शुक्रवार, 5 सितंबर 2008
चिंतन: मेरा ही धर्म सर्वश्रेष्ठ है?
डॉ. महेश परिमल
मेरा धर्म सर्वश्रेष्ठ है। आजकल यह दंभोक्ति अक्सर सुनाई देती है। जब से राजनीति में धर्म शामिल हो गया है, तब से धर्म को भी राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है। हर धार्मिक वक्तव्य का राजनीतिक अर्थ निकाला जा रहा है। ये दोनों आज एकाकार हो गए हैं। इन्हें अलग करना मुश्किल है।
इन परिस्थितियों में मासूमों के भीतर साम्प्रदायिक संस्कार पनपने लगे हैं। फलस्वरूप युवा ही नहीं बल्कि किशोर पीढ़ी भी आक्रामक हो रही है। आए दिन होने वाले अपराधों में किशोरवय की संलग्नता इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। आखिर क्यों जरूरत पड़ी साम्प्रदायिक संस्कार देने की? प्रश् कठिन है, पर समाधान के सभी रास्ते खुले हुए हैं।
आज प्रत्येक धर्मावलम्बी यह मानता है कि उसके धर्म का अस्तित्व संकट में है। इसलिए वह अपने धर्म और धार्मिक स्थलों पर विशेष निगरानी रखने लगा है। इसके अलावा अपने धर्म के नियमों का न केवल पालन करने लगा है, बल्कि अपने बच्चों को भी कड़ाई से पालन करने के लिए कहता है। इससे बच्चों में भी अपने धर्म को लेकर आस्था की जड़ें गहरी होती जाती है। डर इस बात का है कि बच्चों से भी यही कहा जाता है कि हमारा धर्म महान है, सर्वश्रेष्ठ है। बाकी सारे धर्म बेकार हैं, गिरे हुए हैं, उन धर्मो की ओर देखो भी मत, फिर भी यदि दूसरा धर्म तुम पर हावी होने की कोशिश करे, तो उसका जमकर विरोध करो। विरोध की सीमा कहाँ तक हो, यह उन पर छोड़ दिया जाता है। यही कारण है कि जब विरोध का दौर शुरू होता है, तो धर्मांध लोग क्या-क्या नहीं कर गुजरते, यह बताने की जरूरत नहीं है।
धर्म के ये ठेकेदार और राजनीति के सौदागर ये नहीं जानते कि वे जिस धर्म की बात करते हैं, वास्तव में वह धर्म है ही नहीं। सबसे बड़ा धर्म है मानवता। इस धर्म से उनका नाता है ही नहीं। मानवता का यह धर्म इंसान को ईश्वर के करीब ले जाता है। इस धर्म को स्वीकार करने के बाद इंसान सभी प्राणियों की भलाई के ही बारे में सोचता है। यह धर्म विश्वव्यापी है। सारे धर्मो का सार है यह धर्म। सारे धर्म इसमें ही एकाकार हो जाते हैं।
राजनीति के छद्मवेष में लिपटे आज के धार्मिक नेता जिस धर्म को लेकर मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं, वह धर्म संकुचित है। उनका यह धर्म रायों नहीं, बल्कि कुछ जिलों तक ही सीमित है। इनके धर्म की कोई पहचान भी नहीं है, पर इन्हें भी अपना कथित धर्म महान लगता है। वे चाहते हैं कि उनके धर्म का डंका देश ही नहीं, विदेशों में भी बजता रहे। वे सब मुगालते में हैं, इसीलिए वह मासूमों में साम्प्रदायिक संस्कार डाल रहे हैं, ताकि भविष्य में उनके धर्म का विरोध न हो। वे यह भूल रहे हैं कि मासूमों को साम्प्रदायिक संस्कार देने का पुनीत कार्य वे अकेले नहीं कर रहे हैं, बल्कि धर्म के कई ठेकेदार अन्य धर्मो के लिए कर रहे हैं।
- क्या धर्म के प्रति ऐसा दृष्टिकोण देश-समाज के लिए उचित है?
- क्या कथित धर्म के ठेकेदार उचित कर रहे हैं?
- क्या मानवता का धर्म विश्वव्यापी नहीं है?
- क्या मासूमों में साम्प्रदायिक संस्कार डालना उचित है?
तो फिर आओ, संकल्प लें और बताएँ कि मानवता का धर्म ही शाश्वत धर्म है। यही धर्म इंसान को ईश्वर के करीब ले जाता है। यही धर्म सभी धर्मों का मूल है।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जवाब देंहटाएंआप जो कह रहे हैं वह काफ़ी हद तक सही है, पर किस धर्म या धर्मों की बात कर रहे हैं आप?
मानवता का धर्म ही शाश्वत धर्म है। यही धर्म इंसान को ईश्वर के करीब ले जाता है। यही धर्म सभी धर्मों का मूल है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा।