डा. महेश परिमल
जीत की खुशी तो सभी मनाते हैं, पर कभी हार का जश्न मनाते देखा है किसी को? हमारी हार किसी को दो पल के लिए खुशी दे सकती है, तो क्या आप जीतना पसंद करेंगे? खासकर वह हार अपनों के बीच हो, अपनों के लिए हो.
हम बच्चों के साथ ऐसा ही होता है. हमारे पास संभावनाओं का अनंत आकाश है. हमारा आकाश इतना बड़ा है कि अनंत विचारों की पूरी श्रृंखला ही उसमेें समा सकती है. जब कोई बच्चा कहता है कि मेरा ये रॉकेट कितना तेंज भागता है. यदि उस वक्त कह दिया जाता है कि हाँ जानता हूँ, तब तो आपने हमारी तमाम संभावनाओं पर पानी ही फेर दिया. पर उस वक्त छोटा बनकर हमारे प्रश्न का उत्तर न देकर उल्टा प्रश्न करें, तुम ही बताओ, तुम्हारा रॉकेट कितना तेंज भागता है? फिर देखो हमारी उड़ान. हम ले जाएँगे अपने रचना संसार में, इतनी दूर-दूर तक ले जाएगा कि आप थक जाएँगे. यहाँ पर हमारे पालकों के धैर्य की परीक्षा होती है. हम बताएँगे कि रॉकेट कैसे बनता है, वह कैसे उड़ता है, वह किससे उड़ता है. उसका चालक कौन कैसा होता है. उसकी कॉकपिट कहाँ होती है. जब रॉकेट को ऊपर उड़ाना होता है, तब कौन-सा गेयर लगाया जाता है. उसके सामने डैश बोर्ड पर कौन-कौन से बटन होते हैं, उसके क्या-क्या उपयोग हैं. यह तो बडाें की जिज्ञासा पर निर्भर करता है कि वे कितना जानना चाहते हैं. आप थक जाएँगे, पर हमारी बातें खत्म नहीं होंगी.
बच्चे अनंत संभावनाओं का प्रकाश पुंज हैं. प्रारंभ में ऐसा लगता है कि बच्चे बड़ों से प्रकाशवान हैं, लेकिन होता ऐसा है कि बडे ही बच्चों से प्रकाशवान होते हैं. हममें ऊर्जा का अजस्र स्रोत छिपा होता है. लोग हमें सदैव छोटा ही समझते हैं, इसलिए हमसे हारना तो जानते ही नहीं. यह भी जानने की कोशिश नहीं की जाती कि ऊर्जा का स्रोत हमारे पास भी है. हम कुछ नहीं जानते, बड़ों का यह सोचना हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है. हमे लग जाते हैं, अपने अन्वेषण मेें. हमारा यह अन्वेषण खाली नहीं जाता है. हम येन-केन-प्रकारेण अपने लायक ज्ञान बटोर ही लेते हैं. यदि हममें कुछ जानने की दृढ़ इच्छाशक्ति है, तो हम किसी भी तरह से अपना ज्ञान बढ़ा लेते हैं.
अपने इस ज्ञान को हम बच्चे बाँटना चाहते हैं. कभी दोस्तों से तो कभी बड़ों से. दोस्तों से बाँटते समय तो हम केवल दोस्त ही रहते हैं, पर बड़ों से बाँटते समय हम कुछ और ही हो जाते हैं. चूँकि बड़े ही हमारे करीबी होते हैं, इसलिए हम उनसे कुछ ज्यादा ही खुले हुए होते हैं. इसीलिए जब हम पूछते हैं कि क्या आप यह जानते हैं? तो अच्छे पालक उस समय ना कह देते हैं. यह ना हमारे रचना-संसार के द्वार को खोल देता है. बस यहीं से शुरू हो जाती है हमारी ज्ञानवार्ता. आप जितना ना कहेंगे, उतना ही हम ज्ञानवान बनकर बताएँगे. हो सकता है, पहले हम ंगलत बताएँ. लेकिन इससे हमारी ज्ञानपिपासा का अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमने न जाने कहाँ-कहाँ से ज्ञान प्राप्त किया है. हम बताना चाहते हैं, अपने रचना-संसार में ले जाना चाहते हैं. कौन जाना चाहेगा हम बच्चों के रचना संसार में?
बच्चे कोमल मन का दर्पण होते हैं. बड़े उनमें अपनी साफ तस्वीर देख सकते हैं. इसके लिए निर्मल हृदय की आवश्यकता होती है. बड़ों का हृदय हमारी कोमल भावनाओं से मिल जाता है. यहीं जन्म होता है आपसी विश्वास और समझदारी का. हमेें समझने का प्रयास करें. माता-पिता का कर्त्तव्य बच्चे की परवरिश करना ही नहीं है, बल्कि उसे ज्ञानवान बनाना भी है. स्कूली शिक्षा से बच्चे को साक्षर तो बनाया जा सकता है, लेकिन ज्ञानवान नहीं बनाया जा सकता. बच्चा ज्ञानवान बनेगा बड़ों की कोशिशों से. उनके प्यार से, विश्वास से. यही प्यार और विश्वास भविष्य में हमारी पूँजी बन जाएगा और हम भी ज्ञानवान बनकर अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करेंगे.
डा. महेश परिमल
शुक्रवार, 16 नवंबर 2007
बच्चों के साथ हार कर भी देखें
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपके विचार आपका लेखन सराहनीय है. बच्चो के मनोविज्ञान को समझने मे एक अहम् सूत्र भी.
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