गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

गरबे में छिपा जीवन का फलसफा

वरात्र शुरू हो गए हैं। इसी के साथ शुरू हो गई है युवाओं की मस्ती। गुजरात ही नहीं, अब तो पूरे देश में इन दिनों एक उत्सव का माहौल देखा जाता है। इन दिनों युवाओं के पैर थिरकने से नहीं चूकते। वे किसी न किसी बहाने से नगाड़ों की थाप पर अपने पांवों को थिरकने का मौका अवश्य देते हैं। वैसे देखा जाए, तो गरबा खेलना एक परंपरा ही नहीं, बल्कि इसके पीछे एक दर्शन है।

गरबा लय और ताल का सामंजस्य है। इसी में ही छिपा है जीवन का फलसफा। जिस तरह से गरबा खेलने के दौरान पता होता है कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब रोकना है और कब किसी के इंतजार में खड़े रहना है। यही कदमताल जीवन में भी आगे चलकर दिखाना होता है, तभी जीवन सार्थक होता है। अन्यथा सही कदमताल न होने के कारण कई जीवन बरबाद हो जाते हैं। गरबा खेलने में दर्शन को तलाशना थोड़ा हास्यास्पद लग सकता है। पर जीवन को दूसरे नजरिए से देखने वालों के लिए यह किसी दर्शन से कम नहीं है। इसकी फिलासफी को वही समझ सकते हैं, जिन्होंने गरबा खेला है। बचपन में अक्सर गरबा खेलते समय पीछे वाले का डांडिया हमारे सर पर लग जाता था। उस समय जोश-जुनून के आगे कुछ नहीं होता था, पर देर रात डांडिए की वह चोट अपना काम दिखाना शुरू कर देती थी। सिर के उस हिस्से पर उभार महसूस होने लगता था।
जीवन में विपदाएं आती ही रहती हैं। हम समझते हैं कि आखिर यह विपदाएं हमारे सामने ही क्यों आती हैं? अब ज़रा कामयाब लोगों की जिंदगी को देखें, तो समझ में आ जाएगा कि उन्होंने सारी विपदाओं का मुकाबला करने में खुद को तैयार किया। मुसीबतों का सामना करने की उनकी हिम्मत नहीं थी, फिर भी उन्होंने आगे बढ़ने का हौसला जुटाया। इन्हीं मुसीबतों से उन्होंने सीखा कि कब क्या करना चाहिए? अवसर तो सभी को मिलते हैं, कामयाब वही होते हैं, जो अवसरों को समझकर आगे कदम बढ़ाते हैं। अवसर ही हमें सिखाते हैं कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब पीछे करना है। कब कदमों को थाम लेना है। अब इसी से हम गरबे के दर्शन को समझने की कोशिश करें। गरबा खेलने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि कब कदम आगे बढ़ाना है, कब पीछे खींचना है। कब डांडिए को सामने वाले के डांडिए से टकराना है। कब थम जाना है। कब किसी के लिए खड़े होना है। अगर कोई इसे नहीं जानता, तो वह गरबा ही क्यों, कोई भी नृत्य नहीं कर सकता। केवल गरबा ही नहीं, बल्कि हर तरह के नृत्य में यही होता है। इधर संगीत की सुरलहरी, उधर कदमों का तालमेल। यही है नृत्य और यही है गरबा।
नगाड़ों की थाप के दौरान जो अपने कदमों को थिरकने से रोक दे, उसे क्या कहा जाए? अन्यायी? जी हां, उसे हम अन्यायी ही कहेंगे। मेरा विचार इससे एक कदम आगे जाकर ठहरता है, उसे अत्याचारी कहा जाएगा। जो अपनी इच्छाओं को मार डाले, अपनों के लिए जीने की जुगत में अपना सारा जीवन ही दांव पर लगा दे। सारी योग्यताएं होने के बाद भी उससे गाफिल रहे। चाहकर भी कुछ न कर पाए, उसे अत्याचारी ही कहेंगे ना? यह सच है कि कई बार परिस्थितियों का चक्रव्यूह इतना उलझा हुआ होता है कि इंसान के वश में करने के लिए कुछ नहीं होता। इसका मतलब यह तो नहीं होता कि जीवन ही समाप्त हो गया। आप कार से कहीं जा रहे हैं, सामने किसी बरात के कारण आप ट्रॉफिक में फंस गए, तो बजाए उस हालात पर खीझने के आप भी भीड़ में शामिल होकर कुछ देर के लिए डांस ही कर लें। इससे लोगों को तो मजा आएगा ही, आप भी कुछ देर के लिए सुकून महसूस करेंगे।
जिसे भी संगीत की थोड़ी-सी भी समझ है, वह उसकी सुरलहरी में खो ही जाता है। गुजरात के बच्चों-बच्चों गरबा के लिए बजने वाले नगाड़ों की थाप की अनुगूंज होती है। इसकी थाप सुनते ही उसके पांव थिरकने लगते हैं। यह उन्हें विरासत में मिला है। इसलिए गरबा खेलते समय युवाओं ही नहीं, बल्कि बुजुर्गों और बच्चों में भी एक विशेष प्रकार का उत्साह देखने को मिलता है। कुछ ऐसी ही स्थितियां ग्रामीण क्षेत्रों में भी देखने को मिलती हैं, जहां किसी समारोह में लोग गाजे-बाजे के साथ पूरी शिद्दत से नृत्य करने लगते हैं। वास्तव में इन्हीं नृत्यों में छिपा होता है जीवन का ककहरा। नृत्य के साथ जीवन को जीने की कला को समझा जाए, तो जीवन आसान हो सकता है। आप उन कोरियोग्राफर्स पर ध्यान दें, उनके पास जीवन की समस्याओं का समाधान मिल जाएगा, क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह से पता होता है कि किस रिदम में किस पांव को उठाना है, हाथ को कब और कैसे लहराना है। कब पीछे हटना है, कब आगे बढ़ना है। नृत्य में इसे ही अनुशासन कहते हैं। वास्तव में यही जीवन का अनुशासन है।
जीवन जीने की कला किसी किताब में नहीं, बल्कि चारों तरफ बिखरी पड़ी है। आवश्यकता है, उसे पहचानने की। चींटी और मकड़ी के जीवन से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अधिक दूर जाने की क्या आवश्यकता है। रोज ही किसी गाय या कुत्ते को रोटी दो, तो भी समझ में आ जाएगा कि जीवन में केवल पाना ही उपलब्धि नहीं है, बल्कि देना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं। जिसे रोज ही रोटी देते हो, उस गाय की आंखों में झांककर देखो, उसमें केवल प्यार ही मिलेगा। कुत्ते को ऐसे ही वफादार नहीं कहा जाता। रोटी देते समय उसकी हरकतें देखो। किस तरह से एक निश्चित समय पर वह आपके करीब आकर अपनी उपस्थिति का आभास दिलाता है। चुपचाप अपने हिस्से की रोटी लेकर आगे निकल जाता है। मेरा अनुभव है कि कई बार कुत्ते रोटी कहीं छिपा भी देते हैं। कई बार मिल-बांटकर खाते हैं। आपस में एक-दूसरे को देखकर गुर्राते भी नहीं। क्या इनकी हरकतें नहीं बताती कि हमें मिलजुलकर रहना चाहिए? इन जानवरों के बीच रहकर आप स्वयं को कभी अकेला नहीं मानेंगे। मात्र इनके हिस्से की रोटी देकर आप अनजाने में उनके साथी बन जाते हैं। क्या यह कोई कम उपलब्धि है? बताओ भला...?
डॉ. महेश परिमल

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