हमारे जीवन में कई बार ऐसे शब्द सामने आते हैं, जिसे हम अच्छी तरह से पहचानते तो हैं, पर उसे जानते नहीं। किसी को जानना अलग बात है और पहचानना अलग। यह आवश्यक नहीं कि जिन्हें हम पहचानते हों, उन्हें अच्छी तरह से जानते भी हों। जानना और पहचानना अलग-अलग क्रियाएँ हैं। ऐसे अनेक शब्द हैं, यदि उनके बारे में अच्छी तरह से जान लिया जाए, तो वह हमें खूब अच्छे लगते हैं। हमारा उन शब्दों से एक भावनात्मक रिश्ता कायम हो जाता है। इस 'शब्द-यात्रा' में हम आपको ऐसे ही शब्दों से परिचय कराएँगे, जो हमारे आसपास ही हैं, पर हम उन्हें ठीक से जानते नहीं हैं। तो चलें शब्द-यात्रा' पर.......
शब्द-यात्रा'
सँभलकर करें ''मत'' और ''न'' का प्रयोग
डॉ. महेश परिमल
आजकल अनुचित शब्दों के प्रयोग की एक गलत परंपरा शुरू हो गई है। मुश्किल तब होती है, जब वे इस तरह के शब्दों का प्रयोग सभी के सामने करते हैं। कई बार तो स्थिति हास्यास्पद भी हो जाती है। इसमें कई बार क्षेत्रीयता भी हावी होती है। क्षेत्रवाद की बात छोड़ दें, तब भी यह कहा जा सकता है कि अज्ञानतावश लोग इस तरह से गलत शब्दों का प्रयोग करते हैं और हँसी के पात्र बनते हैं। पर उनका यह गलत प्रयोग तब उन्हें और भी मुश्किल में डाल देता है, जब वे किसी साक्षात्कार में शामिल होते हैं। अपनी असफलता का दोष वे परिस्थितियों को देते हैं। जबकि गलती वे ही करते हैं, पर उनकी इस गलती की ओर कोई इशारा भी नहीं करता, इसलिए उन्हें पता ही नहीं चलता कि गलती कहाँ और कैसे हो गई?
अपनी बात उदाहरण के साथ कहूँगा, तो शायद अच्छी तरह से समझ में आ जाए :-
Ø यहाँ कोई मत आए।
Ø उस बच्चे से कह दो कि वह मत करे।
Ø जब ससुराल में तुम्हारी इज्जत नहीं है, तो मत जाओ वहाँ।
Ø मेरी बात से कहीं तुम बुरा मत मान जाना।
उपरोक्त वाक्यों में पहली बार में तो कोई गलती दिखाई ही नहीं देगी। किसी से भी पूछ लिया जाए, तो वह यही कहेगा कि उपरोक्त सभी वाक्य सही हैं। अब इस तरह के वाक्य ही साक्षात्कार में व्यक्ति के ज्ञान को गलत साबित करते हैं। आजकल लोग शब्दकोश से अपना नाता करीब-करीब तोड़ चुके हैं, इसलिए शब्दों का गलत प्रयोग और त्रुटिपूर्ण वर्तनी हमारे सामने आ रही है। अब उपरोक्त वाक्यों में गलती कहाँ है, यह बताना आवश्यक हो गया है।
उपरोक्त वाक्यों में जितनी बार ''मत'' शब्दों का प्रयोग हुआ है, उस स्थान पर ''न'' का प्रयोग किया जाना चाहिए। अब इसे थोड़ा-सा व्याकरण जोड़ दिया जाए, तो स्पष्ट होगा कि ''मत'' आज्ञार्थ रूप में प्रयुक्त होता है और ''न'' शिथिल आज्ञार्थ के रूप में प्रयुक्त होता है।
अब उपरोक्त वाक्यों को सही तरीके से पढ़ा जाए :-
Ø यहाँ कोई न आए।
Ø उस बच्चे से कह दो कि वह न करे।
Ø जब ससुराल में तुम्हारी इज्जत नहीं है, तो न जाओ वहाँ।
Ø मेरी बात से कहीं तुम बुरा न मान जाना।
''मत'' आज्ञार्थ में आता है, जैसे- तुम वहाँ मत जाओ। ''न'' शिथिल आज्ञार्थ में प्रयुक्त होता है, तथा ''नहीं'' निश्चयार्थ में। यदि ''शिथिल आज्ञार्थ'' को बदलकर ''सामान्य निश्चयार्थ'' बनाना हो तो,''न'' के बदले ''नहीं'' का प्रयोग होगा, साथ ही क्रिया के रूप भी बदलकर, उदाहरणार्थ ''खाऊँगा'' और ''मरूँगा'' कर देने की आवश्यकता पडेग़ी। इसे एक और उदाहरण से इस तरह से समझा जा सकता है-
Ø बस इतना जहर खाऊँ कि मैं मरूँ मत। इस वाक्य का सही रूप इस तरह होगा-
Ø बस इतना जहर खाऊँगा कि मैं मरूँ नहीं।
देखिए बात छोटी-सी है, पर कभी-कभी गलत अर्थ भी बताती है। अब यह एक छोटा-सा शब्द है, पर इसका प्रयोग यदि गलत हो, तो कभी-कभी शब्द का प्रयोग करने वाला हँसी का पात्र बन जाता है। इसलिए आप भी शब्दकोश से नाता जोड़ें और सही शब्दों को प्रयुक्त करने में देर मत करें, नहीं...नहीं, सही वाक्य होगा-देर न करें।
संस्कृत भाषाओं की माता नहीं
संस्कृत को हम सभी भाषाओं की जननी मानते हैं, अभी तक हमें ऐसा ही बताया जाता था, जो गलत है। संस्कृत के मातृ, पितृ, भ्राता, दौहित्र शब्द की वर्तनी को हम अँगरेजी भाषा के मदर, फादर, ब्रदर और डाटर से मिलाकर देखते हैं और यह सिध्द करने का प्रयास करते हैं कि ये शब्द संस्कृत के हैं और इसे अँगरेजी में इस तरह से लिखा गया है।
दरअसल हुआ यूँ कि मध्ययुग तक आते-आते जब लोगों का देश-देशांतर तथा उनकी भाषाओं से परिचय बढ़ा तो संसार की सारी भाषाओं को किसी एक भाषा से निकली सिध्द करने के लिए अर्थ तथा ध्वनि की दृष्टि से मिलते-जुलते शब्दों के बहुत से संग्रह बने। उस समय तक इस संबंध में कुछ निश्चित सिदधांत सिध्दांत तो थे नहीं, लोग अटकल से दो शब्दों के बाह्य रूप देखकर दोनों को एक शब्द से निकला मान बैठते थे।
अँगरेजी का नीअर शब्द भी इसी भ्रांति का षिकार हुआ है। रहीम की पंक्ति 'निंदक नियरे राखिए' के 'नियर' को हिंदी का शब्द मानकर इसकी तुलना अँगरेजी के 'निअर' से करते हैं, जो गलत है। अँगरेजी के 'नीअर' और भोजपुरी के नीयर, का अर्थ समीप है। इसका आषय यह कतई नहीं है कि दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति एक ही भाषा से हुई है।
उक्त दोनों शब्दों में ध्वनिसाम्य है। वस्तुत: भोजपुरी का 'नियर' या 'नियरा' संस्कृत शब्द 'निकट' से निकला है और अँगरेजी का 'नीअर' पुरानी नार्स के 'नेर' से। जहाँ इस प्रकार का साम्य मिले, उस भाषा या बोली की जननी भाषा में उस शब्द के समानार्थी शब्दों तथा उस शब्द की प्राप्त जीवनी को लेकर विचार करना चाहिए।
इससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत ही सभी भाषाओं की जननी नहीं है। हर भाषा का अपना अलग ही इतिहास है। सभी भाषाओं के स्रोत अलग-अलग हैं। भाषाओं में सहोदरपन हो सकता है, पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि दोनों भाषाओं का स्रोत एक ही हो।
डॉ. महेश परिमल
खाना और ख़ाना
दो मित्र रास्ते में मिले, दोनों ने परस्पर पूछा-किधर चले? एक ने कहा-ख़ाना खाने। दूसरे ने कहा-कारख़ाने। वे दोनों तो चले गए, पर तीसरा व्यक्ति जो उनकी बातें सुन रहा था, उसे बड़ा आष्चर्य हुआ, हँसी भी आई, वह सोचने लगा-भला, ये भी कोई बात हुई। कोई खाना खाए, यह तो समझ में आता है, पर कोई कार खाए! यह क्या संभव है? आइए उस व्यक्ति की उलझन दूर करने का प्रयास करें:-
सबसे पहले शब्द लें-'खाना' और 'ख़़ाना'। शब्द कोश के अनुसार सकर्मक क्रिया 'खाना' का आशय है, ठोस आहार को चबाकर निगलना, भक्षण करना, निगलना, हिंस्र पषुओं को मारकर भक्षण करना, चूसना, चबाना (पान, गड़ेरियाँ), चाट जाना (कीड़ों आदि का), खर्च करना, नष्ट करना, आदि। फ़ारसी शब्द 'ख़ाना' याने गृह, घर, आलम, डिबिया, केस, अलमारी, संदूक आदि का ख़ाना, रजिस्टर का ख़ाना, कागज या कपड़े पर रेखाओं से बना, विभाग, कोष्ठक, फ़ारसी में इसकी वर्तनी ख़ान: है। अब यह निश्चित रूप से जान लें कि 'खाना' हिंदी का शब्द है और 'ख़ाना' फ़ारसी का मात्र एक (.) नुक्ते में दोनों शब्दों का अर्थ ही बदल दिया। 'ख़ुदा' और 'जुदा' की तरह।
अब चलें 'कार' की ओर, यह शब्द फ़ारसी का है, जिसका अर्थ है कार्य, काम, उद्यम, पेशा, कला, फ़न, विषय, मुआमला, ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इसे 'कार' ही लिखें, 'क़ार' नहीं, क्योंकि 'क़ार' का अर्थ बर्फ, तुहिन, क़ीर, रील, तारकोल होता है। अब दोनों शब्दों को मिलाकर बने शब्द 'कारख़ाना' का अर्थ देख लिया जाए। 'कारख़ाना' का अर्थ हुआ वह स्थान जहाँ चीजें बनती हैं, शिल्पशाला, उद्योगशाला, कार्यालय यह शब्द भी फ़ारसी ।
शब्दों के उलझन में पड़ा तीसरा व्यक्ति हिंदी, उर्दू, फ़ारसी की थोड़ी समझ भी रखता होता, तो शायद उसकी उलझन तुरंत दूर हो जाती, पर केवल हिंदी के जानकार लोगों के लिए यह उलझन बनी रह सकती है। 'कारख़ाना' और 'खाना-खाना' में मूलभूत अंतर है कि खाना में नुक्ता नहीं है और 'ख़ाना' में है। 'खाना' का आशय हम 'भोजन' से लेते हैं। भोजन को ग्रहण करने की क्रिया 'खाना' कहलाती है, इसीलिए शब्द बना 'खाना-खाना' इसमें पहले वाला 'खाना' भोजन है और दूसरे वाला 'खाना' क्रिया है।
अब तो आप समझ गए होंगे कि रास्ते में दोनों मित्र का विपरीत दिशा में जाकर 'खाना-खाने' और 'कारखाने' का आशय क्या था?
डॉ. महेश परिमल
बातें घर-द्वार की
आज बातें होंगी घर-द्वार की। 'घर-द्वार' इन दो शब्दों में 'द्वार' का आशय तो 'दहलीज' है, पर 'घर' विस्तृत अर्थो में है। 'घर' शब्द 'गृह' से बना है। इसका अर्थ हिंदी में पूरे मकान से या उस भवन से, जिसमें निवास करते हैं, लिया जाता है। बंगला भाषा में 'घर' का आशय होता है 'बाड़ी'। 'पिसी बाड़ी' याने मौसी का घर। 'बाड़ी' 'बारी' का दूसरा रूप है। 'बासा' बंगाल में और 'डेरा' बिहार में रहने का स्थान बताने के लिए कहा जाता है। रहने की इमारत के लिए नहीं। कहीं से आकर किसी जगह में ठहर जाने, रह जाने को 'डेरा' डालना कहते हैं। नगर निगम का अमला जब अवैध रूप से बसाई गई झुग्गी बस्तियों में पहुँचता है, तब चेतावनी स्वरूप लोगों से 'डेरा-डंडा' उठा लेने की अपील करता है।
इसी 'डेरा-डंडा' को थोड़ा दार्शनिक अर्थ में सोचें तो 'रमना' शब्द सामने आता है। संस्कृत के 'रमण' से आया है यह शब्द। 'रमण' का आशय है 'खेल' या 'खेल करना'। जिस स्थान पर बैठकर या ठहर कर मन को विनोद मिलता हो वह स्थान होगा 'रमण करने लायक' याने 'रमणीय' रमन कराने वाला रमणीक। इसे रम्य भी कहते हैं। 'सुरम्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'रम्य' से हुई है। जब कोई कहे 'मेरा मन यहाँ 'रम' रहा है', तो इसका आशय यह हुआ यहाँ मुझे अच्छा लग रहा है। जब कोई कहता है कि आप कहाँ रमते हैं? तब यही समझा जाता है कि ठहरने का स्थान पूछ रहा है, उपरोक्त प्रश्न केवल साधुओं या सिध्द लोगों के साथ ही किया जाता है। 'ग्रह' शब्द 'गृह' से एकदम अलग है, इसमें कोई समानता नहीं है।
'मकान', 'गृह', 'घर', 'बसेरा', 'घरोंदा', 'गरीबख़ाना', 'दौलतख़ाना', ये सभी निवास स्थान का संकेत देते हैं, पर हमने कभी ध्यान दिया कि हम जहाँ रहते हैं, उस घर के कितने हिस्से हैं? कौन-सा हिस्सा कहाँ खत्म होता है और कहाँ से शुरू होता है। उस घर में जहाँ हम 'रमते' हैं, उस स्थान को अब घ्यान से देखें और निम्नांकित हिस्सों को समझने का प्रयास करें- चौपाल, चौतरा, चबूतरा, छज्जा, बरामदा, दर, दरीचा, मुंडेर, छत, सहन, ऑंगन, ज़ीना, कुर्सी, ताक़, आला, महराब, खंभा, कोठरी, परछत्ती, अटारी, दहलीज, चौखट, डयोढी, देहरी, कमान, हौज, चहबच्चा, दुछत्ती, बैठक, धंआरा, हाता, चहारदीवारी, फर्श, नींव, बुनियाद, चौकी, भोखा, मोहरी, नाली, तहख़ाना, किवाड़, सीढ़ी, खंड, माला, मंजिल, रोशनदान, तल्ला, मियानी, बरोठा, झरोखा, ओसारा, बंगला, कोठी, कोठा, तांड और खिड़की।
घर के इन हिस्सों को आपने जिस क्षण पहचान लिया सचमुच उस वक्त अपना घर 'घर' लगेगा।
डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 17 नवंबर 2007
शब्द-यात्रा'
लेबल:
शब्द-यात्रा'
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
ज्ञानवर्धक जानकारी,अनजाने में हम ना जाने कितनी बार इन गल्तियों को दोहराते हैं।
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ कर हमेशा अध्यापन के दिन याद आ जाते हैं. जितनी बार इस विषय पर चर्चा की जाए उतनी बार एक नई गलती कर देते हैं. मैने बात 'करी' है कि आपने गलत काम 'करा' है --- सुन-सुन कर दिमाग झल्लाने लगता है... एक और हिन्दी अध्यापिका है जो जलील और ज़लील दोनो ही बड़े धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हैं. मिस्टर जलील को ज़लील कह जाती हैं और हम मुस्करा कर रह जाते हैं.
जवाब देंहटाएं