भारती परिमल
हाल ही में उच्च स्तर पर महिलाओं के उत्पीड़न की दो घटनाएँ सामने आईं, इससे ही स्पश्ट है कि साल में दो बार देवी की पूजा करने वाले पुरुश प्रधान देष में महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है।पहली घटना तो जाँबाज किरण बेदी की है, जिन्हें दिल्ली का पुलिस कमिष्नर नहीं बनाया गया। किरण बेदी हर दृश्टि से पुलिस कमिष्नर बनने के काबिल है। उपलब्धियों के नाम पर उनके पास ढेर सारी प्रतिभाएँ हैं, फिर भी उन्हें काबिल नहीं समझा गया। दूसरी घटना मध्यप्रदेष की डीआईजी अनुराधा षंकर सिंह की है, जिसने भोपाल में नक्सलियों के एक अड्डे पर छापा मारकर कई नक्सलियों को गिरफ्तार किया। इस मामले में पहले तो इस केस से जुड़े सभी लोगों को पुरस्कृत करने की निर्णय लिया गया था, किंतु बाद में यह निर्णय बदल दिया गया और अनुराधा षंकर सिंह को केवल प्रषंसा पत्र दिया गया। इस पर श्रीमती सिंह ने अपनी नाराजगी जताते हुए प्रषंसा पत्र गृह विभाग को वापस कर दिया। सोच लो, जब इतने बड़े स्तर पर महिलाओं के साथ इस प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है, तो सुदूर गाँवों में रहने वाली महिलाओं के साथ क्या होता होगा? गुजरात में जब एक विवाहिता ने ससुराल के अत्याचारों से तंग आकर पुलिस में रिपोर्ट करानी चाही, तब पुलिस ने उसकी रिपोर्ट लिखने से इंकार कर दिया। इसके बाद उसने वह रुख अपनाया, जिसे देखकर समाज का सर षर्म से झुक गया। अपनी माँगों को लेकर वह केवल अंतर्वस्त्रों में ही खुली सड़क पर निकल आई, और सबका ध्यान अपनी ओर आकृश्ट किया। बाद में उसने बताया कि इसके अलावा उसके पास ध्यानाकर्शक का कोई और विकल्प था ही नहीं।
हमारे देष में आज महिलाओं की स्थिति बहुत ही सोचनीय है।आष्चर्य इस बात का है कि हमारे किसी भी धर्म में ऐसा नहीं कहा गया है कि महिलाओं की उपेक्षा करनी चाहिए। सभी धर्म महिलाओं को पुरुश के समान अधिकार देने की बात करते हैं, पर सच्चाई इससे कोसों दूर है।आज भावी महिला को कोख में मार देने का चलन लगातार बढ़ रहा है। महिलाओं की संख्या अपेक्षाकृत लगातार कम होती जा रही है।महिला उत्पीड़न के रोज ही नए-नए मामले सामने आ रहे हैं। आष्चर्य की बात तो यह है कि इस उत्पीड़न में महिला की ही मुख्य भूमिका होती है। यानि कि नारी ही नारी की दुष्मन है। अब तो इस तरह की कोई भी घटना हमें विचलित नहीं करती। यह सीधे हमारे संवेदनाओं पर हमला है। एक तरफ भारतीय महिलाएँ अपनी गौरव-पताका विदेषों में फहरा रही हैं, तो दूसरी तरफ हर पल उत्पीड़न का षिकार हो रही है।समाज का यह दोहरा रूप केवल हमारे देष में ही देखा जा सकता है।
एक मुहावरा है '' न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी'', बेटी को कोख में ही मौत देने वाले षायद यही सोचकर इतना बड़ा कदम उठाते होंगे।ये नासमझ हैं, इन्हें कैसे समझाया जाए कि बाँसुरी की मीठी तान के लिए बाँस का उगना भी बहुत जरूरी है। आधुनिकता की राहों पर आगे बढ़ती महिला जब सफलता के षिखर को छूती है, तो हम उस पर गर्व करते हैं, किंतु इसके विपरीत जब पुरूश उत्पीड़न की षिकार हुई ये महिलाएँ अपने अधिकारों को लेकर या स्वयं पर हुए अत्याचार के विरोध में आवाज उठाती हैं, तो उस आवाज को रोकने की पूरी कोषिष की जाती है। उन्हें झूठा साबित कर दिया जाता है। पुरूश प्रधान समाज की कुंठित विचारधारा के आगे महिलाओं के स्वतंत्र विचार काफी बौने हैं। यही कारण है कि उनकी आधुनिक उपलब्धियाँ भी स्वयं उनके ही लिए घातक साबित हो रही हैं।
सफलता के नाम पर नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली महिलाओं की स्थिति हमारे भारत में अत्यंत दयनीय है। आज भारत में हर 54 मिनट पर किसी महिला के साथ दुश्कर्म, हर 26 मिनट पर छेड़छाड़ और हर 10 मिनट पर दहेज के लिए हत्या हो रही है। मोटे तौर पर कहें तो हर घंटे महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार हो रहा है। महिला उत्पीड़न के ये ऑंकड़े यही दर्षाते हैं कि हमारा समाज कितनी भी प्रगति कर ले, किंतु महिला अपना सब कुछ होम करने के बाद भी प्रगति की इस दौड़ में पीछे ही रहेगी।
अपने विकास की इस आधी-अधूरी यात्रा के लिए पुरूश वर्ग जितना जिम्मेदार है, उतनी ही महिला स्वयं भी जिम्मेदार है। समय के साथ आए बदलाव को महिला ने अपनी जरूरत के मुताबिक स्वीकार किया और जहाँ उसकी जरूरतें पूरी हुई, वह इस बदलाव से अलग हो गई। स्वयं की इस स्वार्थी विचारधारा ने ही उसे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया कि वह आधुनिकता की दौड़ में तो आगे बढ़ती गई किंतु फिर एकाएक पीछे धकेल दी गई।
आज समय बदल रहा है, सोच बदल रही है, समाज बदल रहा है, किंतु महिलाओं के प्रति पुरूश की सोच में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। आज जरूरत है इसी बदलाव की। महिलाओं ने अपना भाग्य पुरूशों के हाथों में सौंप दिया, नतीजा यह हुआ कि उसकी संख्या में ही निरन्तर कमी आती गई और प्रताड़ना का स्तर बढ़ता गया। चार लोगों के बीच सम्मान और प्रषंसा पाने वाली महिला अकेले में चीखती रही, चिल्लाती रही, पर उसकी आवाज सुनने वाला कोई न था। अपनी इस स्थिति के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। यदि उसे अपनी स्थिति सुधारनी है, तो अब समय आ गया है कि वह भीतर से मजबूत बने। सौंदर्य-रक्षा के लिए मंच पर आने वाली रूपसी को आत्मरक्षा के लिए आगे आना होगा। अपने पर होनेवाले अत्याचारों को मिटाने के लिए स्वयंसिध्दा के रूप में सामने आना होगा। तभी महिला आत्मरक्षा के साथ-साथ समाज व देष की भी रक्षा कर पाएगी। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का वक्त आ गया है।बहुत हो चुका, पुरुशों की गुलामी सहना।
पुरुशों की गुलामी से छूटने के लिए सबसे पहला कदम उसे अपने लिए ही उठाना होगा। षुरुआत खुद से ही करनी होगी। एक मासूम को जन्म लेने के पहले मार डालने में स्वयं नारी की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक माँ, एक डॉक्टर, एक नर्स, एक दाई, इन सभी के सहयोग से ही एक मासूम इस दुनिया को देखने के पहले ही दुनिया छोड़ चुकी होती है।जीवन का उजाला उससे हमेषा-हमेषा के लिए दूर हो जाता है।ये नारियाँ अपनी भूमिका को समझे। अधिक दूर जाने की आवष्यकता नहीं है, सबसे पहले तो उस माँ को ही यह सोचना है कि जो वह आज अपनी कोख में पलने वाली उस नन्हीं को मार डालने की सोच रही है, यदि ऐसा ही उसकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या आज यह स्थिति आती? धन के लिए अपना ईमान भी गिरवी रखने वाली उस डॉक्टर को भी सोचना होगा कि क्या वह सही कर रही है? एक मासूम कोख से डस्टबीन का रास्ता इन्हीं हाथों से पार कर लेती है और ये सब नारियाँ देखती रहती हैं। मासूम निगाहों ने कभी कुछ कहा? वह तो चली गई, पर उसे मौत के मुँह में धकेलने वाली यही नारियाँ यदि आज प्रताड़ित हो रही हैं, तो उसके लिए दोशी क्या केवल पुरुश ही है? सोचो, सोच की इस लहर को किनारे तक लाओ, तभी कुछ सुपरिणाम सामने आएँगे। नहीं तो चीखने चिल्लाने से कुछ नहीं होगा, प्रताड़ना का यह दौर चलता ही रहेगा। जिस दिन महिला उत्पीड़न के मामले में महिलाओं की गिरफ्तारी बंद हो जाएगी, उसी दिन से इस दिषा में कुछ नया होने की संभावनाएँ हैं। इस ओर एक कदम तो आगे बढ़ाओ, फिर देखो क्या होता है?
भारती परिमल
गुरुवार, 29 नवंबर 2007
अर्धनग्न नारी सड़क पर, नारी उत्पीड़न का बढ़ता दायरा
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख, टिप्पणी करने लायक शव्द शेष नहीं हैं । एकाध टंकण त्रुटियों को ठीक कर लीजियेगा ।
जवाब देंहटाएंआरंभ : शिवरीनारायण देवालय एवं परंपराएं
कड़वी सच्चाई लिखी है आपने
जवाब देंहटाएंlekh bahut acchha lagaa magar in panktiyon kaa arth shayaad mai samjh nahi paayi...समय के साथ आए बदलाव को महिला ने अपनी जरूरत के मुताबिक स्वीकार किया और जहाँ उसकी जरूरतें पूरी हुई, वह इस बदलाव से अलग हो गई। aur rahi svyam ko hom kar deney ki baat to jahan tak mujhey lagtaa hai...ye striyochit gund hai jo shrishti rahtey kabhi strii mun se smaapt nahi honey vaala ,is pravratii ke kaarn hi bhaartiya naari ghar aur baahar dono shetron me bhali bhaanti khari utri hai.
जवाब देंहटाएंयदि उसे अपनी स्थिति सुधारनी है, तो अब समय आ गया है कि वह भीतर से मजबूत बने। ....
जवाब देंहटाएंअपने पर होनेवाले अत्याचारों को मिटाने के लिए स्वयंसिध्दा के रूप में सामने आना होगा। ... सत्य वचन