सोमवार, 12 नवंबर 2007

गरीब के अभिनय से लाखों की कमाई

डॉ. महेश परिमल
इस बार दीपावली के अवसर पर दूरदर्शन ने दिखाई फिल्म बागवान, इस फिल्म को देखने के बाद लगा कि क्या गरीबी के अभिनय से लाखों कमाए जा सकते हैं? ऐसा हो भी सकता है? शायद नहीं, पर यह सच है, जो आज हमारे आसपास बिखरा पड़ा है और हम इस सच से जी-चुरा रहे हैं. सबसे पहले आते हैं हम गरीब पर. यह गरीब कौन है? वैसे देखा जाए, तो कोई अमीर नहीं है. हर अमीर की डोर गरीबी से जुड़ी होती है. यदि यह कहें कि गरीबी की कोख से ही अमीरी का जन्म होता है, तो गलत नहीं होगा. जब तक गरीब हैं, अमीर रहेंगे ही. गरीबों के द्वारा बनाए गए महलों में अमीर रहते हैं. सम्पन्न देशों में रहने वालों की दृष्टि में गरीब वह है, जिसके पास अच्छा बंगला नहीं, जिसके पास कार नहीं है, या फिर जिसके यहाँ फ्रिज नहीं. या फिर जिनका ड्राइवर गंदा है, वह गरीब है. वहाँ तो जिन गरीबों को रोटी नहीं मिलती, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि वे ब्रेड खाएँ. पर हमारे यहाँ के गरीब कुछ दूसरे प्रकार हैं. हमें तो यह बताया गया है कि दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी जिसके पास रोटी खाने के लिए पैसे नहीं बचते हों, वह गरीब है. शायद यही है गरीबी!
हम इस गरीबी से भी आगे बढ़ते हैं. क्या वह वास्तव में गरीब है? नहीं वह दिन भर मेहनत कर कुछ सूखी रोटी खाकर आराम से सो तो जाता है, या फिर अपने बच्चों से हँस-बोल लेता है. उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान होती है. वह तो गरीब नहीं हो सकता. तो फिर गरीब है कौन? माँगने वाला हर वह इंसान गरीब है, जो देता है, वह अमीर. दी जाने वाली वस्तु दुआ ही क्यों न हो. इसके अलावा भूखे के सामने भोजन करने वाला ंगरीब है. परंपराओं में जीने वाला वह इंसान भी गरीब है, जो अपनी युवा बिटिया का ब्याह नहीं कर सकता. गरीब तो वह भी है, जो हमेशा कुछ पाने की लालसा में जीता है. हमारे सामने कई तरह के गरीब आ सकते हैं. फिर भी वास्तविक गरीब को हम नहीं जान सकते.
फिल्म बागवान में हमारा करोड़पति महानायक एक ंगरीब की भूमिका निभा रहा है. करोड़पति होकर ंगरीब होने की भूमिका निभाना बहुत बड़ी बात है. उसने यह चुनौती स्वीकारी. उसने गरीबी का जो अभिनय किया, उससे उसे लाखों रुपए मिले होंगे. पर इस चित्र में वह ंगरीब कहीं नहीं है, जो वास्तव में गरीब है. यह कैसी गरीबी है? एक गरीब का अभिनय करके एक करोड़पति लाखों कमाता है, वह वह गरीब वही का वहीं रहता है. गरीब गरीबी में जी कर अपने लिए तो न सही पर अपने बच्चों के लिए भी कुछ नहीं कर पाता है और ये कथित रूप से बने हुए अमीर गरीब का अभिनय करके लाखों कमा जाते है. मतलब यही कि ताकत अभिनय में है, गरीबी में नहीं. पर ये अभिनय एक ंगरीब क्यों नहीं कर पाता? वह तो अपनी गरीबी का भी अभिनय नहीं कर पाता. इसके बाद भी उसे अमीरी का अभिनय करने को कहा जाए, तो वह अमीरी का भी अभिनय नहीं कर पाएगा. कैसी विडम्बना है, हमारे देश की? अब यहाँ सत्ता का ही नहीं, बल्कि अभिनय की भी तूती बोलती है.
असली जिंदगी जीना और अभिनय करना दोनों अलग-अलग बात हो सकती है, पर क्या गरीब को यह जानने का हक नहीं है कि उसकी ंजिंदगी का अभिनय किसी को लखपति कैसे बना सकता है, पर उसकी ंजिंदगी की रात में सुबह नहीं आती? आखिर क्या बात है? वह ंजिंदगी जीकर सिसकता है, दूसरी ओर उसकी ंजिंदगी का अभिनय किसी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है. उसकी ईमानदारी तो अब भी उसके पास है. उसने तो नहीं बेची अपनी ईमानदारी. जिसने अपनी ईमानदारी बेचकर बेईमानी खरीद ली, वह तो सुखी होने का नाटक ही नहीं कर रहा है, बल्कि उसके पास ऐश्वर्य की सारी सुख-सुविधाए है. फिर भी वह सुखी नहीं है, तो क्या वह गरीब है?
ऐसा क्यों होता है, आइए इसका विश्लेषण करें. गरीब अपनी गरीबी में ही अमीरी का पूरा मंजा ले लेता है. अपने परिवार के साथ सूखी रोटी खाकर ही थोड़ा-बहुत हँस बोल लेता है. कभी मेहनत का वाजिब दाम मिल गया, तो पत्नी और बच्चों को मेला या बांजार ले जाता है. उस दिन वह रोजमर्रा की चींजों के अलावा कुछ और खरीद लेता है. मसलन बच्चे के लिए खिलौने और पत्नी के लिए बिंदी या सस्ती सी साड़ी. इस तरह से वह अपने छोटे से परिवार को खुश कर देता है. उसकी खुशी बँट जाती है, कुछ हिस्सों में. टुकड़ों-टुकड़ों पर मिली खुशी को वह जिंदगी के करीब ले जाता है. घर आकर वह खुद को किसी भी अमीर से कम नहीं समझता. टूटी खाट उसे किसी अमीर के बिस्तरे का सुख देती है और वह मंजे की नींद ले लेता है.
दूसरी ओर एक अमीर दिन भर की हाय-हाय करके धन तो खूब बटोर लेता है, पर उसके पास किसी के लिए थोड़ा-सा भी वक्त नहीं रहता. न अपने लिए, न अपने परिवार के लिए. कुछ और धन कमाने के चक्कर में वह रात में गद्देदार बिस्तर पर भी सो नहीं पाता, क्योंकि प्रकृति से प्राप्त नींद तो उससे कोसों दूर रहती है. इस तरह से धन की लालसा में वह न परिवार का रह पाता है और न ही अपना. जबकि यह तय है कि वह धन अपने परिवार के लिए ही कमा रहा होता है. इस स्थिति में वह एक गरीब का अभिनय बेहतर कर सकता है. क्योंकि अभी वह किसी गरीब की ही जिंदगी तो जी रहा है. अब भला अपने ही जीवन का अभिनय कौन नहीं कर सकता? अब प्रश्न यह उठता है कि वास्तविक गरीब कौन? जो गरीब है वह या जो अमीर है वह?
गरीब वह जो हमेशा कुछ न कुछ माँगता रहता है, अमीर वह जो हमेशा सच के धरातल पर जीते हुए अपने परिवार के ही बीच दु:ख को भी ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करता है. वह जानता है, ईश्वर उसे सुख देकर उससे उसकी शांति अवश्य छीन लेगा, इसलिए वह दु:ख में भी ईश्वर को याद करते हुए सुख से जीवन जीता है. शक्ति अभिनय में नहीं, उस लखपति की ंगरीबी में है, जो उसके बीते हुए क्षण को जीवंत बनाने में सहायक होती है.
गरीबी ओढ़ी हुई चादर है, जिसका फटा होना यह दर्शाता है कि नींद इस चादर को ओढ़कर भी आ जाएगी. क्योंकि उसे तो आना ही है. अमीरी में लिपटी हुई गरीबी भी होती है. एक बार सरोजनी नायडू ने महात्मा गाँधी से कहा था बापू आपको गरीब बनाए रखने के लिए हमे एक अमीर आदमी से अधिक खर्च करना पड़ता है. क्यों एक गरीब को जो सहजता से मिल जाती है, वह बापू को प्राप्त नहीं थी. उसके लिए वह सब लाया जाता था. ऐसे में खर्च तो स्वाभाविक ही है. क्या काम की ऐसी ंगरीबी? ओढ़ी हुई गरीबी से स्वीकार की गई, आत्मसात की हुई गरीबी अधिक सुख देती है.
एक गरीब को उसकी जिंदगी का एक-एक लमहा उसे सच के करीब ले जाता है. उस सच के पास जो मौत के करीब से होकर गुंजरता है. ंजिंदगी कितनी कराहती हुई क्यों न हो, मौत उसे मुस्कराती हुई मिलेगी, यह तय है. इसे वह गरीब बेहतर जानता है. इसलिए वह खुश है, अपनी ंगरीबी में अमीर बनकर.
डॉ. महेश परिमल

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