डॉ. महेश परिमल
पहले जब मशीनें नहीं थीं, तब हम आज से अधिक सक्रिय थे. अल्सुबह उठकर दिन भर काम के बाद चौपाल पर बैठकर अपने बुंजुर्गों से बतिया भी लेते थे. उनके अनुभवों के संसार में विचर भी लेते थे. अपनी नासमझी को कुछ आकार दे लेते थे. भले अनपढ़ थे, पर पढ़े-लिखों के कान काटते में पीछे नहीं रहते थे. पुत्र को दुनियादारी समझा सकते थे. पुत्र भी हमारी इन खूबियों को बहुत अच्छे से जानता-समझता था. पर अब वह बात नहीं रही. अब यदि पुत्र हमारी बात नहीं मानता, इसका मतलब यही है कि वह भी यह अच्छे से जानता है कि हम अब तक लकीर के फकीर बने बैठे हैं. हम भी अब काहिल होते जा रहे हैं. अब वह यदि हमारी बात नहीं मानता, तो उसके पीछे उसकी यही सोच है कि हममें कुछ नया करने की चाहत ही खत्म हो गई है. हमसे नए विचारों ने नाता ही तोड़ लिया है. हम आधुनिक नहीं रहे, क्योंकि काहिली हमारे भीतर पसर रही है.
सचमुच आज हम दिनों-दिन काहिल होते जा रहे हैं. इतने काहिल कि आज हम अपना कोई काम भी ठीक से नहीं कर पा रहे हैं. परवशता हमारे रग-रग में समाती जा रही है. अपने कार्यालय जाकर काम कर लेना ही हम अपना सबसे बड़ा धर्म समझते हैं. उसके बाद घर आकर एक गिलास पानी लेना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. इसे काहिली की हद न कहें, तो और क्या कहें? अब न तो चौपाल है, न वे बुंजुर्ग. अब तो केवल परनिंदा है, और हैं षडयंत्र. यदि चौपाल है, तो वह भी आजकल इन कुरीतियों का मंच बनकर रह गया है.
उस दिन यात्रा के दौरान एक मंजेदार वाकया हुआ. ट्रेन में लोग मूंगफल्ली खा रहे थे और छिलके वहीं अपने पाँव के पास ही फेंक रहे थे. यही नहीं जो खिड़की के पास बैठे थे, वे भी छिलके बाहर फेंकने की जहमत नहीं उठा रहे थे. बातचीत का सिलसिला कश्मीर से कन्याकुमारी ही नहीें, बल्कि शिकागो से कनाडा, अमेरिका, जापान और भी न जाने कहाँ-कहाँ से गुंजरता रहा. आसपास के लोग भी बड़ी तन्मयता से उन महानुभावों का वार्तालाप सुन रहे थे. इतने में एक लड़का झाड़ू लेकर आया और वहाँ सफाई करने लगा. कुछ देर बाद पूरा कूपा साफ दिखने लगा. अपना काम खतम करके उसने लोगों से कुछ पैसे माँगे. लोगों ने गर्व से उस लड़के को कुछ सिक्के दिए. बातचीत का सिलसिला फिर जारी हो गया. टे्रन जब स्टेशन पर पहँची, तब सब यह देखकर हैरान थे कि उस लड़के ने वह सारा कचरा टे्रन के दरवाजे के पास रख छोड़ा था. अब लोग उस लड़के को भला-बुरा कहने लगे. वह लड़का वहाँ उपस्थित नहीं था, फिर भी लोग अपनी भड़ास निकाल रहे थे.
यह था हमारी काहिली का एक नमूना. ऐसी काहिली हम अक्सर दिखाते रहते हैं. घर में एक दिन सुबह-सुबह ही जब कामवाली बाई के न आने की सूचना मिले, तब देखो हमारी इस काहिली का प्रदर्शन. कोई काम हमसे ठीक से नहीं हो पाता. हर काम के लिए आश्रित रहने की आदत जो पड़ गई है. अगर अपने सारे काम स्वयं करने की आदत होती, तो शायद इस तरह की नौबत नहीं आती.
हम भीतर से टूट रहे हैं. इसका हमें अभी आभास भी नहीं हो पा रहा है. हमारे भीतर एक आलस्य जन्म लेने लगा है. हम आज खुद के नहीं हो पा रहे हैं. लोग हमें दूसरों को पहचानने को कहते हैं, पर आज हम स्वयं को नहीं जान पा रहे हैं. हमारे भीतर ही है, हमारा अकेलापन. इसे हम दिखाना तो नहीं चाहते, पर यह यदाकदा हमारे काम से सामने आ ही जाता है. बाहर हम कितना भी दिखावा करें. अभिमान करें, पर हम अपना वह स्वरूप नहीं दिखा पाते, जो हम दिखाना चाहते हैं. बहुत-बहुत अकेले हो गए हैं, हम सब. जिन छोटे-छोटे काम को करते हुए पहले हम गर्व महसूस करते थे, आज वही काम करने में हमें शर्म महसूस होती है. हमने अपने बचपन में न जाने कितनी बार कीचड़ से खेला होगा, पर आज हमारा बच्चा उसी कीचड़ में खेलता है, तो हम एक आशंका से सिहर उठते हैं, कहीं किसी बीमारी ने जकड़ लिया तो? कोई देख लेगा, तो क्या कहेगा और क्या समझेगा? यह धारणा हमें एक आवरण में ढँकना चाहती हैं. हम उसी आवरण में रहना चाहते हैं. यही आवरण एक मायावी संसार को जन्म देता है. जहाँ हम भीड़ में रहकर भी अकेले हैं. आज लोग अपने पुश्तैनी काम करने में शर्म महसूस करते हैं. किसान का बेटा खेती करने से जी चुराता है. बढ़ई का बेटा पिता के हुनर को आगे नहीं बढ़ाना चाहता. उसे कम से कम वेतन वाली नौकरी मंजूर है, पर अपना पुश्तैनी धंधा करना स्वीकार्य नहीं. दस पंद्रह एकड़ जमीन के स्वामी आज शहर जाकर नौकरी करना पसंद करते हैं. यह एक अजीब स्थिति है. नौकरी में अपनी पूरी ऊर्जा खपाकर समझ में आता है कि उन्होंने अपनी खेती का काम छोड़कर अच्छा नहीं किया. पर तब तक बहुत देर हो जाती है.
इसे ही हम काहिली कह रहे हैं. कोई जोखिम तो उठाना हमने सीखा ही नहीं. हमारी संवेदना मरने लगी है. खुद बिखर रहे हैं, पर समेटने का काम करना नहीं चाहते. बेकार की बातचीत में हमारा काफी बक्त निकल रहा है. चिंतन हमसे दूर होने लगा है. नए विचारों के सारे दरवाजों को हमने बंद कर रखा है. पुराने विचारों से इस तरह जकड़ गए हैं कि नए विचार आ ही नहीं रहे हैं. बढ़ई का बेटा अपने लिए महँगे फर्नीचर खरीदता है, उसे यह अच्छी तरह मालूम है कि उसमें क्या खामियाँ हैं, पर वह लाचार है, चाहकर भी वह उस कमी को पूरा नहीं कर पाता. उस खामी को भी वह दूसरों से दूर कराना चाहता है. कई ऐसे काम हैं, जो हम पहले तो बहुत अच्छे से करते थे, पर अब वहीं काम करने मेें हमें शर्म आती है. अगर कोई यह काम करना चाहे, तो हम खुशी से उसे वह काम करने देते हैं. निश्चित ही हमें उसका काम पसंद नहीं आता, पर क्या करें, उसे वैसे ही स्वीकारना हमारी मजबूरी है. उस काम का परिणाम जब सामने आता है, तब हमें पता चलता है कि हम ंगलत थे. पर अब क्या किया जा सकता है. काहिली तो दूर होने से रही. यही काहिली हमारी संतान को विरासत में मिलने लगी है. इस तरह से अपने बच्चों को काहिली के संस्कार दे रहे हैं, उस पर उनसे यह अपेक्षा करें कि वह मेधावी और तेजस्वी बने, यह कैसे संभव है?
डॉ. महेश परिमल
गुरुवार, 15 नवंबर 2007
हमारी काहिली और उनके ऐश
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आप का लेख पढ़ा।अच्छा लिखा है...सच है कि आज काहिली हम बच्चों को विरासत में दे रहे हैं लेकिन इस काहिली का कारण मात्र यह नही कि हम अपना काम खुद नही करते...बल्कि यह भी है कि आज जो काम जिस के जिम्में है वह भी उस काम को पूरा करनें मे जी चुराता है
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण है हमारी बदलती प्रवृतियों पर...
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