डा. महेश परिमल
आज मेरी बिटिया ने अपने स्कूल की एक घटना बताई. उसका कहना था कि उसकी क्लास में एक लड़के ने एक लड़की को 'आई लव यू' कहा और उसका चुम्मा ले लिया. पालक जरा ध्यान दें क्लास है पहली और बच्चों के हैं ये हाल. यह एक चेतावनी है हम सब पालकों के लिए. अगर आकाशीय मार्ग से होने वाली इस ज्ञान वर्षा को न रोका गया, तो संभव है संतान और भी छोटी उम्र में वह सब समझने लगे, जो आज बड़े भी नहीं समझ पा रहे हैं.
आज जिसे हम पैराटीचर के नाम से जानते हैं, वह भविष्य में निश्चित ही हमें तो नहीं, पर हमारे बच्चों को भटकाएगा ही, यह तय है. आज टी.वी. हमारे मनोरंजन का साधन है, पर यही मनोरंजन हमें बहुत ही जल्द हमारी औकात बता देगा. वैसे कुछ पालक इस खतरे को समझ रहे हैं, पर समझने के बाद भी कुछ न करने की स्थिति में हैं. दूसरी ओर बहुत से पालक ऐसे हैं, जो इस खतरे को जानना ही नहीं चाहते. मत जानें, उनकी बला से. पर जो जानना चाहते हैं, वे यह भी जान लें, बहुत जल्द यह हमें अपनी गिरफ्त में ले लेगा और हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे.
आज खबरें ही नहीं, बल्कि ज्ञान भी भागने-दौड़ने लगा है. ज्ञान के किसी भी रास्ते को हम चाह कर भी नहीं रोक सकते. इसलिए यह समझना मूर्खता होगी कि हमारा बच्चा कुछ नहीं जानता-समझता. बच्चा कुछ नहीं जानता, यह हमारी गलतफहमी है. वह सब जानता है, केवल आप ही उसे नहीं जानते. वह हमसे ही सीख रहा है. हमारी एक-एक हरकत पर उसकी निगाह है. यही नहीं वह अपने टी.वी. को ही अपना सबसे प्यारा दोस्त समझता है. उसी से वह बहुत कुछ सीख रहा है. हम तो खुश हो लेते हैं कि चलो अच्छा हुआ इस बुध्दू बक्से से हमारा बच्चा कुछ तो सीख रहा है. आपकी यही सोच उसे क्या-क्या सीखा रही है, यह शायद आप नहीं जानते.
आपने कभी ध्यान दिया, घर में जितने नल नहीं है, उससे ज्यादा चैनल हैं. इसे शायद आप हँसी में उड़ा दें, पर यह सच है कि नलों से तो पानी ही आता है, जो हमारा जीवन है, इसमें पानी के सिवा और क्या आ सकता है? अधिक से अधिक गंदा पानी या फिर केंचुएँ. पर चैनलों में बहुत कुछ आ रहा है, और जो भी आ रहा है, वह आपके बच्चे की निगाह में है. अगर आप सामने नहीं है तो उनकी ऊँगलियाँ तय करती हैं कि उसे क्या देखना है. चैनलों से ऐसा ज्ञान आ रहा है, जिससे हमारा जीवन ही खतरे में पड़ सकता है. अब हमारी संवेदनाएँ मरने लगी है. कोई भी दुर्घटना अचरज में अवश्य डालती है, पर हमारी ऑंखें नहीं भिगोती. हम रोना ही भूल रहे हैं. कभी बच्चे को रोता देख भी लेते हैं, तो हमें गुस्सा आने लगता है. यही गुस्सा हमें उस मासूम से कुछ देर के लिए दूर कर देता है. यही दूरी बढ़ती रहती है. उस मासूम के अकेलेपन को यही बुध्दू बक्सा दूर करता है, तो क्यों न हो, वह उसका सच्चा दोस्त! वही दोस्त उसे ले जाता है, मायावी संसार में, जहाँ गरीबी होती ही नहीं. सब अमीर होते हैं. वे हजारों की बातें नहीं करते, बल्कि करोड़ों में खेलते हैं. वे रोमांस करते हैं, बड़ी-बड़ी होटलों में जाकर पैसा पानी की तरह बहाते हैं, खूबसूरत युवतियों के साथ डांस करते हैं और रात के ऍंधेरे में भाई को सुपारी देते हैं. यह सब उस मासूम का अकेलापन दूर करते हैं. उसे यही अच्छा लगता है. तब फिर क्यों न उसे वह अपना आदर्श माने? क्योंकि गरीबी तो उसने नहीं देखी या उसके पालक ने देखने की नौबत ही नहीं दी, तो भला वह क्या जाने कि गरीबी क्या होती है? वैसे भी अधिकांश लोगों का मानना है कि गरीबी का यह जीवन सदैव कष्ट ही देता है, उसे जानने की भी कोशिश क्यों की जाए?
इस मायावी दुनिया के संवाद उसे अच्छे लगते हैं, तभी तो वह उसे अपनी जिंदगी में उतार लेता है. छोटी उम्र में 'आई लव यू' कहने में उसे जरा भी संकोच नहीं होता. उस बच्चे ने वही कहा जो उसने घर में सुना या टी.वी. पर देखा-सुना. इसमें उनका कोई दोष भी नहीं. वेलेंटाइन डे ने उसे बता दिया है कि लाल गुलाब से क्या संदेश निकलता है, पीला गुलाब क्या कहता है और यदि काला गुलाब किसी लड़की को दिया जाए, तो लड़की की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या आप जानते हैं इन गुलाबों के रंगों का अर्थ? नहीं जानते ना, पर इतना तो बता दीजिए कि आप जब अपने बच्चे की उम्र के थे तो वेलेंटाइन डे को किस रूप में जानते थे? शायद आप यह भी नहीं जानते. आज यदि आपका बच्चा यह सब जानता है, तो आपको उस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए.
अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों के पालक ही नहीं, बल्कि उनके दोस्त भी बनें. इससे कई फायदे हैं. पालक बने रहने से हम उनसे दूर हो जाएँगे, उनके करीब जाने का सबसे आसान रास्ता यही है कि हम उन्हें अपना दोस्त मानें. इससे वे हमारे करीब होंगे और अपनी बातें हमें बताएँगे. यही समय है जब हजम उनके मन की बात जान सकते हैं. वे अपना ज्ञान ही नहीं, बल्कि अपना अज्ञान भी बताएंगे. इस वक्त हमने उन्हें जान लिया, तो कोई बात ही नहीं रह जाती कि हम उनके लिए कुछ न करें.
अब अधिक से अधिक चैनल के लिए अधिक रुपए लगने लगे हैं, तो क्यों न हम चुनिंदा चैनल ही देखें. तो क्यों न हम चुनिंदा चैनल ही देखें. जिससे मनोरंजन भी हो और ज्ञान भी बढ़े. यहाँ पालकों को समझना होगा कि वे जो कुछ भी करें, उससे मासूम के मन में किसी प्रकार की ग्रंथि न बन जाए. उससे खुलकर बातचीत करें. यह अनुकरण की अवस्था होती है. जैसा वह अपने से बड़ों को करता देखेगा, वैसा ही करने लगेगा. अतएव आपने जो कुड किया, वही आपका बच्चा आपके सामने करने लगे, तो आपको गुस्सा नहीं होना चाहिए, क्योंकि आपने जो कुछ किया, उसी का प्रतिरूप ही आपके सामने आया.
उनके कोमल हृदय पर सच्चाई की इबारत लिखें. उसके भीतर के बालपन को समझने की कोशिश करें. उसे सदैव बच्चा ही न समझें. अपना बचपन कभी उस पर थोपने की कोशिश न करें. उसकी भावनाओं को कभी कुचलने का प्रयास न करें. उसके बारे में जब भी सोचें, तो थोड़ी देर के लिए ही सही, पर बच्चा बनकर सोचें. तभी आपका बच्चा आपका बनकर रहेगा और भविष्य में एक-एक कदम पर आपके साथ चलने को तैयार होगा.
डा. महेश परिमल
बुधवार, 14 नवंबर 2007
मासूमों की बड़ी-बड़ी बातें
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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स्थिति चिंतनीय व शोचनीय है. और हम है कि हाथ पर हाथ धरे बैठे है. शायद कुछ कर भी नही सकते. शायद यह विकास का या परिवर्तन का अनिवार्य परिणाम है.
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