करे? ओढ़ी हुई गंभीरता से पीछा ही नहीं छूटता। गंभीर रहने के ही शायद बहुत से फायदे हैं, फिर हँसकर, हँसाकर नुकसान क्यों किया जाए। चेहरे पर मुर्दनी, चाल में सुस्ती, निरीह, बेबस, लाचारी से भरे चेहरे देखकर दया तो उपजती है, पर प्यार नहीं उमड़ सकता।
हँसने से यादा मुश्किल है हँसाना। यह कला हर किसी को सीखनी चाहिए। मनोविज्ञान में कहा गया है, जो जितना खुलकर हँसता है, वह उतना ही साफ दिल का होता है अर्थात उसके भीतरर् ईष्या, द्वेष, कटुता नाममात्र को भी नहीं होती। एक खिलखिलाहट पूरे वातावरण को पवित्र बना देती है। उससे बड़ा दुर्भाग्यशाली कोई नहीं हो सकता, जो एक मासूम की हँसी या खिलखिलाहट में अपनी हँसी न मिला सके। ऐसे लोग अभागे होते हैं, क्योंकि मासूम की हँसी पवित्र होती है। उस हँसी में शामिल होना याने अपनी हँसी को भी पवित्र बना देना। यहीं से मिलता है हमें उन्मुक्त हँसी का पहला सूत्र। यहाँ वह मासूम हमारा गुरु होता है। उसका मंत्र होता है- मुझसे मेरी हँसी ले लो, जमाना तुम्हें बहुत दु:ख देगा, तब यही काम आएगी।
तो आज से आप भी यह संकल्प लेंगे ना कि मासूमों से हँसी लेंगे, आशीर्वाद में खुश रहने को कहेंगे और हँसेंगे, हँसाते रहेंगे।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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