डॉ. महेश परिमल
खूब और बहुत
भारतीय समाज में कई शब्द 'खूब' चलते हैं, इनकी संख्या भी 'बहुत है', फिर भी इन्हें 'काफ़ी' नहीं कहा जा सकता। खूब, बहुत, काफ़ी, ये तीन शब्द हम सभी रोज़मर्रा की जिंदगी में न जाने कितनी बार प्रयोग करते हैं। कभी-कभी एक शब्द दूसरे शब्द का स्थान ले लेता है, पर हम इस पर ध्यान नहीं देते।
पहली नज़र में उक्त तीनों शब्द पर्यायवाची लगते हैं। फलस्वरूप हम उसका प्रयोग भी कर लेते हैं, पर यदि हम इस पर गहराई से विचार करें, तो इनमें जहाँ काफ़ी समानताएँ हैं, वहीं अर्थ भिन्नता भी हैं। लोग वाक्यों में प्रयोग करते हैं - 'शिवाजी की खूब धाक जमी' यह वाक्य अशुध्द है, यहाँ पर 'खूब' के स्थान पर 'काफ़ी' होना था। इसी तरह 'इतना बहुत है', के स्थान पर 'इतना काफ़ी है' सही होगा। शब्दकोश में तीनों शब्दों का एक अर्थ काफ़ी, बहुत और खूब है।
आइए, इन शब्दों की गहराई में जाएँ- बृहत् हिंदी कोश के अनुसार 'बहुत' याने अधिक, ज्यादा (मात्रा या संख्या में) काफ़ी, पूरा, अधिक मात्रा में, ज्यादा, और 'काफ़ी' का मतलब है- किफ़ायत करने-पूरा पड़ने वाला, पूरा, पर्याप्त, बहुत और 'खूब' का आशय अच्छा, बढ़िया, सुंदर, अच्छी तरह, पूरी तरह, बहुत, साधु, वाह आदि। 'खूब' फारसी एवं 'काफ़ी' अरबी शब्द है।
उर्दू-हिंदी शब्दकोश में खूब का मतलब सुंदर, हसीन, उत्तम, उम्दा, स्वच्छ, साफ़, शुभदर्शन, खुशनुमा, शुभ, मुबारक और अव्यय में वाह! क्या खूब दिया हुआ है। इससे ही उक्त तीनों शब्दों में छिपे गूढ़ अर्थो का पता चलता है।
बातचीत में जब हम वाह! क्या खूब या खिलाड़ी के बेहतरीन प्रदर्शन को देखकर अनायास ही मुँह से निकल पड़ता है, 'बहुत खूब!' इस शब्द के दो अर्थ निकलते हैं, एक तो खिलाड़ी के खेल की प्रषंसा, दूसरा उसे इसी तरह के प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित करना। बच्चे जब अपने पापा की प्रशंसा करते हैं तो कहते हैं - 'मेरे पापा बहुत अच्छे हैं' उनके मुँह से यह सुनना हमें बहुत भला लगता है। उसमें दोष ढूँढना मूर्खता होगी, पर बड़े यदि यही वाक्य दोहराएँ तो सोचना पड़ता है। 'बहुत' का प्रयोग तब होगा जब हमें अपनी बात मात्रा या संख्या में कहनी हो। प्यार, स्नेह, अपनत्व, ममत्व की मात्रा नहीं होती।
इसी तरह जब 'खूब' का प्रयोग किया जाए, तो समझिए इसमें सौंदर्य की प्रशंसा, प्यार की प्रशंसा, मौसम की प्रशंसा की गई है। 'काफ़ी' में 'पर्याप्त' का भाव है। इसके लिए संस्कृत शब्द 'यथेष्ट' भी है। याने जितना चाहिए था उतना। यह भी मात्रा को दर्शाता है, पर इसमें संतोष के भाव के साथ एक सीमा भी है। अर्थात 'बहुत' और 'खूब' की अपेक्षा सीमा में इसमें विस्तार नहीं है, इसे मन के घेरे में बाँधा जा सकता है, पर 'बहुत' और 'खूब' सीमाहीन भी हैं।
इसके अलावा इनसे बने कुछ शब्द प्रयुक्त होते ही रहते हैं- बहुत-खूब, बहुत-कुछ, काफी-कुछ। इनमें 'बहुत-कुछ' और 'बहुत-खूब' में प्रशंसा का भाव है, लेकिन 'काफ़ी-कुछ' एक सीमा तक है। 'मैं छत्तीसगढ़ के 'काफ़ी-कुछ' इलाके से परिचित हूँ' अर्थात् उसने छत्तीसगढ़ के अनेक स्थानों को देखा है, फिर भी कुछ स्थान शेष रह गए हैं।
मुझे लगता है कि मैंने उक्त तीनों शब्दों के बारे में बहुत-कुछ, काफ़ी-कुछ कह दिया है, अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे खूब समझे या बहुत-खूब।
शतरंज की चाल
हम सभी जानते हैं कि 'शतरंज' का खेल भारत की ही देन है। कुछ लोग इस खेल को ईरान से निकला बताते हैं। जो निराधार है। इसका आरंभ बौध्दकाल में हुआ। प्राचीन काल से भारत में चतुरंगिणी सेना का उल्लेख मिलता है, अर्थात् सेना के चार अंग होते थे, पैदल, सवार, रथ और हाथी। ईरान में पहुँच कर इसका नाम 'चतरंग' हुआ, बाद में शतरंग, अरब वालों ने इसे शतरंग के रूप में अपनाया। इटली में इसका रूप बदलकर Seachi हुआ, जर्मनी में Sehach, फ्रांस में Rchess और इंग्लैंड में chess भारतीय भाषाओं में इसका रूप शतरंज ही रहा।
शतरंज का ही एक संशोधित रूप 'अतरंज' है। इसमें एक पक्ष का केवल राजा होता है। दूसरे पक्ष में केवल पैदल होते हैं। समस्या यह है कि आठों पैदल किस प्रकार विपक्ष के राजा का सामना करें। बहुत कुछ राजा के ढाई घर वाली चाल पर निर्भर करता है, जो एक ही बार मिलती है।
शतरंज का एक अन्य रूप है ' बीसिया', शतरंज में प्रत्येक पक्ष में 16 मोहरे होते हैं। बीसिया में 20-20 मोहरे होते हैं, दो अतिरिक्त पैदल और दो अतिरिक्त ऐसे मोहरे, जिनकी चाल घोड़े और मंत्री की चालों से मिलीजुली होती है। यह खेल सामान्य शषतरंज से कहीं अधिक जटिल किंतु रोचक होता है।
शतरंज के बहाने आज हमने कुछ नए शब्दों का परिचय कराया, इसमें आए शब्द 'चाल' पर ध्यान दीजिए। इसका अर्थ क्या-क्या होता है और क्या हो सकता है। यह एक ऐसा शब्द है, जो सामान्य जीवन में सदैव व्यवहार में लाया जाता है, किंतु संदर्भ के साथ इसका आशय बदल जाता है। नीचे इस शब्द को प्रयुक्त करते हुए कुछ वाक्य बनाए गए हैं, ज़रा ध्यान दीजिए और अर्थ जानने का प्रयास कीजिए :-
1. उसका 'चाल-चलन' अच्छा नहीं है।
2. वाह! क्या 'चाल' है।
3. तुम्हारी 'चाल' मैं समझ रहा हूँ।
4 तुम किस 'चाल' में रहते हो।
5. तुम्हारे स्कूटर के पहिए में 'चाल' आ गई है।
6. मैंने 'चाल' चल दी, अब तुम्हारी बारी।
7. सोहन उसकी 'चाल' में फँस गया।
शतरंज में चलने वाली चाल को 'कि' कहते हैं। इस खेल की गहराई में जाएँ, तो हम पाएँगे कि 'शह और मात' के इस खेल में 'शह' को ही 'किश्त' कहते हैं। यह 'किश्त' है, इसे 'किस्त' कदापि न समझें। 'किस्त' का आशय होगा - न्याय, इंसाफ, भाग, अंश, हिस्सा, खंड, टुकड़ा, अदायगी का एक जुज़ और 'किस्त' का आशय होगा - कृषि, खेती, शतरंज की 'शह'। 'काश्तकार' में यही किष्त है, क्योंकि फ़ारसी में 'काष्त' का आशय है - कृषि, काष्तकारी, खेती, खेत की भूमि।
शतरंज से शुरू होकर हमारी यह शब्द यात्रा 'चाल' से गुजरकर 'किष्त और किस्त' में जाकर खत्म होती है। तो आप ही बताएँ कि यह किसकी 'चाल' है?
गुजरात और मध्यप्रदेश का 'राज़ीनामा'
कभी-कभी एक शब्द एक स्थान पर अपना सही अर्थ बताता है, किन्तु दूसरे स्थान पर वह अपने सही अर्थ से बहुत दूर का अर्थ देता है। अब राज़ीनामा शब्द को ही ले लें। मूल रूप से अरबी और फारसी का यह शब्द (राज़ीनामा:) हिंदी में संधि पत्र, सुलहनामा, मुकदमे के दोनों पक्षों में संधि का लिखित पत्र आदि को कहते हैं, पर यदि आप गुजरात या महाराष्ट्र चले जाएँ, तो वहाँ 'राज़ीनामा' का अर्थ होगा - इस्तीफा, त्यागपत्र। देखिए शब्द ने यात्रा की और दूसरे प्रांत में एक अलग ही अर्थ की चादर ओढ़ ली। इसी तरह गुजराती में सपांदक को 'तंत्री' कहते हैं, पर हिंदी में 'तंत्री' का अर्थ वीणा आदि में लगे तार, शरीर की नस, नाड़ी आदि को कहा जाता है। कहाँ राज़ीनामा बन गया, त्यागपत्र और 'तंत्री' बनकर 'संपादक' बन गया, वीणा में लगा हुआ तार और शरीर की नस।
शब्दों के इस तरह के आशय को पकड़ने के लिए हम कहीं और नहीं अतिप्राचीन भाषा संस्कृत में ही चले जाएँ, तो हम पाएँगे कि उस भाषा में 'अभियुक्त' शब्द आदरणीय अर्थ में भी आता है, पर हिंदी में इसका अर्थ है- मुल्ज़िम, जिस पर कोई अपराध- अभियोग लगाया गया हो। आप ही बताएँ हिंदी में किसी आदरणीय के लिए 'अभियुक्त' कहना कैसा रहेगा?
उड़ीसा के ग्रामीण अंचलों में हम 'दूध' का प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि वहाँ 'दूध' का आशय 'स्तन से निकलने वाला दूध' होता है। हमें जिस दूध की आवश्यकता होती है, उसे वहाँ 'गोरस' कहा जाता है। इसलिए किसी भी नए स्थान पर हमें शब्दों का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए, क्या पता किस शब्द का अर्थ वहाँ बदले हुए रूप में हो, या फिर प्रचलित ही न हो। गुजरात में ही 'मीठु' का आशय मिठाई से न होकर 'नमक' होता है। मीठेपन के सादृश्य में हम उसकी माँग कर बैठे, तो मुश्किल हो जाएगी।
अतएव भाषा की आवश्यकता, प्रकृति, प्रवाह और नागरिकों का ध्यान रखकर ही हमें शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। इसे अच्छी तरह से समझा गोस्वामी तुलसीदास ने। तभी तो उन्होंने 'रामचरित मानस; की रचना ऐसे देशज शब्दों से की, जो बोलियों में प्रचलित हैं। इसीलिए आज मानस की चौपाइयों पर साधारण शिक्षित ग्रामीण भी बड़ी आसानी से टीका कर लेता है।
हमारा गहन अध्ययन ही हमें बताता है कि शब्द कहाँ पर सशक्त है और कहाँ पर अशक्त?
शब्दों के उतार-चढ़ाव
आज हम एक घटना के माध्यम से शब्दों के उतार-चढ़ाव पर प्रकाश डालेंगे। हुआ यूँ कि अपने गर्दिश के दिनों में करीब 20-25 वर्ष पूर्व हिंदी व उर्दू के प्रसिद्ध् साहित्यकार एवं नाटककार उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने उत्तरप्रदेश के एक शहर में 'परचून' की दुकान खोल ली। मध्यप्रदेश में जिसे किराना दुकान कहते हैं। उसे ही उत्तर प्रदेश में परचून की दुकान कहते हैं। यह समाचार अखबारों में आया। बस तब से ही विवाद षुरू हो गया।
अखबारों ने कहीं-कहीं तो 'परचून' ही लिखा, पर किसी ने उसमें से 'पर' निकालकर 'चूना' कर दिया। अब वह चूने की दुकान हो गई। इस खबर का जब अँगरेजी में अनुवाद हुआ तो 'चूने' का अनुवाद किसी ने तो 'चूना' ही किया, पर किसी संपादक ने अतिरिक्त बुद्धि का परिचय देते हुए उसे 'लाइम' लिख दिया। और फिर इसी 'लाइम' को हिंदी अखबारों में 'नींबू' समझ लिया गया। अब वह नींबू की दुकान हो गई। कुछ संपादक ने और भी आगे बढ़कर सोचा कि अष्क जी अपनी दुकान में केवल नींबू ही क्यों रखेंगे? निश्चित ही वे सब्जियाँ भी बेचते होंगे। अतएव वह दुकान सब्जी की दुकान हो गई। किसी ने सोचा दुकान में नींबू के अलावा और फल जैसे संतरा, आम, सेव, केला आदि भी रखते होंगे। अतएव वह फलों की दुकान होगी। तो वह फलों की दुकान हो गई।
आप देखिए कहाँ 'परचून' और कहाँ फलों या सब्जी की दुकान। काफी समय तक लोग समझ ही नहीं पाए कि 'अश्क' जी ने आखिर दुकान किस की खोली है। अंतत: अश्क जी ने ही इसका खुलासा किया कि उनकी दुकान न तो नींबू की है न चूने की। वह तो परचून की दुकान है, जहाँ किराने का सामान मिलता है।
आज अश्क जी हमारे बीच नहीं हैं, पर शब्दों की निरंतर पूजा करने वाले उस साहित्यकार के साथ शब्दों ने ही ऐसा मजाक किया कि वे उससे आहत हो गए। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
डॉ. महेश परिमल
सोमवार, 19 नवंबर 2007
शब्द-यात्रा'
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शब्द-यात्रा'
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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डाक्टर साहब, बहुत बढ़िया । मज़ा आया, ज्ञानवर्धन भी हुआ। संयोग देखिये कि कल मैने पंसारी शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में लिखा था और आज परचून की व्यवत्पत्ति पर जब लिखने बैठा तो अश्क जी के नींबू पानी का संदर्भ तो जाहिर है आना ही था। संयोग से आपकी इस पोस्ट में वह संदर्भ भी मिल गया।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...