बुधवार, 31 मार्च 2010
स्वास्थ्य विभाग की ये कैसी सेवा?
-एस. स्वदेश
हाल में कुछ खबरिया चैनलों पर ऐसा ही वाक्या फिर दिखा। नागपुर के सरकारी अस्पताल में पांच दिन का एक मासूम नवजात अस्पतालकर्मियों की लापरवाही से जिंदा जला और मर गया।
दुर्गा काडे नाम की महिला ने 17 फरवरी को एक निजी अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था। दोनों बच्चों का सामान्य औसत वजन कम व अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण विशेष उपचार के लिए आक्सीजन पर रखा गया था। दो दिन में जुड़वां नवजात की स्थिति काफी अच्छी हो गई थी लेकिन निजी अस्पताल में प्रतिदिन का इलाज शुल्क ज्यादा होने से उसे दो दिन बाद ही शासकीय मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल में नवजात के शरीर को सामान्य रखने के लिए वार्मर में रखा गया लेकिन चिकित्साकर्मियों की लापरवाही से तापमान ज्यादा हो गया। वार्मर में लगे बल्ब की ताप से एक नवजात का एक तरफ का हाथ, पैर और छाती बुरी तरह से जल गई। नवजात के परिजनों का आरोप है कि जब नवजात जल रहा था, तभी उन्होंने अस्पतालकर्मियों को बताया लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पांच दिन का नवजात तड़प कर मर गया। मामले पर जब हंगामा हुआ तो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले की जांच का आदेश देकर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दे दिया। यह घटना अब तक शायद ही किसी को याद हो। शायद अस्पताल प्रशासन बाद में मामले को दबा भी ले तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ता लेकिन इस घटना के आधार पर यह अवश्य सोचना चाहिए कि आखिर देश में चिकित्सा विज्ञान किस ओर तरक्की कर रहा है। एक निजी अस्पताल में अस्वस्थ जन्मा बच्चा स्वस्थ हो रहा है लेकिन पैसे के अभाव में उसे मजबूरन सरकारी अस्पताल का आसरा खोजना पड़ता है पर इस आश्रय में लापरवाही का आलम इतना है कि मौत हर किसी को सहज लगती है।
कहने के लिए तो देश में मेडिकल का क्षेत्र तेजी से तरक्की कर रहा है। यहां इलाज इतना सस्ता है कि विदेशी पर्यटक इलाज के लिए भारत को चुन रहे हैं। मुंबई समेत प्रमुख शहरों के पांच सितारा सुविधा वाले अस्पतालों में तो विदेशी मरीजों के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। विदेशी मरीजों को किसी तरह की तकलीफ न हो, उसके लिए उनकी भाषा बोलने वाली और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशिक्षण प्राप्त नसोर्ं को नियुक्त किया गया है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तरह की उन्नति को उपलब्धि बताकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय हमेशा ही अपनी पीठ थपथपाता है पर एक बात गौर करने वाली है कि जितनी तेजी से देश में मेडिकल टूरिज्म का दायरा बढ़ा है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से देश के सरकारी अस्पतालों की हालत लचर हो गई है। तभी तो आए दिन देश के किसी न किसी अस्पताल में लापरवाही के कारण होने वाली मौत की खबर समाचारों में आती है। ऐसी खबर इतनी आम हो गई है कि अब इससे लोग नहीं सिहरते हैं। देश के प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स में चिकित्सकीय लापरवाही की कई घटनाएं हो चुकी हैं। पूर्वी दिल्ली में गुरु तेग बहादुर अस्पताल तो इस मामले में कुख्यात हो चुका है। मीडिया की सक्रियता से अब छोटे शहरों में अस्पतालों की लापरवाही की घटनाएं प्रकाश में आने लगी हैं। सवाल है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध होती भारत की मेडिकल व्यवस्था घरेलू स्तर पर फिसड्डी क्यों साबित हो जाती है? सीधा और सरल जवाब है? जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त संख्या में न डाक्टर हैं और न ही अस्पताल। इसका लाभ निजी अस्पताल वाले खूब उठा रहे हैं।
-एस. स्वदेश
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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