शुक्रवार, 19 मार्च 2010
परीक्षा, बच्चे, पालक और हम
डॉ. महेश परिमल
परीक्षाएँ शुरू हो गई हैं। पालकों की व्यस्तता के साथ-साथ चिंताएँ भी बढ़ गई है। बच्च पढ़ता नहीं, पालक उसे बार-बार टोकते हैं। पालकों की इस हरकत से बच्चे में हल्का विद्रोह झलकता है। जिसे वह व्यक्त नहीं कर पाता, क्योंकि वह देख रहा है, माता-पिता उसके लिए किस तरह से दिन-रात परिश्रम कर रहे हैं। परीक्षा के इन दिनों में माँ उसका विशेष खयाल रखने लगी हैं। बच्चे को समय पर सब-कुछ मिल जाए, इसके लिए वह सचेत रहती है। पिता अगले साल बच्चे की पढ़ाई में होने वाले खर्च की व्यवस्था में जुटे हैं। बच्चे को जब अपने ही सूत्रों से पता चलता है कि उसकी पढ़ाई के लिए पिता ने कहीं अतिरिक्त काम करना शुरू कर दिया है, तो वह फिर विद्रोह करने की स्थिति में आ जाता है। एक बार फिर इसे दबाना पड़ता है। आखिर यह कैसी शिक्षा है, जिसमें केवल धन ही काम आता है। जिनके पास प्रतिभा हो, पर धन न हो, वे तो कहीं के नहीं रहे। शिक्षा की इतनी बड़ी-बड़ी दुकानों को देखकर लगता है कि ये संस्थाएँ देश के एक-एक बच्चे को उच्च शिक्षा देने के लिए तत्पर हैं। जितनी संस्थाएँ हैं, उसे देखकर लगता है कि क्या ये अपना काम ईमानदारी से कर रही हैं? विद्रोही बच्च शांत हो जाता है।
जब भी परीक्षा की तारीखें घोषित होती हैं, बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है। यदि आँकड़ों पर जाएँ, तो स्पष्ट होगा कि सन् 2010 में जनवरी माह के पहले सप्ताह में ही अकेले महाराष्ट्र में ही 9 विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। केंद्र का स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार केवल तीन वर्ष में ही कुछ 16 हजार विद्यार्थियों ने अपने आपको इस शिक्षा के प्रदूषित गंगोत्री के नाम पर स्वाहा कर दिया।
विद्यार्थियों द्वारा की गई आत्महत्याएँ:-
वर्ष विद्यार्थी
2004 5610
2005 5183
2006 5857
हमारे देश में दुर्घटनाओं एवं आत्महत्याओं के कारण रोज 129 जानें चली जाती हैं। यह सच है कि आज के युवाओं में किसी भी विषय पर गहराई तक सोचने का माद्दा है। वे प्रौढ़ों से अधिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। किंतु युवाओं में धर्य की कमी होने के कारण वे जल्दी ही हताश हो जाते हैं और अपेक्षाकृत परिणाम न मिलने पर वे अपनी जान को गवाँ देने में जरा भी देर नहीं करते। 30 से 44 वर्ष की उम्र के लोगों में आत्महत्या का अनुपात प्रतिदिन 119 है। ऐसा लगता है कि उम्र के साथ-साथ लोगों की सहनशक्ति भी बढ़ने लगी है। 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में आत्महत्या का अनुपात 94 है। 2008 में देश में कुल एक लाख 25 हजार 17 लोगों ने आत्महत्या का सहारा लिया। इन आँकड़ों में विद्यार्थियों का आँकड़ा सबसे अधिक मजबूती के साथ हमारे सामने आया है। इसका सबसे बड़ा कारण लार्ड मैकाले द्वारा डेढ़ सौ वर्ष तय की गई शिक्षा पद्धति है। इसी शिक्षा पद्धति में परीक्षा पद्धति भी शामिल है। लाखों मौतों के बाद भी आज तक सरकार यह समझ नहीं पाई है कि आखिर शिक्षा पद्धति में दोष कहाँ है? सरकार प्रयास करना चाहती है, तो उस पर हावी शिक्षा माफिया ऐसा करने से रोकता है। इनसे मुक्त होने के लिए दृढ़ संकल्पशक्ति की आवश्यकता है, जो सरकार के पास नहीं है।
मैकाले के पहले इस देश में लिखित परीक्षा का कोई अस्तित्व ही नहीं था, सभी एक साथ बिना किसी भेदभाव के शिक्षा ग्रहण करते थे। यदि कोई विद्यार्थी किसी विषय में कमजोर होता था, तो इसका जिम्मेदारी शिक्षक ही होता है। फिर शिक्षक उस विद्यार्थी को अपने तरीके से उस विषय में पारंगत करता था। इस तरह की शिक्षा प्राप्त करते हुए विद्यार्थी को जब परीक्षा देने का अवसर मिलता, तो वह हँसते-हँसते परीक्षा में शामिल होता और उसमें उत्तीर्ण भी हो जाता। भारत में 19 वीं शताब्दी में होरेसमेन नामक अँगरेज ने लिखित परीक्षा की पद्धति शुरू की, जिससे हमारा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मुक्त नहीं हो पाया है। आज आपके बच्चे में गजब की तर्कशक्ति है, वह बहुत अच्छा विश्लेषक है, उनकी सूझ-बूझ गहरी है, तो परीक्षा में वह कभी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाएगा। पर यदि बच्च रटने में होशियार है, तो परीक्षा में वह आपके बच्चे को काफी पीछे छोड़ देगा। आज की परीक्षा प्रणाली ऐसी ही है कि जिसने रट्टा मार लिया, उसने मैदान मार लिया। इसी रटंत पद्धति के कारण परीक्षा के समय छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का सैलाब आ जाता है। ये भी अनुशासित शिक्षा माफिया की एक चालाकी है। जिसमें सरकार तो फँस ही गई है, पालक भी लगातार इसी भूल-भुलैया में जी रहे हैं।
समय बदल रहा है, अब केवल परीक्षा में फेल होने के डर से बच्चे आत्महत्या नहीं कर रहे हैं, बल्कि 90 प्रतिशत पाने वाला छात्र भी इसलिए आत्महत्या का सहारा ले रहा है, क्योंकि उसके 92 प्रतिशत क्यों नहीं आए? अब उसे मेडिकल में प्रवेश नहीं मिलेगा। माता-पिता की मेहनत पर मैंने पानी फेर दिया। अब क्या मुँह दिखाऊँगा उन्हें? इसलिए आज बच्चे से अधिक पालक को यह समझने की आवश्यकता है कि बच्चों को समझाएँ कि डिग्री नहीं काबिलियत पर जोर दो। जब भी पढ़ाई करो, दिल से करो। किसी प्रकार का धोखा मत दो। आज तुम जो धोखा अपने पालकों को दे रहे हो, वह भविष्य में तुम्हारे लिए ही मुसीबत बनकर आएगा। उन्हें यह समझाओ कि अपनी प्रतिभा को इतना अधिक तराशो कि तुम नहीं, तुम्हारा काम बोलेगा। आत्महत्या जीवन का समाधान नहीं, बल्कि कायरता की निशानी है। ईश्वर ने हमें कुछ करने के लिए ही इस संसार में भेजा है, तो हम ईश्वर को सामने रखकर कुछ ऐसा करें, जिससे लोग आप पर गर्व कर सकें। प्रतिभा को तराशोगे, तो जिंदगी सँवर जाएगी। कॉलेज में जब कैम्पस सेलेक्शन होता है, तो केवल प्रतिभा ही काम आती है, किसी मंत्री का बेटा होना काम नहीं आता। वहाँ तो मजदूर का बेटा भी सबको पीछे छोड़ सकता है। इसीलिए काबिल बनो, नौकरी तुम्हारे पीछे दौड़ेगी। डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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