मंगलवार, 2 सितंबर 2008
स्वयं से मिलना सीखो
डॉ. महेश परिमल
हमने सभी ने कभी न कभी अपने फोन पर यह पंक्तियाँ अवश्य सुनी होंगी, इस रुट की सारी लाइनें व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बाद ट्राई करें। अक्सर ऐसा ही होता है, जब हम किसी अपने से बात करना चाहते हैं, वह भी आवश्यक बात, तभी फोन पर उक्त जुमला सुनने को मिलता है। निश्चित ही आप परेशान हो जाते होंगे, देखो कितना आवश्यक काम था और बार-बार की जाने वाली कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं। कितना उतावलापन होता है, उस वक्त हमारे भीतर? काश.....बात हो जाती, काश... लाइनें खुल जाती, आप ऐसा सोचते और एक बार फिर कोशिश करते, एक बार फिर विफलता आपके द्वार पर होती।
आप परेशान हैं, इस तरह से कभी आपने खुद से बात करने की कोशिश की है? निश्चित रूप से यहाँ भी सभी लाइनें व्यस्त होंगी, पर इसकी जानकारी आपको कभी नहीं हुई, क्योंकि आपने कभी भी खुद से बात करने की कोशिश नहीं की। यहाँ खुद से बात करने की सारी लाइनें हमेशा व्यस्त रहती हैं, पर कभी बात नहीं हो पाती। आखिर क्या कारण है कि हम स्वयं से बात नहीं कर पाते? इसका मतलब साफ है कि हम स्वयं से कभी मिलना ही नहीं चाहते। हम दूसरों से मिलने के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगा देते हैं, पर स्वयं से मिलने के लिए थोड़ा सा समय नहीं निकाल पाते। यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसका सामना हर किसी को करना पड़ता है, पर इससे वह अनजान भी है।
स्वयं को महसूस करना, स्वयं से रिश्ता जोड़ना हमने सीखा ही नहीं। हमें अपने आसपास का वातावरण प्रभावित करता है, आसपास के लोग प्रभावित करते हैं, किंतु हमारे भीतर का अपनापन, विचारों का सैलाब हमसे दूर ही रहता है, क्योंकि हमने कभी खुद से बातें करने की कोशिश ही नहीं की। हमारे भीतर की अच्छाइयों और बुराइयों को कभी तौलना ही नहीं चाहा। यदि हम इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास करते तो हमारा व्यक्तित्व निश्चित रूप से बदला हुआ होता।
ओशो कहते हैं अपनी आत्मा की आवाज सुनो। अपने आसपास के शोरगुल से ध्यान हटाकर भीतर की नीरवता को सुनने का प्रयास करो। इस नीरवता के बीच से उठता आल्हाद का स्वर ही आत्मा की आवाज है। यह स्वर कभी आपको पैरों तले पड़ी चीटी को रौंदने से मना करता है, तो कभी मुंडेर पर बैठी चिड़िया को चावल के दाने देने को विवश करता है। यह अंतरात्मा की आवाज आपको कभी किसी अजनबी की मदद करने को कहती है, तो कभी यही नीरव स्वर आपको किसी के लिए सर्वस्व लुटाकर आत्म संतुष्टि की ओर जाने को प्रेरित करता है। ओशो का यह स्वयं को अनुभव करने का अहसास इतना प्रबल है कि यदि मनुष्य इस आवेग के साथ बह जाए, तो उसकी एक ऐसी छवि तैयार हो जाएगी कि वह पल भर के लिए सुखद आश्चर्य में पड़ जाएगा।
स्वयं से बातचीत कर हम इस बात का पता आसानी से लगा लेते हैं कि आज हमने दिन भर में क्या -क्या किया। इस आकलन के साथ ही दूसरे दिन की दिनचर्या में एक बुराई घट जाती है और एक अच्छाई जुड़ जाती है। किंतु जीवन के गणित का यह सवाल हल करने के लिए किसी के पास समय ही कहाँ है? हर कोई सिर्फ व्यस्तता में ही घिरा हुआ है।
ऐसा भी नहीं है कि इंसान कभी भी अपने आप से नहीं जुड़ पाता। कभी किसी मासूम को गोद में लेकर उसे खुश करने की कोशिश करते हुए, कभी अपना मनपसंद गीत गुनगुनाते हुए, कभी किसी के जनाजे में शामिल होते हुए भी वह अपने आप के करीब होता है। यही क्षण होता है, उसका निजी क्षण, इन क्षणों को पहचान कर उसे सदैव अपने पास सुरक्षित रखा जाए, तो भविश् ष्य में उसे अपने आप से मिलने में परेशानी नहीं होती। यही वक्त है जब अपने से मिलने की लाइनें व्यस्त नहीं होती, क्योंकि आपने जान लिया है कि अपने आप से कैसे मिला जाए।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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