शुक्रवार, 20 जून 2008
कहानी कोम्पलिकेशन
भारती परिमल
'सागरिका समीर सक्सेना' इस खूबसूरत नाम को कागज पर लिखने के बाद डॉ. मयंक ने सामने की कुर्सी पर नजर डाली। उनके सामने सचमुच सागर-सी गहरी ऑंखों वाली खूबसूरत युवती अपने हमसफर के साथ बैठी थी। सारी कायनात आकर इस सुंदरता की बलैया लें, तो भी आश्चर्य न होगा, किंतु इस वक्त ये स्वयं ही उदासी का प्रतिरूप थी।
'कहिए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?' ऐसा कहते हुए डॉ. मयंक ने दोनों की ओर मुस्कराते हुए देखा। जवाब समीर ने दिया- डॉ., हमारी अभी अभी शादी हुई है और हम अभी बच्चा नहीं चाहते, इसलिए आप...
डॉ. मयंक ने पेन टेबल पर रख दिया और कठोर स्वर में उनसे पूछा- क्या मैं जान सकता हूँ क्यो? समीर जैसे इस सवाल के लिए पहले से ही तैयार था। तुरंत बोला- डॉ., अभी हमारी शादी को केवल 4 महीने ही हुए हैं। अभी तो हमारे मौज-मस्ती करने के, घूमने-फिरने के और एक-दूसरे को जानने-समझने के दिन हैं। हम इतनी जल्दी इस जवाबदारी को निभाने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। मेरी नौकरी को भी मुश्किल से एक साल हुआ है। सागरिका भी एम. ए. कर रही है। पहले हम अपने आप पर ध्यान दें। फिर बच्चे के बारे में कुछ सोचेंगे।
डॉ. मयंक का मन हुआ कि पूछ ले 'जब अपने आप पर ही ध्यान देना था, तो मौज-मस्ती करते हुए सावधानी क्यों नहीं रखी?' पर प्रत्यक्ष में उन्होंने केवल इतना ही कहा- देखिए, ये आपकी पत्नी की पहली प्रेगनेन्सी है। यदि इस समय एबॉर्शन करवाया गया, तो भविष्य में मुश्किलें हो सकती हैं। मैं आपको गर्भपात करवाने की सलाह बिलकुल नहीं दूँगा।
डॉ. की बात का समीर पर कोई असर नहीं हुआ। उसने निर्णयात्मक स्वर में कहा- नहीं, हम अभी 3-4 साल तक कोई बच्चा नहीं चाहते। आप ये काम कर दीजिए वरना शहर में दूसरे डाक्टर्स की कमी नहीं है। हम किसी दूसरे क्लिनीक में चले जाएँगे। चूँकि आपका नाम जाना-पहचाना है, इसलिए आपके पास आए हैं, प्लीा..। लेकिन इस प्लीा में विनती कम आदेश यादा था।
ओ. के. जब आप दोनों की यही मर्जी है, तो मैं क्या कर सकता हूँ। एक बार समझाना मेरा फर्ज था। उसे मानना न मानना आपके ऊपर है। ऐसा कहते हुए डॉ. मयंक ने फिर से पेन हाथ में पकडा और कुछ जरूरी कागाात तैयार करने में लग गए। उन कागाात पर पति-पत्नी दोनों के हस्ताक्षर लेने के बाद वे सागरिका को लेबर रूम में ले गए।
रूम से बाहर आते ही समीर ने प्रश् किया- डॉ. खतरे की तो कोई बात नहीं है? नहीं, फिलहाल तो खतरे की कोई बात नहीं है। सब कुछ अच्छी तरह से हो गया है, लेकिन भविष्य में यदि कुछ कॉम्पलीकेशन आ जाए तो कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है। बस आप दोनों को आगे से मौज-मस्ती के मामले में थोड़ी 'सावधानी' रखने की जरूरत है।
कुछ घंटे बाद जब दोनों क्लिनीक से निकले तो काफी खुश थे। यह बात केवल नए जोड़े समीर और सागरिका की ही नहीं है। आज की आधुनिक पीढ़ी में लाखों ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जिनके कारण दवाखानों में मरीजों की भीड़ लगी रहती है। देखा जाए तो पश्चिमी चकाचौंध ने डॉक्टरों की चांदी कर दी है।ँ
डॉ. मयंक एक ईमानदार डाक्टर है। वे इस तरह के केस में अपने पेशेन्ट को एक बार अवश्य समझाते हैं। भविष्य के हानि-लाभ की पूरी जानकारी देने के बाद ही वे अपने लाभ के बारे में सोचते हैं। किंतु आज तक वे यह नहीं समझ पाए कि आखिर ये पढ़े-लिखे और समझदार युवा ऐसा कदम क्यों उठाते हैं? भ्रूण हत्या पाप होने के बाद भी लोग अपने ही शरीर के एक टुकड़े को मारने में जरा भी देर नहीं करते। शादी के बाद की पहली प्रेगनेन्सी में तो जीवन की सारी खुशियाँ समाई होती है, दांपत्य जीवन का नव अंकुर.. गृहस्थ जीवन की शुरुआत का मूर्त रूप.. प्रेम का प्रतीक एक कोमल एवं सजीव अस्तित्व.. ये सभी आभूषण क्यों लोग केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए ही उतार फेंकने को विवश हैं? कहीं किसी की पढ़ाई अधूरी है, तो कहीं वैवाहिक जीवन का आनंद अधूरा है, तो कहीं पर नौकरी की शुरुआत है। बहाने.. बहाने.. और अनेक बहाने.. इन बहानों के बीच अजन्मे शिशु कोख से डस्टबीन तक का रास्ता तय कर लेते हैं और किसी को कोई अफसोस भी नहीं होता। डॉ. मयंक ये जल्दबाजी और लापरवाही कभी नहीं समझ पाए। उन्होेंने अपनी सोच को विराम दिया और घर की ओर रुख किया।
घर आते ही पत्नी मिताली ने बाँहे पसारे उनका स्वागत किया। 'आज तो बहुत अच्छे मूड में हो। कहो, क्या बात है? कहीं नौकरी में प्रमोशन तो नहीं मिला?' मिताली एक बैंक में काम करती थी। कुछ समय पहले ही उसने प्रमोशन के लिए परीक्षा दी थी। मयंक को लगा निश्चित ही आज उसका रिजल्ट आया है इसीलिए मिताली इतनी खुश दिखाई दे रही है।
'हाँ, प्रमोशन तो हुआ है, लेकिन बैंक में नहीं, जिंदगी में। अभी तक मैं केवल एक पत्नी थी अब मैं माँ बनने वाली हूँ। तो यह तो प्रमोशन ही हुआ ना? कहते हुए मिताली खुशी से खिलखिला उठी।
'लेकिन डॉ. मैं हूँ। इस बात की जानकारी पहले मुझे होगी फिर तुम्हें होगी। यह उल्टा कैसे हो गया?'
'मेरे प्यारे डॉ. साहब। आधी डाक्टर तो मैं भी हूँ। यूरीन टेस्ट से मैं ने प्रेगनेन्सी का पता लगा लिया है। मुबारक हो। मेरे साथ साथ आपका भी प्रमोशन हो गया है। आप पापा बनने वाले हैं।'
'सच मिती, आज मैं बहुत खुश हूँ। पूरे पाँच साल बाद हमारे जीवन में खुशी का यह क्षण आया है। आज का डिनर हम बाहर करेंगे।' ये कहते हुए मयंक ने मिताली को बाँहों में उठा लिया। डिनर कर वे देर रात घर लौटे और फिर नन्हें शिशु के बारे में बातें करते करते कब 1 बज गया पता ही नहीं चला।
अभी उन्हेंं सोए हुए आधा घंटा ही हुआ था कि फोन घनघना उठा। बड़ी मुश्किल से मयंक ने ऑंखें खोली। अब भला इतनी रात को किसका फोन हो सकता है? उसने गहरी नींद में सोई मिती को जगाना ठीक न समझा और स्वयं ही रिसीवर उठा लिया। सामने की तरफ से बड़े भैया बोल रहे थे। मयंक ने आश्चर्य से पूछा- भला इतनी रात को फोन क्यों किया? सब ठीक तो है ना? माँ-बाबूजी की तबियत तो ठीक है ना?
जवाब मिला- अरे पगले, सब ठीक है। और फिर रात होगी तुम्हारे लिए। यहाँ तो दिन का उजाला फैला हुआ है। सूरज की किरणें घर के ऑंगन में दस्तक देते-देते अब तेरे जीवन में दस्तक देने वाली है। खबर ही इतनी अच्छी है कि मैं तुझसे बात करने के लिए अपने आपको रोक न सका। इसीलिए आधी रात को तुझे फोन लगाया है।
मयंक के बड़े भैया अमेरिका में कई सालों से स्थायी रूप से बस गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पत्नी-बच्चों और माता-पिता को भी वहीं बुला लिया है। यहाँ भारत में केवल मयंक और मिताली ही रहते हैं।
हाँ, मयंक। मैं जो कुछ कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुन- तुम दोनों के अमेरिका आने के लिए जो सरकारी तैयारियाँ चल रही थीं, वे अब पूरी हो चुकी हैं। तुम्हें चार-पाँच दिनों में सारे दस्तावेज मिल जाएँगे। फिर एक-दो महिने में तुम दोनों यहाँ आ सकते हो। समय बहुत ही कम है। तुम अपनी प्रेक्टिस समेटना शुरू कर दो। मकान जल्दबाजी में बेचना ठीक नहीं है। इसलिए फिलहाल उस पर ताला लगाना ही ठीक होगा। हाँ, वाहन और अन्य बड़े सामान तुम चाहो तो बेच सकते हो। कुल मिलाकर अब तुम सब कुछ समेटना शुरू कर दो और एक-दो महीने में यहाँ आ जाओ। यहाँ हम सभी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कई सालों बाद पूरा परिवार एक साथ एक छत के नीचे रहेगा। हम सभी की चाहत अब पूरी होने वाली है। बस तुम और मिताली अब यहाँ आने की तैयारी शुरू कर दो।
सुबह जब मयंक ने यह खबर मिताली को सुनाई तो वह भी खुश हो गई। उन दोनों की चाहत अमेरिका जाने की थी। कितने लंबे समय की तैयारियों के बाद ये चाहत पूरी हो रही थी। अपनों के बिना यहाँ उनका मन भी नहीं लगता था। करीब-करीब सभी रिश्तेदार तो वहीं अमेरिका में ही थे। यहाँ तो केवल वे दोनों बस अपने दिन ही काट रहे थे।
मिती को प्यार से अपने करीब बैठाते हुए मयंक बोला- मिती, अमेरिका जाने की खुशी तो मुझे भी बहुत है। वहाँ जाते ही सालों का सपना पूरा होने के साथ-साथ हमारा संघर्ष भी शुरू हो जाएगा। चार-पाँच साल तो अपनी पहचान बनाने के लिए काफी मेहनत करनी होगी। वहाँ की डिग्री प्राप्त करने के लिए फिर से पुस्तकों से नाता जोड़ कर दिन-रात पढ़ाई करनी होगी। दूर की सोच कर देखें तो संयुक्त परिवार में रहना हमारे लिए संभव नहीं है। अलग रहते हुए हमें साथ रहने की आदत नहीं है, सो यादा से यादा साल भर का साथ ही बहुत होगा। जब तक मेरी पढ़ाई चलेगी तब तक 3-4 साल के लिए तुम्हें नौकरी करनी पड़ सकती है। नया देश.. नया शहर.. नए लोग.. नई संस्कृति और एक नया संघर्ष.. डार्लिंग ये सभी के बीच एडजस्ट होने के लिए तुम्हें एबॉर्शन करवाना ही होगा।
क्या? मिती चीख पड़ी। मयंक, जानते हो तुम ये क्या कह रहे हो? कितने सालों बाद हमारी ये चाहत पूरी हो रही है और तुम मुझे एबॉर्शन करवाने की सलाह दे रहे हो?
हाँ, डियर। हम अगले पाँच वर्षो तक बच्चे की जवाबदारी नहीं उठा सकते। वी कान्ट अफोर्ड ए चाइल्ड फोर फाइव इयर्स, सॉरी। ये बात वही डॉ. मयंक कह रहा था, जो एक दिन पहले यह सोच कर परेशान हो रहा था कि क्यों लोग अपनी अजन्मी संतान को इस दुनिया में आने नहीं देते और इसके लिए अनेक बहाने खोज निकालते हैं। उन अनेक बहानों में से एक बहाना डॉ. मयंक ने भी ढूँढ लिया था।
अमेरिका में डॉ. मयंक और मिताली को बसे हुए पंद्रह साल हो गए हैं। मयंक की प्रेक्टिस अच्छी चल रही है। मिती को भी एक बैंक में अच्छे पद पर नौकरी मिल गई है। धन-दौलत, सम्मान, बड़ा सा बँगला सभी कुछ है उनके पास। बस कमी है तो केवल एक संतान की। कभी-कभी एबॉर्शन के किसी केस में कॉम्पलीकेशन भी आ जाते हैं। हजारों मरीजों के कॉम्पलीकेशन ठीक करने वाले डॉ. मयंक अपनी तकदीर का कॉम्पलीकेशन ठीक नहीं कर पाए।
भारती परिमल
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कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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aisa bhee hota hai..........
जवाब देंहटाएंacchee lagee kahanee.
Mahesh ji aap ki shabd sadhana srahni hai. aap ek bhavana se is sadhan mein jute lage hain aur jo sadhak hota ha who phal ke lobh ya moh mein sadhan nai karta hai
जवाब देंहटाएंapneshabd sadhan jari rakhe
sambhaw ho sake to aap ka ha lekh mujhe email kar deen is se jald aasani se aap ki rachnaein padhne mil jaya karege
Shakila