शनिवार, 28 जून 2008

सच के बदलते चेहरे


डा. महेश परिमल
बिहार में किसी निर्माण कार्य में भारी घोटाले की शिकायत प्रधानमंत्री कार्यालय में करने वाले इंजीनियर सत्येंद्र कुमार दुबे की मौत हो गई. एक ईमानदार व्यक्ति की बेईमान मौत. यह समाचार हमारे लिए दु:खदायी हो सकता है, लेकिन क्या आपने सोचा कि यह समाचार आज की पीढ़ी को किसी भी तरह से व्यथित नहीं करता. उन्हें ऐसी बातों से कोई आश्चर्य नहीं होता. बात गंभीर है, लेकिन हम यह न समझें कि यह पीढ़ी इतनी संवेदनहीन क्यों हो गई है? नहीं-नहीं इसमें हमारा कोई दोष नहीं है, न ही हमारे संस्कारों का. आज की पीढ़ी यह अच्छी तरह से जानती है कि जो विरोधी है, उसे जीने का कोई हक नहीं है. विरोधी को जीने का अधिकार नहीं. यह बात आज के बच्चे रोज ही देखते सुनते हैं. करीब-करीब हर फिल्म और धारावाहिक में ऐसा ही होता है. जिसने सच का दामन थामा, वह गया काम से. वह मर जाता है या उसे मार दिया जाता है.
जो प्रभावशाली है, इातदार है, निश्चित ही उसके पास ऐश्वर्यशाजी जीवन होगा. ऐसे लोग ही होते हैं, जो अपने प्रतिद्वंद्वी को ठिकाने लगाने में जरा भी देर नहीं करते. आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ जान की कोई कीमत नहीं है. ईमानदार आदमी बड़ी मुश्किल से मिलता है. विडम्बना तो यह है कि उसकी ईमानदारी की परख के लिए एक बेईमान को नियुक्त किया जाता है. जो उसे ईमानदारी के रास्ते से हटाने के पूरे उपाय करता है, क्योंकि उसकी ईमानदारी से उसके जैसे कई बेईमानों की हालत खराब होती है.
हमने सच का चेहरा देखा है. कहा जाता है कि सच शाश्वत और सापेक्ष होता है, पर आज की पीढ़ी के सच और हमारी पीढ़ी के सच में काफी अंतर है. हमारा सच बहुत ही भोलाभाला है. उस सच के सहारे हमने बहुत-सी मुश्किलों पर विजय प्राप्त की है. हमारे सच ने पग-पग पर हमारा साथ दिया है. अब आज की पीढ़ी का सच देख लो. इसे मालूम है कि सच उसके कोई काम नहीं आने वाला. इस सच से उसे परेशानियाँ ही अधिक मिली है, इसलिए तो वह उस सच की तरफ भाग रहा है, जो मृगतृष्णा है. इसे वह भी जानती-समझती है कि यह सच उसे कहाँ ले जाएगा, पर आज लोग उसी सच की तरफ भाग रहे हैं.
यहाँ आकर सत्यमेव जयते का प्रेरक वाक्य बेमानी हो जाता है. सत्य की हमेशा ही जीत नहीं होती. इसे आज के न्यायाधीश भी बेहतर जानते हैं. उनका कहना हो सकता है कि वे तो सुबूत और गवाह से बँधे हैं, इसलिए हमारा फैसला गलत भी हो सकता है. इसे पुरानी पीढ़ी तो मान लेगी, पर जो आज के दौड़ते-भागते लोग हैं, उनके पल्ले यह बात नहीं पड़ेगी. वे तो दौड़ती-भागती खबरों पर भी नजर रखते हैं. उन्हें मालूम है कि सच क्या है? आरोपी भले ही खूनी क्यों न हो, वह अपराध करने के पहले उसकी सजा से बचने के सारे उपाय कर लेता है. इस कार्य में उसे वे सभी लोग सहायता करते हैं, जो प्रतिष्ठित हैं, ऐश्वर्य से युक्त हैं.


आज की पीढ़ी का सच दूसरा है. उसे कोई लेना-देना नहीं, संवेदना से. कोई भी करुणगाथा उसकी ऑंखें गीली नहीं करती. उसे हर हाल में हँसी आती है. रोना तो उसने सीखा ही नहीं. वह प्राप्त करना जानती है. उसे इंतजार पसंद नहीं, धैर्य नाम के किसी भी श?द से वह परिचित भी नहीं है. पानी को बर्फ बनता यह पीढ़ी कभी नहीं देख सकती. उसे तो चाहिए एक क्षण में करोड़पति कैसे हुआ जा सकता है? कोई उसका रास्ता बता दे.
सत्येंद्र दुबे हमारे लिए आदर्शहो सकते हैं, पर यह पीढ़ी उसे बेवकूफ कहेगी. आज जब रिश्वत लेना शिष्टाचार का अंग बन गया है, भ्रष्टाचार नित नए रंग और रूप में सामने आ रहा है, बेईमानी सबके रग-रग में बस गई है, तो इन हालात में सच कैसे और क्यों जिंदा रहना चाहेगा भला?
हँसी आती है हमें. आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो बिलकुल संवेदनहीन है. दया, करुणा से कोसों दूर. ऐसे में एक ईमानदार मौत उसे जरा-भी विचलित नहीं करती. उसे मालूम है ऐसे ही होती है, ईमानदारों की मौत. यह भले ही विडम्बना हो कि बेईमानों को भी अपने काम के लिए ईमानदारों की जरूरत होती है, लेकिन ईमानदारी वह गहना नहीं है, जिस पर गर्व किया जा सके. अब ईमानदारी सपने की बात है. आज परिभाषा बदल रही है. कोई ईमानदार इसलिए है क्योंकि उसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिला.
आज के बच्चे अक्सर अपने पिता से कहते हैं कि आपको क्या मिला अपनी ईमानदारी से? आज समाज में हमारी इात इसलिए नहीं है, क्योंकि हमारे पास धन नहीं है. हमारे घर एक बार भी इंकम टैक्स वालों का छापा नहीं पड़ा, हमारे घर कभी पुलिस नहीं आई. ये भी भला कोई इात है? आप अपनी ईमानदारी अपने पास ही रखें और हमें हमारे रास्ते पर चलने दें. यही है आज का सच और आज की सच्चाई का चेहरा. बदलता चेहरा और बदलती सोच.
डा. महेश परिमल

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