सोमवार, 8 सितंबर 2008
अधिक सोच आदमी को निराशा देती है
डॉ. महेश परिमल
दो मित्र अपने रोजमर्रा के कामों से उकता कर छुट्टियाँ मनाने के लिए किसी हिल स्टेशन पर गए। वहाँ रोज का ऑफिस वर्क नहीं था, रोज की छोटी-मोटी समस्याएँ नहीं थी। बॉस की झिड़कियाँ, पत्नी की फरमाइशें, बच्चों की जिद सबसे दूर वे दोनों छुट्टी का आनंद लेने के लिए यहाँ आए थे। दो-चार दिन यूँ ही मस्ती में गुजर गए। एक दिन शाम के समय जब एक मित्र प्रकृति का आनंद ले रहा था, पहाड़ के पीछे डूबते सूरज को देख रहा था, बादलों की ऑंख-मिचौनी के बीच झांकती सूरज की रश्मियों को प्यार से निहार रहा था, तो दूसरा मित्र इस अनुपम अवसर से अपने आपको दूर रखते हुए कमरे में बैठा कुछ सोच रहा था। पहले मित्र ने आकर उसे बाहर के सुंदर प्राकृतिक दृश्य को देखने की बात कही, तो वह बोला अभी मैं ऑफिस की एक समस्या से घिरा हुआ हूँ, उसका हल मिले तो मैं अपने आपको इस सुंदर दृश्य से जोड़ सकूँ। मित्र को यह सुनकर आश्चर्य भी हुआ और उसके इस व्यवहार पर गुस्सा भी आया। आता भी क्यों नहीं! वे दोनों सारे दुनियादारी के झंझटों से खुद को दूर करते हुए, हजारों रूपए खर्च करके इतनी दूर मानसिक शांति की तलाश में आए थे, प्रकृति की गोद में खुद को बैठाने आए थे और वह था कि अभी भी उसी ऑफिस और उसके आसपास ही घूम रहा था। मित्र उसे हाथ पकड़कर बाहर खींच लाया और बोला- पहले ये जाता हुआ सुंदर दृश्य देख लो, प्रकृति की सुंदरता को पूरी तरह निहार लो और उसके बाद जब तुम्हारा मन इस मनोरम दृश्य से भर जाए, तो रात को बिस्तर पर पड़े हुए भले ही सारी रात जागते हुए अपनी समस्या का हल खोजते रहना, कई घंटों तक सोचते रहना, पर ये पल जो अभी जा रहा है, उसे यूं ही अनदेखा न करो। उसे अपनी ऑंखों के माध्यम से हृदय में बसा लो।
मित्र उसकी बात को सुनकर उसके चेहरे को निहारता ही रह गया। वह असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा। उसे समझ न आया कि वह तत्क्षण क्या करे? अब मित्र झल्ला गया और बोला- तुम्हारी यही समस्या है, तुम सोचते बहुत हो और इसी सोच के साथ जीवन के कितने ही अनमोल क्षणों को यूं ही व्यर्थ गँवा देते हो। यदि तुम यूं ही समय-बेसमय सोचते ही रह जाओगे, तो मालूम नहीं जिंदगी के कितने ही सुंदर क्षणों से हाथ धो बैठोगे।
यह मात्र दो मित्रों के बीच का वार्तालाप नहीं है, ऐसे कई प्रकृति प्रेमी मिल जाएँगे, जिनके जीवन के प्रति ऐसे विचार होते हैं। देखा जाए तो जीवन के प्रति ऐसे विचार होने भी चाहिए। हम हमेशा अपनी छोटी-मोटी समस्याओं में ऐसे खोए रहते हैं कि हमें प्रकृति से जुड़ने का मौका ही नहीं मिलता। जब मिलता है, तो हम उसका फायदा उठाते हुए घर के एक कोने में खुद को कैद कर लेते हैं और कुछ सोचना शुरू कर देते हैं। इसके लिए हम समय नहीं देखते।
महान दार्शनिक ओशो का कहना है कि मनुष्य जो जीवन जीता है, उसे उसका क्षण-क्षण का जीवन रस निचोड़ लेना चाहिए। रोम-रोम में जीवन प्रस्फुटित होना चाहिए और संपूर्ण शरीर में उमंग, उल्लास, जोश होना चाहिए। मनुष्य को अपनी आत्मा की आवाज सुनकर केवल और केवल अपने वर्तमान में ही जीना चाहिए। वर्तमान का एक एक पल सुंदर बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग अतीत की यादों में और भविष्य के विचारों में उलझे रहते हैं, उनका वर्तमान बोझ सदृश होता है, व्यक्ति जीवन जीता नहीं, अपितु उसका भार वहन करता है। अधिक सोच उसके विचारों की रीढ़ को खोखला बना देती है और वह खोखले विचारों के साथ निराशा का हर पल गुजारने को विवश होता है।
अधिक सोच व्यक्ति को निराशावादी बनाती है। उसे मौत के निकट ले जाती है, उसमें असुरक्षा की भावना भरती है, उसे समय से पहले बूढ़ा बनाती है। इसलिए बुद्धिमान होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हर काम दिमाग से किया जाए या हर समय दिमाग का उपयोग किया जाए, बुद्धिमान होने का वास्तविक अर्थ यही है कि दिमाग को कुछ समय आराम दिया जाए और जीवन में कुछ काम केवल दिल से किए जाए। जो लोग केवल अपने दिमाग का उपयोग करते हुए, हर पल सोच की व्यसतता में घिरे हुए होते हैं, वे केवल जिंदा रहते हैं और जो लोग अपनी आत्मा की आवाज को मानते हुए, दिमाग और दिल दोनों के बीच में संतुलन बनाते हुए अपनी सोच को कुछ समय विराम देते हुए केवल और केवल पलों में खुद को समर्पित कर देते हैं, वास्तव में वे ही जीवन जी पाते हैं। इसीलिए तो कहा गया है- ज्यादा मत सोच, नहीं तो मर जाएगा।
जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दु:ख आने से पहले दु:खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने के पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़ कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार बनाना है या कम से कमतर सोच के द्वारा जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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"जीवन जीने की कला यही है कि मौत से पहले मत मरो और दु:ख आने से पहले दु:खी मत हो"
जवाब देंहटाएंप्रेरणा के लिये आभार्!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
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