जीवन मूल्य अब तेजी से बदल रहे हैं। अपराध करने के बाद भी अपराधी को अपने किए पर ज़रा भी पछतावा नहीं होता। किसी की हानि पहुंचाकर लोग अब खुश होते हैं। रास्ते चलते किसी को भी परेशान करना अब आम हो गया है। कानून के रखवालों के सामने कई लोग कानून की धज्जियां उड़ाते हुए दिख जाएंगे, पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार वे ही इस काम में लिप्त दिखाई देते हैं। महिलाएं यदि सक्षम है, तभी वह सुरक्षित है। अन्यथा उसे नोंचने के लिए समाज का एक वर्ग तैयार बैठा है। इसे देखकर बुजुर्ग अपने पुराने दिनों की जुगाली करते दिखाई देते हैं। उनका मानना है कि देखते ही देखते काफी कुछ बदल गया है। पहले हम बाजार जाते थे, अब बाजार ही हमारे घर पर आ गया है। खाने की जो भी चीज़ चाहिए, वह आधे घंटे के भीतर आपके सामने होगी। घर में क्या सामान आएगा, यह बुजुर्ग नहीं, बच्चे तय करने लगे हैं। हां, उस सामान की राशि बुजुर्ग ही देंगे। सामान उनकी मर्जी का तो नहीं आएगा। वे क्या चाहते हैं, इसकी किसी को नहीं पड़ी है। उनकी पसंद-नापसंद का कोई मतलब ही नहीं है।
जीवन मूल्य ही नहीं, अब नैतिक मूल्यों का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। देखते ही देखते चीजें बदलने लगी हैं। हालात बदलने लगे हैं। हम कुछ नया सोचें, इसके पहले ही कुछ ऐसा नया आ जाता है कि हम पिछला सब कुछ भूल जाते हैं। कई बार इस दौड़ में हम पीछे रह जाते हैं। हम थक जाते हैं, इसी अंधी दौड़ में। शहरों में हम आ तो गए हैं, पर गांवों में आज भी हमारा बचपन कहीं दुबका पड़ा है। चाहकर भी हम उस बचपन को अपना नाम नहीं दे सकते। कभी पूरा गांव हमारा था, आज शहर का एक कोना जिसे हम घर कहते हैं, वह भी हमारा नहीं है। आखिर हमारा क्या है, यह यक्ष प्रश्न हर बुजुर्ग के भीतर कौंधता रहता है।
अब बाजार हमारे भीतर समाने लगा है। हम बाजार के होने लगे हैं। बाजार में क्या चीज बिकनी है, यह हम तय नहीं कर रहे हैं। इसके लिए कुछ विशेष शक्तियां लगातार काम कर रही हैं। बिचौलिए के बिना कोई काम संभव ही नहीं है। मूल रूप से चीजों की कीमतें बहुत कम हैं, पर एक सोची-समझी साजिश के तहत उन चीजों के दाम बिचौलियों के हाथों इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि साधारण इंसान को वह दोगुनी-तिगुनी कीमत पर मिल रहीं हैं। रोटी बनाने वाले और रोटी खरीदने वाले के बीच किसी तीसरे की भूमिका महत्वपूर्ण होने लगी है। यही तीसरा दोनों पर हावी है। अब वही आदेश देने लगा कि कितनी रोटी बननी है और कितनी रोटेी खरीदी जानी है। ऐसे में साधारण इंसान की कोई औकात ही नहीं है। वह लगातार पिस रहा है। उसकी सांसें उधार रखी हुई है। वह अपनी सांसों को लेने की भी ताकत नहीं रखता।
सरकारी आंकड़ों में आम आदमी की जिंदगी काफी आसान है। उसे हर तरह की सुविधाएं मिल रही हैं। तमाम सरकारी कार्यालय उसके काम के लिए तैयार बैठे हैं। हर कोई उसकी सुख-सुविधाओं का पूरा खयाल रख रहा है। पर हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है। आम आदमी आज भी महंगाई की चक्की में पिस रहा है। रोजगार की संभावनाएं लगातार कम होती जा रही है। किसी भी काम के लिए सरकारी महकमा काम नहीं आता। उसके काम में अनेक बाधाएं उत्पन्न की जाती हैं। इसके बाद भी कई लोगों के काम बहुत ही आसानी से हो जाते हैं। इसके पीछे का गणित हर कोई जानता है। ऐसे में आम आदमी की हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही है।
सरकारी आंकड़े सदैव झूठ बोलते हैं, यह जानते हुए भी लोग उस पर विश्वास करते हैं। ठीक हमारे नेताओं की तरह। जनता जानती है, इन नेताओं की हकीकत, इसके बाद भी जब वह सामने होता है, तो विरोध नहीं कर पाती। दूसरी ओर विज्ञापनों की दुनिया है, जिसमें खूब दावे किए जाते हैं, लोग जानते हैं कि इससे कुछ नहीं होने वाला, फिर भी न जाने किस प्रेरणा से वशीभूत होकर वह उत्पाद खरीद ही लेते हैं। इस तरह से मायाजाल है, जिसमें सभी उलझे हुए हें। सरकार का अलग मायाजाल है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अलग। इसमें उलझना सभी की मजबूरी है। न चाहकर भी इसमें लोग उलझते ही रहते हैं। विरोध की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। विरोध करने वाला कुछ दिनों बाद विरोध के काबिल ही नहीं होता। ऐसे में बहाव के साथ चलना हम सबकी विवशता है।
डॉ. महेश परिमल
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